जैन धर्म ग्रंथ पर आधारित धर्म नहीं है। भगवान महावीर ने सिर्फ प्रवचन ही दिए। उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं रचा, लेकिन बाद में उनके गणधरों ने, प्रमुख शिष्यों ने उनके अमृत वचन और प्रवचनों का संग्रह कर लिया। यह संग्रह मूलत: प्राकृत भाषा में है, विशेष रूप से मागधी में।
भगवान महावीर से पूर्व के जैन धार्मिक साहित्य को महावीर के शिष्य गौतम ने संकलित किया था जिसे 'पूर्व' माना जाता है। इस तरह चौदह पूर्वों का उल्लेख मिलता है।
जैन धर्म ग्रंथ (jain dharma granth) के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है। समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है:-1. प्रथमानुयोग 2. करनानुयोग 3. चरर्नानुयोग 4. द्रव्यानुयोग।
12 अंगग्रंथ:- 1. आचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय 5. भगवती, 6. ज्ञाता धर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृतदशा, 9. अनुत्तर उपपातिकदशा, 10. प्रश्न-व्याकरण, 11. विपाक और 12. दृष्टिवाद। इनमें 11 अंग तो मिलते हैं, बारहवां दृष्टिवाद अंग नहीं मिलता।
12 उपांगग्रंथ :- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापना, 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चंद्र प्रज्ञप्ति, 7. सूर्य प्रज्ञप्ति, 8. निरयावली या कल्पिक, 9. कल्पावतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूड़ा और 12. वृष्णिदशा।
2 स्वतंत्र ग्रंथ :- 1. अनुयोग द्वार 2. नन्दी द्वार।
जैन पुराणों का परिचय : जैन परम्परा में 63 शलाका-महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएं तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
मुख्य पुराण हैं:- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।