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Last Updated : शुक्रवार, 11 मार्च 2016 (13:06 IST)

मार्क्सवाद क्या है?

मार्क्सवाद क्या है? - What is Marxism?
कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक और क्रांतिकारी थे, जिनका जन्‍म 1818 में और मृत्‍यु 1883 में हुई थी। उनके लेखन ने दुनिया में कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के लिए वैचारिक जमीन तैयार की। वे एक किताबी दार्शनिक नहीं थे। उन्‍होंने अपने विचारों को स्‍वयं अपने जीवन में उतारा। अपने दौर के मजदूर आंदोलनों और क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ वे करीब से जुड़े हुए थे। चूंकि शासक वर्गों को चुनौती देने वाले उनके विचार इतने असरदार और 'खतरनाक' थे, कि उन्‍हें कई देशों की सरकारों ने देश से निकाल दिया था और उनके लिखे लेखों व विचारों पर प्रतिबंध लगा दिया था। उन्‍होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। 
मार्क्‍स ने करीब 150 साल पहले जो लिखा था, वह 21वीं शताब्‍दी के भारत में कितना सार्थक और प्रासंगिक है, इस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। लेकिन हमें देखना होगा कि मार्क्‍स का उनके तत्कालीन समाज के बारे में क्‍या कहना है और क्या उनके विचार अभी भी हमारी दुनिया और हमारे संघर्षों को समझने में मददगार हैं? जब हम आसपास के समाज पर निगाह डालते हैं तो हमें गैर बराबरी और शोषण ही दिखाई पड़ता है। अमीर और गरीब के बीच, औरत और मर्द के बीच, ‘ऊपरी’ और ‘निचली’ जातियों के बीच। इस समाज में हमें जिंदा रहने के लिए होड़ करनी पड़ती है।
 
अक्सर कहा जाता है कि ऐसा समाज ‘स्वाभाविक’ या ‘ईश्वर का बनाया हुआ’ है। पर जब हम पूछते हैं कि ऐसा क्यों है कि जो लोग काम नहीं करते उनके पास तो अथाह संपत्ति है, लेकिन जो लोग सबसे कठिन काम करते हैं, वे सबसे गरीब हैं। तब कहा जाता है कि भगवान की यही मर्जी है। या कि काम न करने वाले अधिक कुशल हैं या ज्यादा मेहनत करते हैं। या फिर प्रकृति का नियम ही है कि कुछ लोग कमजोर और कुछ लोग बलवान हों।
 
जब हम पूछते हैं कि हमारे समाज में औरतें मर्दों के अधीन क्यों हैं तो कहा जाता है कि इसका कारण औरतों का ‘प्राकृतिक रूप से’ कमजोर होना है। या कि उनके लिए बच्चों की देखभाल करना या घरेलू काम आदि करना ‘प्राकृतिक’ है। पर मार्क्सवाद हमें बताता है कि यह समाज ‘प्राकृतिक’ या शाश्वत/अपरिवर्तनीय नहीं है। हमेशा से समाज ऐसा नहीं रहा है और इसीलिए हमेशा ऐसा ही नहीं बना रहना चाहिए। समाज और सामाजिक संबंध लोगों द्वारा बनाए हुए हैं और अगर उन्हें लोगों ने बनाया है तो वे इसे बदल भी सकते हैं। इन्हें बदला कैसे जाए? अलग और बेहतर समाज कैसे बनेगा?
 
कुछ लोग कहते हैं कि अगर व्यक्ति कम भ्रष्ट, कम दुष्ट होने का फैसला कर ले तो समाज में सुधार हो सकता है। लेकिन मार्क्सवाद कहता है कि ऐसी निजी कोशिश ही काफी नहीं है और हमें समाज को बदलना होगा। लेकिन सवाल है कि समाज को कैसे बदलें। इस सत्य की खोज के बाद यह संभव हो जाता है कि मानव समाज के बारे में एक ऐसे वैज्ञानिक सिद्धांत का निरूपण किया जाए, जो मनुष्य जाति के वास्तविक अनुभवों पर आधारित हो और धार्मिक विश्वासों, नस्ली अहंकार और हीरो वरशिप, व्यक्तिगत भावनाओं या काल्पनिक स्वप्नों के आधार पर बने हुए समाज के बारे में पहले ही अस्पष्ट धारणाओं (जो आज भी हैं) से भिन्न हो।
 
