गुरुवार, 28 नवंबर 2024
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Written By Author संजय कुमार रोकड़े

अपना नहीं, बाहरियों का है मध्यप्रदेश

अपना नहीं, बाहरियों का है मध्यप्रदेश - Madhya Pradesh
लो भाई, फिर मध्यप्रदेश से राज्यसभा में बाहरी नेता एल. गणेशन को पहुंचा दिया गया है। यह सीट पूर्व केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला के इस्तीफे के बाद से खाली हुई थी। नजमा को मणिपुर की राज्यपाल बना दिया है। अबकि बार प्रबल रूप से यहां से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश के कद्दावर नेता माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय को राज्यसभा में भेजा जाना तय था लेकिन फिर एक बार बाहरी नेता को उपकृत कर दिया गया है। 
 
राज्यसभा में भेजे जाने के लिए आमतौर पर प्रदेश नेतृत्व कुछ नामों का पैनल केंद्रीय नेतृत्व को भेजता है, इसके बाद उम्मीदवार की घोषणा की जाती है लेकिन अबकि इस सीट के लिए प्रदेश भाजपा ने कोई नाम ही नहीं भेजे थे। 
 
इसको लेकर खबरें तो ये भी हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राज्यसभा के मध्यप्रदेश से होने वाले उपचुनाव के लिए पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर तमिलनाडु के गणेशन के नाम की घोषणा पहले ही कर दी थी। इसी के चलते राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उनके नाम पर मुहर भी लगा दी गई थी। गणेशन तमिलनाडु में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं और भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी हैं। वे आरएसएस के प्रचारक के रूप में भी सेवाएं दे चुके हैं यानी वे आरएसएस की गुड लिस्ट में होने के चलते ही यह बाजी मार ले गए। 
 
सनद रहे कि यहां गणेशन का राज्यसभा सांसद के रूप में कार्यकाल लगभग डेढ़ साल का रहेगा। उनका समय 2 अप्रैल 2018 तक है इसलिए उपचुनाव जरूरी था। हाल ही में चुनाव आयोग ने उपचुनाव के लिए अधिसूचना जारी की थी और वे यहां से राज्यसभा सदस्य चुने गए।
 
गणेशन जब रिटर्निंग ऑफिसर के समक्ष अपना नामांकन दाखिल करके कक्ष से बाहर आए तो उन्होंने मीडिया को संबोधित किया। वे इस मौके पर बोले कि अब उनकी प्राथमिकता में तमिलनाडु के पहले मध्यप्रदेश रहेगा। मैं यहां एक स्टूडेंट की भांति सीखने आया हूं। पहले मैंने यह सोचा था कि मैं यहां बहू की तरह आया हूं। जिस तरह एक बेटी मां का घर छोड़कर आती है तो ससुराल को ही सब कुछ मान लेती है, उसी तरह मैं भी तमिलनाडु को छोड़कर मप्र आया हूं। अब मेरी प्राथमिकता में यह राज्य व यहां की जनता ही रहेगी। सीएम जो आदेश देंगे, उनके मुताबिक काम करूंगा। 
 
इसके आगे वे कहने लगे कि ग्वालियर में कार्यसमिति की बैठक के दौरान संगठन महामंत्री रामलाल ने मुझे बताया कि आप एक प्रचारक हो और शादी तो कर नहीं सकते तो बहू कैसे बनोगे? आप एक स्टूडेंट हो और यहां सीखने आए हो, यह समझो। रामलाल से मिलने के बाद मेरी समझ में आ गया कि मैं यहां स्टूडेंट की तरह ही काम करूंगा व सीखूंगा। 
 
बहरहाल, गणेशन यहां से राज्यसभा में किसी भी रूप में पहुंचे हो चाहे बहु बनकर या छात्र, लेकिन उन्होंने हक तो प्रदेश के किसी छात्र या बहुरूपी आवश्यकतावान नेता का ही मारा है, हालांकि राज्य में सत्ता व संगठन के नेताओं की आपसी फुटमपैल के चलते अकसर यहां से इस तरह की दरियादिली दिखाई जाती रही है। 
 
