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'संघ और समाज' के आत्मीय संबंध को समझने में मदद करते हैं 'मीडिया विमर्श' के दो विशेषांक

'संघ और समाज' के आत्मीय संबंध को समझने में मदद करते हैं 'मीडिया विमर्श' के दो विशेषांक - MEDIA VIMARSH
लेखक एवं राजनीतिक विचारक प्रो. संजय द्विवेदी के संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली जनसंचार एवं सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित पत्रिका 'मीडिया विमर्श' का प्रत्येक अंक किसी एक महत्वपूर्ण विषय पर समग्र सामग्री लेकर आता है। 
 
11 वर्ष की अपनी यात्रा में 'मीडिया विमर्श' के अनेक अंक उल्लेखनीय हैं- हिन्दी मीडिया के हीरो, बचपन और मीडिया, उर्दू पत्रकारिता का भविष्य, नए समय का मीडिया, भारतीयता का संचारक : पं. दीनदयाल उपाध्याय स्मृति अंक, राष्ट्रवाद और मीडिया इत्यादि।
 
'मीडिया विमर्श' का पिछला (सितंबर) और नया (दिसंबर) अंक 'संघ और समाज विशेषांक-1 और 2' के शीर्षक से हमारे सामने है। यूं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) सदैव से जनमानस की जिज्ञासा का विषय बना हुआ है, क्योंकि संघ के संबंध में संघ स्वयं कम बोलता है, उसके विरोधी एवं मित्र अधिक बहस करते हैं। इस कारण संघ के संबंध में अनेक प्रकार के भ्रम समाज में हैं।
 
विरोधियों ने सदैव संघ को किसी 'खलनायक' की तरह प्रस्तुत किया है जबकि समाज को संघ 'नायक' की तरह ही नजर आया है। यही कारण है कि पिछले 92 वर्षों में संघ 'छोटे से बीज से वटवृक्ष' बन गया। अनेक प्रकार के षड्यंत्रों और दुष्प्रचारों की आंधी में भी संघ अपने मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।
 
दरअसल, सत्ता एवं सत्ता-पोषित बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों, संचारकों इत्यादि के प्रोपेगंडा से लड़ने के लिए संघ के साथ समाज का वह अटूट भरोसा था, जो उसके हजारों कार्यकर्ताओं ने अपने जीवन की आहुति देकर कमाया था। समाज को समरस, स्वावलंबी, समर्थ, संगठित बनाने के लिए संघ समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उतर गया। 
 
जहां विरोधी अपनी हवेलियों के छज्जे पर बैठकर संघ पर धूल उछाल रहे थे, वहीं संघ के कार्यकर्ता अपने राष्ट्र को 'गुरु' स्थान पर पुनर्स्थापित करने के लिए पवित्र भाव से समाजसेवा को यज्ञ मानकर स्वयं को 'समिधा' की भांति जला रहे थे- 'सेवा है यज्ञ कुंड, समिधा सम हम जलें।'
 
संघ मानता है कि वह समाज में संगठन नहीं है, बल्कि समाज का संगठन है। संघ का यह विचार ही उसके विस्तार की आधारभूमि है। समाज में सब आते हैं इसलिए संघ सबका है। यहां तक कि मुसलमान और ईसाई भी संघ के समाज में समाहित हैं।
 
मैं अनुमान ही लगा सकता हूं कि 'मीडिया विमर्श' के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघ की सशक्त उपस्थिति को देखकर ही पत्रिका के इन विशेषांकों का शीर्षक 'संघ और समाज' रखा होगा। दोनों विशेषांकों की सामग्री का अध्ययन करने के बाद यह कह सकता हूं कि शीर्षक उपयुक्त है। 'मीडिया विमर्श' के यह दोनों विशेषांक संघ और समाज के आत्मीय संबंधों को समझाने में बहुत हद तक सफल रहे हैं।
 
यूं तो संघ को पढ़कर, सुनकर और देखकर समझना बहुत कठिन कार्य है। संघ के पदाधिकारी कहते भी हैं- 'संघ को दूर से नहीं समझा जा सकता। संघ को समझना है तो संघ में आना पड़ेगा। संघ को भीतर से ही समझा जा सकता है।' 
 
बहरहाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे विशाल संगठन के संबंध में उसके पदाधिकारियों का यह कहना उचित ही है, परंतु 'मीडिया विमर्श' के ये दोनों विशेषांक संघ और उसकी यात्रा को समझने में हमारी बहुत मदद कर सकते हैं। समाज में संघ की उपस्थिति का विहंगम दृश्य हमारे सामने 'मीडिया विमर्श' के ये अंक उपस्थिति करते हैं। दोनों विशेषांकों की सामग्री में संघ के विराट स्वरूप के एक बहुत बड़े हिस्से को देखने और समझने का अवसर हमें उपलब्ध होता है।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर व्यवस्थित सामग्री प्रकाशित करने का संपादक प्रो. संजय द्विवेदी का यह प्रयास स्वागतयोग्य है। उसके 2 प्रमुख कारण हैं- एक, जब संघ के बारे में देश-दुनिया में जिज्ञासा है, तब उन्होंने समृद्ध सामग्री प्रस्तुत की है। जो लोग संघ और उसके कार्यव्यवहार को जानना चाहते हैं, उनके लिए ये दोनों विशेषांक बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे। सामान्य लोगों के अनेक प्रश्नों को उत्तर और जिज्ञासाओं का समाधान देने का प्रयास किया गया है। दो, संघ के बारे में सकारात्मक लिखने का अपना खतरा पत्रकारिता एवं लेखन के जगत में रहता है।
 
तथाकथित प्रगतिशील खेमा संघ के प्रति अच्छा भाव रखने वाले व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखता है और उसे हतोत्साहित करने का प्रयास करता है। जहां संघ को गाली देना, उसका मान-मर्दन करना, उसके संबंध में झूठ फैलाना ही प्रगतिशीलता, निर्भीकता एवं ईमानदार लेखन का पर्याय बना दिया गया हो, वहां संघ पर 2 विशेषांक निकालने का साहस संपादक ने दिखाया है।
 
संघ का आकार एवं कार्य वृहद है। इसलिए निश्चित ही बहुत कुछ छूटा होगा। उम्मीद है कि प्रो. संजय द्विवेदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर और शोधपूर्ण सामग्री भविष्य में प्रकाशित करेंगे। यह भी उम्मीद है कि उनके इस प्रयास से शेष संपादक, पत्रकार एवं लेखक भी प्रेरित होंगे और अपना 'पुराना चश्मा' हटाकर संघ को देखने का प्रयत्न करेंगे।
 
(लेखक पं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।) 
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