दूसरे शब्दों में इन्हीं सामान्य नियमों को, जिनकी सत्ता सार्वभौमिक है और जो इंसानों तथा वस्तुओं, दोनों का ही निर्देशन करते हैं, मार्क्सवादी दर्शन अथवा संसार का मार्क्सवादी दृष्टिकोण कहा जा सकता है। मार्क्सवाद नैतिकता के किन्हीं काल्पनिक सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण मान्यता का दावा नहीं करता, बल्कि मान्यता का दावा वह इसलिए करता है कि वह सच्चाई पर आधारित है। और चूंकि वह सच्चाई पर आधारित है, इसलिए आज के समाज में सबको परेशान करने वाली बुराइयों और तकलीफों से मानवता को हमेशा के लिए छुटकारा दिलाने तथा समाज के एक उच्चतर रूप की स्थापना करके सभी स्त्री–पुरुषों को अपना पूर्ण विकास करने में मदद देने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है और ऐसा करना हमारा कर्तव्य है।
 
मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत : मार्क्सवाद बीसवीं सदी में दुनिया के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली विचारधारा तो है ही, लेकिन सोवियत संघ के विघटन, चीन के धीरे-धीरे एक पूंजीवादी तानाशाही में तब्दील होते जाने, दुनिया भर के कई देशों, जैसे रोमानिया में चाउसेस्कू जैसे तानाशाहों को जन्म देने और एक शासन व्यवस्था के रूप में विरोधियों द्वारा पूरे जोर-शोर से खारिज किए जाने के बावजूद आज भी न केवल बौद्धिक अपितु राजनैतिक दुनिया में भी बहस का विषय बनी हुई है।
 
एक तरफ इसे एक मृत विचारधारा घोषित करने में पूंजीवादी प्रचार तंत्र अपना पूरा जोर लगा देता है तो दूसरी तरफ अपनी हालिया हार के बावजूद दुनिया भर में वाम बुद्धिजीवी तथा वामपंथी राजनैतिक दल अपने-अपने तरीके से वर्तमान संदर्भों में इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करने के साथ-साथ नई परिस्थितियों के अनुसार एक वामपंथी राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था को परिभाषित करने में लगे हैं।
 
कम्युनिज्म के स्वप्न का सबसे बड़ा पक्ष है बराबरी पर आधारित सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना। आज अपने प्रचंड प्रभाव के बावजूद पूंजीवाद जो एक चीज़ कभी नहीं दे सकता वह है समानता। इसके विकास के मूल में ही गैर बराबरी की अवधारणा अन्तर्निहित है। लाभ की लगातार वृद्धि के उद्देश्य से संचालित इसका कार्य व्यापार मुनाफे की एक ऐसी हवस को जन्म देता है जो एक तरफ नए-नए और उन्नत उत्पादों की भीड़ लगाता जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें खरीदने की ताकत को लगातार कुछ हाथों में सीमित कर बाकी बहुसंख्या को उत्तरोत्तर वंचितों के खांचे में डालता चला जाता है। दुनिया के पैमाने पर अमीर-गरीब देश बनते जाते हैं, देशों के पैमाने पर अमीर-गरीब लोग। सत्ता इन्हीं प्रभावशाली वर्गों के व्यापारिक और सामाजिक हितों की रक्षा का काम करती है। 
 
पर्यावरण की उस हद तक लूट की जाती है, जहां जमीनें बंजर होती जाती हैं, नदियां सूखती जाती हैं और जंगल तबाह होते जाते हैं। मुनाफा ही सबकुछ है। जाहिर है कि जहां इतनी असमानता होगी वहां असंतोष होगा, अशांति होगी और युद्ध भी होंगे। जहां मुनाफे की ऐसी हवस होगी वहां मानवीय संबंध भी बाजार से निर्धारित होंगे। स्वार्थ ही सबसे बड़ा सिद्धांत होगा और अन्याय ताकतवर का हथियार होगा तो कमजोर विद्रोह पर उतरेंगे ही।
 
