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Written By WD

सिंहस्थ और दान : तुला दान का महत्व

सिंहस्थ और दान : तुला दान का महत्व - Simhastha And Tula Daan
इसे आम बोलचाल की भाषा में तुलादान भी कहा जाता है। इसे महादान माना जाता है। हवन के बाद ब्राह्मण पौराणिक मंत्रों का उच्चारण करते हैं, वे लोकपालों का आवास करते हैं, दान करने वाला सोने का आभूषण-कंगन, अंगूठी, सोने की सिकड़ी वगैरह ब्राह्मण को दान देता है। जितना दान सामान्य पुरोहितों को दिया जाता है, उसका दूना यज्ञ कराने वाले को दिया जाता है, फिर दान देने वाला दोबारा दाना करता है, सफेद कपड़े पहनता है। वह सफेद माला पहनकर हाथ में फूल लेकर तुला का आवास करता है।
 
तुला (तराजू) के रूप में वह विष्णु का स्मरण करता है, फिर वह तुला की परिक्रमा करके एक पलड़े पर चढ़ जाता है, दूसरे पलड़े पर ब्राह्मण लोग सोना रख देते हैं। तराजू के दोनों पलड़े जब बराबर हो जाते हैं, तब पृथ्वी का आह्वान किया जाता है। दान देने वाला तराजू के पलड़े से उतर जाता है, फिर सोने का आधा भाग गुरु को और दूसरा भाग ब्राह्मण को उनके हाथ में जल गिराते हुए देता है। यह दान अब दुर्लभ है, सिर्फ धर्मशास्त्र में इसका वर्णन पढ़ने को मिलता है। 
 
राजाओं के साथ मंत्री भी यह दान करते थे। इसके साथ ग्राम दान भी किया जाता था। इस दान से दान देने वाले को विष्णु लोक में स्थान मिलने की बात कहीं गई है। आजकल तुला-पुरुष दान में सोना इस्तेमाल नहीं किया जाता। दानकर्ता के वजन के बराबर अनाज या दूसरी चीजें दान की जाती हैं। प्रतिकूल ग्रहदशाओं में या सभी प्रकार की खुशहाली के लिए यह दान किया जाता है। उज्जैन में तुलादान करने का पुण्य फल बहुत मिलता है। 
 
पौराणिक आख्यान के अनुसान प्रयाग की पवित्र धरती पर प्रजापति ब्रह्मा ने सभी तीर्थों को तौला था। शेष भगवान के कहने से तीर्थों को तौलने का इन्तजाम किया गया था, इसका उद्देश्य तीर्थों की पुण्य गरिमा का पता लगाना था। ब्रह्मा ने तराजू के एक पलड़े पर सभी तीर्थ, सातों सागर और सारी धरती रख दी। दूसरे पलड़े पर उन्होंने तीर्थराज प्रयाग को रख दिया। अन्य तीर्थों का पलड़ा हल्का होकर आकाश में ध्रुव मण्डल को छूने लगा, लेकिन तीर्थराज प्रयाग का पलड़ा धरती को छूता रहा।
 
ब्रह्मा की इस परीक्षा से हमेशा के लिए तय हो गया कि प्रयाग ही तीर्थराज हैं। इनकी पुण्य गरिमा का मुकाबला सातों पुरियां और सभी तीर्थ नहीं कर सकते। इसीलिए अनेक श्रद्धालु तीर्थराज प्रयाग में आकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार तुलादान करते हैं। इससे उनके जन्म जन्मांतर में अर्जित पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके परिवार में सुख-समृद्धि आती है। किन्तु उज्जैन का महत्व इससे कदापि कम नहीं होता। उज्जैन को महाकाल और देवों की पावन भूमि कहा गया है। कहा जाता है यहां आयोजित महाकुंभ में स्वयं देवता शामिल होते हैं।