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Written By Author शरद सिंगी
Last Modified: रविवार, 10 नवंबर 2019 (16:17 IST)

RCEP समझौते से भारत के अलग रहने का औचित्य

RCEP समझौते से भारत के अलग रहने का औचित्य - RCEP and India
पिछले सप्ताह एक महत्वपूर्ण घटना हुई जब भारत ने RCEP (रीजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) समझौते में शामिल होने से इंकार कर दिया। यह एक चीन समर्थित एशियाई व्यापार समझौते का प्रारूप है। इस आर्थिक अनुबंध के तहत एशिया के सोलह देशों के बीच कर रहित मुक्त व्यापार की व्यवस्था है। अन्य पंद्रह देश चीन का विरोध नहीं कर पाए और सिद्धांततः उन्होंने उक्त समझौता मंजूर कर लिया। इस अनुबंध की कई शर्तों से भारत सहमत नहीं था क्योंकि भारत का मानना था कि ये शर्तें भारत के कृषकों और मज़दूरों के हितों के विरुद्ध है।
 
उदाहरण के लिए यदि सोयाबीन तेल किसी अन्य देश से आधे दाम पर आयात होने लग जाये तो हमारे देश में सोयाबीन की खपत बंद हो जाएगी और हमारे देश के कृषकों की आमदनी दुष्प्रभावित होगी। किसी भी अर्थव्यस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए उस देश की सरकार को कृषकों और मज़दूरों को आमदनी की सुरक्षा देना अतिआवश्यक है। 
 
चीन की महत्वाकांक्षा एशियाई देशों का नेतृत्व करने की है, इसलिए वह इस अनुबंध पर सहमति बनाने का भरसक प्रयास कर रहा था | कारण, अमेरिका के साथ चल रहे व्यापार युद्ध के कारण चीन अपने सस्ते माल को खपाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय अनुबंधों के माध्यम से विभिन्न देशों के साथ ऐसे समझौतों की फ़िराक में है जिससे उसका माल आसानी से बिक सके। चीन ने भारत पर भी दबाव बनाने की कोशिश की क्योंकि भारत का बाजार उसका सबसे बड़ा लक्ष्य है। अब दूसरा प्रश्न है कि सोलह देशों के इस संगठन से भारत का अलग हो जाना क्या भारत के कूटनीतिक हित में है?
 
इसी दृष्टिकोण का दूसरा पहलू है कि विदेशी प्रतिस्पर्धा के डर से सरकार अपने देश के उद्योगों को निकम्मा भी नहीं कर सकती। आज की दुनिया में उत्पाद की गुणवत्ता के साथ उत्पादन की दक्षता  भी जरूरी है तभी भारत में उत्पादित चीजें विश्व बाजार में बिक सकती हैं।  वैश्विक व्यवस्था में यह जरूरी है कि यदि आप अपने उत्पाद दूसरे देश में बेचना चाहते हैं तो दूसरे देशों के उत्पादों के लिए अपना बाज़ार भी खोलना पड़ेगा। प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। यदि प्रतिस्पर्धा से डर गए तो दक्ष नहीं हो सकते। और यदि दक्ष नहीं हैं तो विश्व के नेतृत्व का सपना छोड़ना पड़ेगा।
 
ऐसा नहीं है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक समझौतों का विरोध करने वाला पहला देश है। दो वर्षों पूर्व अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प भी एक अंतर्राष्ट्रीय "मुक्त व्यापार समझौते" से बाहर आ चुके हैं। समझौते वही कामयाब होते हैं जब वे किसी एक पक्ष का ही हित नहीं कर रहे हों। व्यापार संतुलन बराबर हो तब तो आर्थिक समझौतों से उसमें शामिल सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूती मिलती है। किन्तु चीन केवल माल बेचना चाहता है, खरीदना नहीं। अपने सस्ते माल से उसने विश्व के कई देशों के उद्योगों पर ताले लगवा दिए हैं। विशेषकर जर्मनी के उद्योग तो समाप्तप्राय हो चुके हैं। भारत नहीं चाहता कि चीन से आयात होने  वाला माल करमुक्त हो। यदि ऐसा हुआ तो भारतीय उद्योग भी धराशायी हो जायेगें।
 
दूसरी तरफ चूँकि भारत का चीन के साथ सीमा और आतंकवाद जैसे कई अन्य मुद्दों पर भी विवाद है और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चीन, भारत का विरोध  करता है अतः भारत भी चीन को किसी तरह की रियायत देने के मूड में नहीं है। यद्यपि भारत की अर्थव्यवस्था अभी इतनी मज़बूत नहीं कि वह चीन जैसे देश को आँखे दिखा सके किन्तु इतनी कमज़ोर भी नहीं कि बड़ी आर्थिक अर्थव्यवस्थाओं वाले देश भारत की बाहें मरोड़ सकें। अलबत्ता भारत जरूर अब कुछ प्रतिकूल देशों पर अपना दबाव बना सकता है।
 
उदाहरण के लिए, चीन के अतिरिक्त तुर्की और मलेशिया ने कश्मीर को लेकर भारत की आलोचना की थी तो तुरंत भारत ने तुर्की से होने वाले अपने रक्षा समझौतों को ठंडे बस्ते में डाल दिया और मलेशिया से आयात होने वाले ताड़ के तेल पर नियंत्रण करने की बात चर्चा में आ गयी थी। तुर्की को विदशी मुद्रा का नुकसान हुआ और यदि मलेशिया के ताड़ के तेल पर भारत कोई नियंत्रण की सोचता है तो मलेशिया की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ेगा।
 
कुल मिलाकर कहा जाये तो भारत का आरसेप समझौते से बाहर आना एक सामयिक निर्णय था। किन्तु हम लम्बे समय तक विश्व बाजार से अलग भी नहीं रह सकते। हमारी कृषि और उद्योग जितनी तीव्रता से दक्षता हासिल करेंगे उतनी ही तेजी से हम विश्व बाजार में अपनी पहचान बना सकेंगे। भारत के पास समय कम है। आयात कर लगाकर घरेलू उत्पादों की रक्षा करना आधुनिक युग में लम्बे समय तक संभव नहीं है।
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