मार्क्सवाद इसके बरक्स एक ऐसे समाज का स्वप्न दिखाता है जहां मुनाफे की यह अंधी हवस न हो। जहां आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक प्रक्रियाएं समानता की ओर अग्रसर होंगी। इस समानता में शांति के बीज अपने आप अंकुरित होंगे। यानि समाजवाद का एक नारा हो सकता है – शान्ति, समाजवाद, समृद्धि। आज किसी भी समाजवादी मॉडल को इन तीनों ही उद्देश्यों को एक साथ साधना होगा। साथ ही इसे वर्तमान पूंजीवाद से अधिक लोकतांत्रिक भी होना ही होगा। तभी यह समाज के व्यापक हिस्से को अपने साथ ले पाएगा।  
 

भूमंडलीय स्तर पर एक राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा और दर्शन के रूप में मार्क्‍सवाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उभरा था। इस दार्शनिक सोच के जनक कार्ल मार्क्‍स और उनके सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स, दोनों ही इसे अपने जीवनकाल में व्यवहार में उतरने नहीं देख पाए। इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, साहित्य और कला तथा मानविकी के अन्य क्षेत्रों और साथ ही सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों पर इस विचारधारा ने अब तक जितना प्रभाव डाला है उतना आधुनिक काल की किसी अन्य विचारधारा ने नहीं डाला। 
 
बीसवीं सदी के आरंभ में रूस में मार्क्‍सवाद को व्यवहार में उतारने का पहला प्रयास किया गया। इसके कुछ समय बाद चीन सहित विश्व के अनेक देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना हो चुकी थी। किंतु ये पार्टियां तब सत्ता हासिल करने में विफल रहीं और काफी समय तक सोवियत संघ अकेला कम्युनिस्ट देश बना रहा। बाद में दूसरे विश्व युद्ध के बाद मध्य और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट सत्ताएं अस्तित्व में आईं।
 
मार्क्‍सवाद को बड़े पैमाने पर व्यवहार में उतारने का दूसरा बड़ा प्रयास माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीन में किया गया, जिसके फलस्वरूप 1949 में चीनी लोक गणराज्य की स्थापना हुई। आरंभ में साम्यवादी चीन को समस्त प्रकार की सोवियत सहायता प्राप्त हुई। ऐसा लगा कि इतनी विशाल आबादी और क्षेत्र वाले ये दोनों साम्यवादी देश पूंजीवादी विश्व के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर विश्व के अन्य देशों में साम्यवाद का प्रसार करेंगे, किंतु ऐसा नहीं हुआ। 1960 के दशक के आरंभ में दोनों देशों के बीच वैचारिक मतभेद उभरने लगे। इसका एक कारण दोनों के अलग-अलग राष्ट्रीय हित और उसके अनुसार मार्क्‍सवाद की अलग-अलग व्याख्याएं थीं। 
 
इसके साथ एक प्रमुख कारण यह था कि निकिता ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत संघ पूंजीवाद के साथ ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ की नीति अपनाना चाहता था जबकि माओ पूंजीवादी देशों के प्रति युद्धरत रहने पर बल दे रहे थे। इसके फलस्वरूप मार्क्‍सवाद का तथाकथित लेनिनवादी और माओवादी विचारधाराओं के रूप में विभाजन हो गया और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ को संशोधनवादी घोषित कर दिया। साम्यवाद की विडंबना यह है कि यह विभाजन आज भी – जबकि न तो सोवियत संघ रहा और न ही माओवादी विचारधारा वाला चीन – अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मार्क्‍सवाद के अनुयायियों को विभाजित किए हुए है। भारत में भी काफी कुछ यही स्थिति है।
 