प्रदेश में संगठन का नेतृत्व करने वाले पदाधिकारियों के साथ ही सत्ता की मलाई का स्वाद चखने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस बात से कोई इत्तेफाक नहीं है कि राज्यसभा में यहां से कौन जा रहा है? बाहरी हो या भीतरी, क्या फरक पड़ता है? बस उनकी कुर्सी पर आंच नहीं आना चाहिए। 
 
सत्ता और संगठन में इसी कुनीति के कारण यहां से पिछले दरवाजे से बार-बार बाहरी नेता राज्यसभा में पहुंच रहे हैं। कोई चूं तक नहीं बोल पाता है, विरोध करना तो दूर की कौड़ी है। अब तो आलम यह है कि मध्यप्रदेश को लोग बाहरी नेताओं का चारागाह भी कहे तो किसी कोई फरक नहीं पड़ता है, कहे तो कहे। मध्यप्रदेश को कोई कितना भी अपना प्रदेश कहे, पर सच में यह अपना नहीं सबका है, खासकर दूसरे राज्य के नेताओं को प्रश्रय देने के संदर्भ में।
 
प्रदेश में बाहरी नेताओं को पनाह देने के संबंध में भोपाल के प्रसिद्ध शायर व पत्रकार इश्तियाक आरिफ साहब की यह उक्ति सटीक बैठती है कि- 'हम यहां बियाबां में हैं/ और घर में बहार आई है।' आज प्रदेश में कुछ इसी तरह का माहौल बनता जा रहा है। 
 
राज्यसभा में पिछले दरवाजे से किसी को उपकृत करना हो या फिर किसी राजनीतिक मामले में किसी बड़े ओहदे पर किसी की ताजपोशी करना हो, यह प्रदेश अपनों को किनारे कर दूसरों को उपकृत करने की दरियादिली के लिए बदनाम-सा हो गया है। 
 
हालांकि भाजपा की ओर से गणेशन को राज्यसभा में भेजने का यह फैसला कोई नया और पहला नहीं है। भाजपा ऐसे फैसले कई बार कर चुकी है और ऐसे कई कमाल दिखा चुकी है। भाजपा इनके पूर्व प्रदेश से चंदन मित्रा को राज्यसभा में भेज चुकी है और चंदन के पहले केरल के ओ. राजगोपाल को भी दो बार यहां से राज्यसभा में भेज चुकी है। इसी तरह मुस्लिम वोटों की चाह में कभी दिल्ली के सिकंदर बख्त को भी भाजपा मध्यप्रदेश से राज्यसभा में भेज चुकी है। 
 
कभी पार्टी में सर्वाधिक प्रभावशाली रहे और कद्दावर माने जाने वाले नेता लालकृष्ण आडवाणी भी प्रदेश कोटे से राज्यसभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। बाहरियों को तवज्जो देने की यह नीति यहीं खत्म नहीं हो गई। बिहार मूल के प्रभात झा ने भी यहां के स्थानीय नेताओं का हक खूब मारा। पहले तो वे राज्य से राज्यसभा में भेजे गए, फिर कार्यकाल समाप्त होने के बाद यहां प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनकर बैठ गए। इसी तरह नरेन्द्र भाई मोदी के मंत्रिमंडल की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी यहां खूब स्थानीय नेताओं का हक मारा। 
 
पहले तो सुषमा मध्यप्रदेश के कोटे से राज्यसभा में दाखिल हुईं, इसके बाद सबसे सुरक्षित व हिन्दू बाहुल्य माने जाने वाली विदिशा सीट से लोकसभा में पहुंचीं। सुषमा की तो मध्यप्रदेश से मुख्यमंत्री बनने की अफवाहें भी खूब चली थीं। प्रदेश में पार्टी द्वारा बाहरियों को प्रमोट करने का यह सिलसिला काफी पुराना है। जनसंघ के दौर से ही यह परिपाटी बनी हुई है।
 
बता दें कि विदिशा सीट से भाजपा, जनसंघ के समय रामनाथ गोयनका को भी चुनाव लड़ाकर जिता चुकी है। राजगढ़ सीट से ही 70 के दशक में मुंबई के एक ज्योतिषी वसंत पंडि़त को भी टिकट देकर चुनाव लड़वाया गया है। वे यहां से दो बार चुनाव लड़े हैं और जीते हैं। राजगढ़ सीट से वसंत पंडित के पूर्व कर्नाटक के जगन्नाथराव जोशी सांसद रह चुके थे। 
 