भारत में मार्क्सवादी विचारों का प्रवेश : भारत में मार्क्‍सवादी विचारों का प्रवेश बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हुआ। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन को लेकर मतभेद रहे हैं। वर्तमान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार उसकी स्थापना 1925 में कानपुर में हुई थी और 1964 में उससे अलग हुआ धड़ा जो अब अपने को मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कहता है और जो वामपंथी मोर्चे का सरगना है, के अनुसार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना ताशकंद में 1920 में हुई थी और उसमें एमएन राय, एल्विन राय (उनकी पत्नी), रोजा फिंटिंगोफ मोहम्मद अली आदि शामिल थे। किंतु ऐतिहासिक तथ्य यह सुझाते हैं कि ताशकंद में गठित पार्टी में मुख्यत: वे लोग शामिल थे जो विदेशों में मार्क्‍सवाद के प्रभाव में आए और उन्होंने सोवियत संघ की छत्रछाया में वहीं एक कम्युनिस्ट पार्टी गठित कर डाली। ऐसे लोगो का भारत जैसे देश में कोई जनाधार भी नहीं था। 
 
भारत में वामपंथी आंदोलन : वर्तमान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का दावा अधिक तर्कयुक्त लगता है, क्योंकि उसके अनुसार 1925 में जिस कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया उसमें एसवी घाटे और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे वे राजनीतिक नेता शामिल थे जिन्होंने भारत में ट्रेड यूनियनों की शुरुआत की थी। इस तरह 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म तब हुआ जब सोवियत संघ अस्तित्व में आ चुका था और रूस में 1917 की अक्टूबर क्रांति से कई बुद्धिजीवी, ट्रेड यूनियन नेता और विशेषकर युवा क्रांतिकारी लोग प्रभावित हो रहे थे। इसके साथ ही यह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का दौर भी था जब उपनिवेशवाद और विशेष कर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध अनेक देशों में जनआंदोलन शुरू हो रहे थे। 
 
भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में जो राष्ट्रवादी आंदोलन अपने उभार पर था और उसमें अनेक कम्युनिस्ट शामिल थे। तत्कालीन सोवियत संघ भी अनेक देशों में चल रहे साम्राज्यवाद विरोधी और उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के पक्ष में था। भारत में कम्युनिस्टों ने कांग्रेस के भीतर रहकर अपना राजनीतिक कार्य करने का निर्णय लिया, पर एक पार्टी के रूप में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी स्थापना के बाद लगभग डेढ़ दशक तक भूमिगत रही, पर उसके अनेक नेता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर कार्य करते रहे।
 
भारतीय कम्युनिस्टों का दावा है कि उन्होंने ही पहली बार पूर्ण स्वराज्य की मांग उठाई थी और उन्हीं के दबाव में आकर 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने इसे स्वीकार कराया था। एक ओर जहां व्यक्तिगत स्तर पर कम्युनिस्ट कांग्रेस के भीतर रहकर कार्य कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर वे ट्रेड यूनियनों के माध्यम से मजदूरों को संगठित भी कर रहे थे।
 
1929 में गिरणी कामगार मजदूरों के नेतृत्व में बंबई में कपड़ा मजदूरों की हड़ताल, 1930 में कलकत्ता के जूट मजदूरों और रेलवे तथा बागान मजदूरों की हड़ताल और कानपुर, मदुरई और कोयंबटूर में कपड़ा मजदूरों की हड़ताल के पीछे कम्युनिस्टों का ही हाथ था। उस समय की सबसे बड़ी राष्ट्रीय स्तर की ट्रेड यूनियन एटक में (जिससे टूटकर बाद में कांग्रेस का ट्रेड यूनियन मोर्चा इंटक बना) मुख्यत: कम्युनिस्ट ही अग्रणी पदों पर थे। 1929 में मेरठ षड्यंत्र मुकदमा सामने आया। अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीय रेलवे में हड़ताल कराने के लिए तीन अंग्रेजों सहित अनेक ट्रेड यूनियन नेताओं को गिरफ्तार किया और उन पर मुकदमा चलाया। उन पर आरोप यह भी था कि वे भारत में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कार्मिटर्न) की शाखा स्थापित करने जा रहे थे। 
 
गिरफ्तार लोगों में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एसए डांगे, मुजफ्फर अहमद आदि शामिल थे। 1929 से 1933 तक चले इस मुकदमे ने न केवल मजदूरों के बीच, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी पहचान बनाने में मदद की। आगे चलकर जब 1934 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर जयप्रकाश नारायण, नरेंद्र देव और मीनू मसानी के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उसमें शामिल हो गई क्योंकि कांग्रेस का यह घटक कुछ हद तक मार्क्‍सवादी विचारों की दुहाई देता था और साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नाराज भी नहीं करना चाहता था।
 
भारतीय कम्युनिस्ट तब लेनिन के इस विचार से प्रेरित थे कि उन्हें राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के साथ एकता और संघर्ष की नीति अपनानी चाहिए और लगातार यह प्रयास करना चाहिए कि इन आंदोलनों को एक वामपंथी दिशा प्रदान की जाए। इसका एक उदाहरण यह है कि जब कांग्रेस के त्रिपुरा सम्मेलन के बाद सुभाष चंद्र बोस द्वारा 1939 में फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना किए जाने के बाद जब वामपंथी समेकन समिति का गठन किया गया तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उसमें शामिल हुई। इसमें फारवर्ड ब्लॉक और कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और अनुशीलन दल जैसे अन्य वामपंथी संगठन भी शामिल थे। पर कुछ समय बाद ही अनुशीलन दल और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी इस सहमेल से अलग हो गए और यह सहमेल ढह गया। अनुशीलन पार्टी के नेताओं ने फिर क्रांतिकारी समाजवादी दल (आरएसपी) का गठन किया।
 
अगले पन्ने पर कम्युनिस्टों पर अंग्रेजों का साथ देने का आरोप 
 

कम्युनिस्टों पर अंग्रेजों का साथ देने का आरोप : भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लगातार सोवियत संघ से ही मार्गदर्शित होती रही। जब दूसरा महायुद्ध शुरू हुआ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग-थलग होना पड़ा। इसकी वजह यह थी जब देश में गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था तब उसने इस आंदोलन का विरोध किया, क्योंकि सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका हिटलर के फासीवाद से लड़ रहे थे। इसीलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि उसने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया।
 
इस तरह आजादी से पहले भारतीय वामपंथ पूरी तरह सोवियत संघ के मार्गनिर्देश में कार्य करता रहा। पर वैचारिक दृष्टि से वह इस दुविधा से भी ग्रस्त रहा कि उग्रवादी रणनीति अपनाए या फिर राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा के साथ चले। 1940 के दशक के उत्तरार्ध में राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से अलग होते हुए भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने न केवल अनेक औद्योगिक हड़तालों की अगुवाई की, बल्कि पश्चिम बंगाल में किसानों के अधिकारों के लिए तेभागा आंदोलन और केरल में पुनप्रा-वायलार आंदोलन भी चलाया। इन दोनों राज्यों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति पहले से ही मजबूत थी। 
 
पर इस दौर का सबसे महत्त्वपूर्ण आंदोलन निजाम की हुकूमत के अंतर्गत आने वाले भयावह निर्धनता से ग्रस्त तेलंगाना क्षेत्र में चलाया गया किसानों का सशस्त्र आंदोलन था। इस संघर्ष में सैकड़ों कम्युनिस्टों और आंदोलनकारी किसानों की जानें गईं। पर इस आंदोलन ने सैकड़ों गांवों को भूस्वामियों के चंगुल से मुक्त कराया और कई स्थानों पर किसानों के बीच भूमि का पुनर्वितरण भी किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा सशस्त्र संघर्ष की यह सबसे बड़ी कार्रवाई थी।
 