बता दें कि प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह के कार्यकाल में राजगढ़ सीट को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। उस समय इस सीट को दिग्विजयसिंह के भाई लक्ष्मणसिंह के कब्जे से मुक्त कराने के लिए भाजपा ने बिहार से सांसद रह चुके व 'महाभारत' सीरियल के श्रीकृष्ण बने नीतीश भारद्वाज को यहां से चुनाव लड़वाया था। बहरहाल, वे यह चुनाव नहीं जीत पाए, पर भाजपा के सत्ता में आने पर उनको राज्य पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष जरूर बना दिया गया था। 
 
प्रदेश के स्थानीय नेताओं की उपेक्षा कर बाहरी नेताओं को उपकृत करके उनका स्वागत करने का यह शगल बहुत पुराना है। कभी ये शगल दिल्ली के दबाव में चलता रहा है तो कभी स्थानीय नेता प्रतिद्वंद्वी के चलते। 
 
स्थानीय नेताओं की आपसी फूट के चलते भी यहां बाहरियों को मजे मारने के खूब अवसर मिले हैं। कैलाश विजयवर्गीय के मामले में यह बात फिट बैठती है। अबकि बार यहां से कैलाश को राज्यसभा में भेजे जाने के पूरे-पूरे आसार थे लेकिन बीते कुछ समय से उनकी पटरी प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह से बैठ नहीं पा रही थी, शायद इसी के चलते यहां से गणेशन को राज्यसभा में भेज दिया गया है। देखा जाए तो इस मामले में कैलाश को शायद स्थानीय नेता प्रतिद्वंद्विता का ही खामियाजा भुगतना पड़ा है। 
 
बहरहाल, यह प्रदेश की जनता और यहां के नेताओं के लिए एक त्रासदी है, हालांकि प्रदेश में अपने नेताओं की उपेक्षा कर बाहरी नेताओं को माथे पर बिठाने की यह नीति सही नहीं है। प्रदेश में काबिल नेताओं की भी कोई कमी नहीं है। ऐसा कतई नहीं है कि यहां योग्य नेता नहीं हैं, पर दुर्भाग्य से कभी कोई किसी का दोस्त होने के नाते यहां आकर स्थानीय जनप्रतिनिधियों का हक मारकर नेता बन बैठता है, तो कभी कोई किसी का ज्योतिषी होने के चलते राज करने लगता है। 
 
आखिर एमपी से ही ज्यादातर बाहरी नेताओं को राज्यसभा में क्यों भेजा जाता है या संगठन में बड़े पदों पर बैठाया जाता है? इस मसले पर सबके मुंह सिल जाते हैं। हालांकि इसके लिए उपेक्षित और नाराज नेता अपनों को ही दोष देते हैं। वे बड़ी बेबाकी से यह कहने से नहीं चूकते हैं कि अब पार्टी में 'अपनावाद' हावी हो गया है। 
 
हालांकि कुछ नेता प्रदेश के सीएम शिवराज की नीतियों को दोगली करार देकर इस स्थिति का कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि एक तरफ तो प्रदेश में 'अपना मध्यप्रदेश' की मुहिम चलाई जाती है वहीं दूसरी तरफ बाहरी नेताओं को प्रश्रय देने का काम किया जाता है। आज प्रदेश में कई निगम, बोर्ड व आयोग में पद खाली पड़े हैं, लेकिन उनको भरने की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। सत्ता और संगठन में भी कई गुंजाइश है लेकिन चंद लोग ही इसका लाभ ले रहे हैं। सचमुच में अगर प्रदेश को 'अपना' बनाने की नीति पर काम करना है तो सबसे पहले स्थानीय नेताओं के अधिकारों का संरक्षण करना पड़ेगा। 
 
हाल ही में प्रदेश में स्थानीय नेताओं की उपेक्षा का जिस तरह से माहौल बना है उसे देखते हुए तो यही लगता है कि- 'सिर्फ बौने ही मिलेंगे मंजिलों पर दूर तक/ कद्दावरों को दौर के कायदे नहीं आते।' 
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