इस संघर्ष का एक कारण उस समय पार्टी पर हावी उग्रवादी लाइन थी जिसके चलते आजादी मिलने पर उसने ‘यह आजादी झूठी है’ और 'लाल किले पर लाल निशान मांग रहा है हिंदुस्तान’ जैसे नारे कम्युनिस्टों की भाषा का अंग बन गए। इस लाइन को आज पार्टी वामपंथी संकीर्णतावाद की लाइन मानती है। इसके चलते पार्टी को अलगाव का सामना करना पड़ा जिसे दूर करने के लिए उसने संशोधित कार्यक्रम अपनया और संकीर्णतावादी लाइन त्याग कर आजाद भारत के पहले चुनावों में भाग लेने की तैयारी में जुट गई। 
 
 
पहला चुनाव : 1951-52 के पहले लोकसभा चुनावों में पार्टी को 16 सीटें प्राप्त हुई और वह कांग्रेस के बाद दूसरे स्थान पर रही और इस तरह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उसने संसदीय लोकतंत्र में अपनी एक पहचान बनाई। इसने 1957 के चुनावों में 27 और 1962 के चुनावों में 29 सीटें हासिल कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी बढ़ती शक्ति का परिचय दिया। 
 
वर्ष 1957 में उसने केरल विधान सभा चुनावों में 127 सीटों में से 60 सीटों पर विजय हासिल की और पांच स्वतंत्र विधायकों की मदद से ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट मंत्रिमंडल का गठन किया। 
 
यह जनतांत्रिक चुनावों के माध्यम से विश्व में कम्युनिस्टों की पहली जीत थी वरन साम्यवादी समानता पर आधारित समाज को ताकत के बल पर स्थापित करने का विचार रखते थे। कम्युनिस्टों के नेतृत्व में गठित इस पहली राज्य स्तर की सरकार ने भूमि सुधारों को लेकर काम करना शुरू ही किया था कि 1959 कांग्रेस ने संविधान के अनुच्छेद 356 का सहारा लेकर उसे गिरा दिया। पर इससे यह स्पष्ट था कि अब तक कि कम्युनिस्ट राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा की एक शक्ति बन चुके थे।
 
पर इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर कथित ‘वामपंथी संकीर्णतावादियों’ और ‘संशोधनवादियों’ के बीच का टकराव भीतर ही भीतर सुगबुगा रहा था। 1962 में भारत-चीन युद्ध ने इस टकराव में चिंगारी का काम किया। पार्टी का एक धड़ा खुले आम यह कह कर चीन का पक्ष ले रहा था कि यह तो एक पूंजीवादी और एक कम्युनिस्ट देश के बीच का टकराव है। इस टकराव के फलस्वरूप 1964 में पार्टी का विभाजन हो गया और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) अस्तित्व में आई। विभाजन के बाद 1967 में बंगाल में हुए विधानसभा चुनावों में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी एक बड़ी शक्ति बनकर उभरी और उसने बंगला कांग्रेस के अजय मुखर्जी के नेतृत्व में गठित राज्य सरकार के गठन में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। पर 1977 के बाद से बंगाल में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी लम्बे समय तक चुनावों के जरिए लगातार सत्ता में बनी रही। 
 
वहीं 1969 में केरल में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग ने अपना समर्थन वापस ले लिया और इसके बाद वहां कांग्रेस के सहयोग से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अच्युत मेनन के नेतृत्व में राज्य सरकार का गठन किया गया। पर 1964 के विभाजन के बाद मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक धड़े ने उत्तरी पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी में किसान विद्रोह का नेतृत्व कर अपने को पार्टी से अलग कर लिया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादियों) ने इस आंदोलन का समर्थन किया, पर पश्चिम बंगाल सरकार ने जिसमें माकपा प्रमुख साझेदार थी, इस आंदोलन को कुचल दिया।
 
विभाजन के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ इस आधार पर तालमेल स्थापित किया कि कांग्रेस मूलत: राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की पार्टी है और क्योंकि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग इजारेदाराना पूंजीपति वर्ग से कम घातक है, इसलिए उसके साथ तालमेल स्थापित करना भारतीय स्थितियों में उचित होगा।
 
मार्क्सवादियों पर चीन का असर : दूसरी ओर मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी आरंभ में चीनी मार्क्‍सवाद से प्रेरित रही, पर धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के व्यावहारिक धरातल पर उतर आई। इंदिरा गांधी के शासन द्वारा थोपे गए राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान वह अन्य सभी कांग्रेस विरोधी शक्तियों के साथ शामिल हो गई जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस का पल्ला थामे रही। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल थोपे जाने का समर्थन इस आधार पर किया कि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में घोर दक्षिणपंथी शक्तियां देश को विभाजित करने पर आमादा थीं। इसमें संदेह नहीं कि ‘संपूर्ण क्रांति’ की आड़ में पुरानी कांग्रेस के सदस्य, लोकदल, जनसंघ और अन्य दक्षिणपंथी राजनीतिक तत्व अपना हित साधने के लिए एकजुट हुए थे, पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि कांग्रेस के भीतर भी संजय गांधी की अगुवाई में दक्षिणपंथी तत्व प्रभुत्व में आ चुके थे और कांग्रेस सर्वसत्तावादी चरित्र धारण कर चुकी थी।
 
आपातकाल के बाद हुए चुनावों में सफाया : आपातकाल के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भी करारी हार का सामना करना पड़ा। उसके लोकसभा सदस्यों की संख्या 1971 के चुनावों में 23 से घटकर 1977 के चुनावों में मात्र सात रह गई। कुछ इस वजह से और कुछ राजनीतिक रूप से अलग-थलग हो जाने के भय से उसने कांग्रेस के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया कि आपातकाल का समर्थन उसकी एक ऐतिहासिक भूल थी। पर पार्टी ने कांग्रेस को कभी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि मानने और उसके साथ वामपंथी जनतांत्रिक एकता स्थापित करने के अपने पिछले दृष्टिकोण को क्यों त्यागा इसका विचारधारात्मक स्तर पर स्पष्टीकरण अभी भी सामने नहीं आया है। 1978 के बाद से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में आत्ममंथन की जो नई प्रक्रिया चली उसके फलस्वरूप वामपंथी एकता की स्थापना हुई।
 
भारतीय वामपंथ के एकजुट होने के साथ ही साथ भारतीय राजनीति में भी बदलाव आने लगे। कांग्रेस का पूर्ण प्रभुत्व समाप्त होने लगा और बिहार, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश और अन्यत्र क्षेत्रीय राजनीतिक दल महत्त्व धारण करने लगे और दक्षिणपंथी भाजपा पूरी तरह से राष्ट्रीय मुख्य धारा का अंग बन गई। वामपंथी एकता स्थापित होने से वामपंथी केवल संसद में एक अधिक बड़ी शक्ति बन गए और मुख्य धारा की राजनीति में हस्तक्षेप करने में और अधिक सक्षम बन गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इंद्रजीत गुप्ता केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले पहले कम्युनिस्ट रहे। एक बार तो ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश भी की गई (जो खुद उनकी पार्टी के कुछ नेताओं ने अस्वीकार कर दिया)। जब हरकिशनसिंह सुरजीत मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे तब वामपंथ ने ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाने का प्रयास भी किया।
 
वामपंथी दल तीसरे विकल्प की बात करते हैं। इस दिशा में वे कई प्रयास कर चुके हैं। पर इस तीसरे विकल्प में वे जिन दलों को शामिल करने का प्रयास करते रहे हैं, उनके साथ तालमेल बनाने का औचित्व वर्ग विश्लेषण के आधार पर वे कभी भी स्पष्ट नहीं कर पाए। मसलन जातीय राजनीति करने वाली मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी का वर्ग विश्लेषण उन्होंने कभी भी नहीं किया। उनके लिए इस दल की प्रासंगिकता केवल इसलिए है कि वह पहले कांग्रेस और फिर भाजपा के विरोध में रही थी। मार्क्‍सवादी विचारधारा को जीवित रखने के लिए यह जरूरी है कि भारतीय वामपंथ एक ऐसा वर्ग दृष्टिकोण अपनाए जो न केवल भारतीय संदर्भ में प्रासंगिक हो, बल्कि उनके वर्गीय आधार का विस्तार भी करे।