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Last Modified: गुरुवार, 4 मई 2017 (15:30 IST)

यदि ये स्वर चले तो मिलेगी ये बुरी सूचना

यदि ये स्वर चले तो मिलेगी ये बुरी सूचना | swar vigyan yoga
पहले हम कह चुके हैं कि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से 3-3 दिन के अंतर से सूर्योदय के समय पहले बाईं नासिका से और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से 3-3 दिन के अंतर से सूर्योदय के समय पहले दाहिनी नासिका से नि:श्वास प्रवाहित होने का स्वाभाविक नियम है, परंतु- 
 
प्रतिपत्तो दिनान्याहुर्विपरीते विपर्यय:।
 
प्रतिपदा आदि तिथियों को यदि निश्चित नियम के विरुद्ध श्वास चले तो समझना चाहिए कि निस्संदेह कुछ अमंगल होगा, जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को सवेरे नींद टूटने पर सूर्योदय के समय यदि दाहिनी नाक से श्वास चलना आरंभ हो तो उस दिन से पूर्णिमा तक के बीच गर्मी के कारण कोई पीड़ा होगी और कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्योदय के समय पहले बाईं नाक से श्वास चलना आरंभ हो तो उस दिन से अमावस्या तक के अंदर कफ या सर्दी के कारण कोई पीड़ा होगी, इसमें संदेह नहीं। 
 
 
दो पखवाड़ों तक इसी प्रकार विपरीत ढंग से सूर्योदय के समय नि:श्वास चलता रहे, तो किसी आत्मीय स्वजन को भारी बीमारी होगी अथवा मृत्यु होगी या और किसी प्रकार की विपत्ति आएगी। तीन पखवाड़ों से ऊपर लगातार गड़बड़ होने पर निश्चय ही अपनी मृत्यु हो जाएगी। 
 
शुक्ल अथवा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन प्रात:काल यदि इस प्रकार विपरीत ढंग से सूर्योदय के समय नि:श्वास चलने का पता लग जाए तो उस नासिका को कई दिनों तक बंद रखने से रोग उत्पन्न होने की संभावना नहीं रहती। उस नासिका को इस तरह बंद रखना चाहिए जिसमें उससे नि:श्वास न चले। इस प्रकार कुछ दिनों तक दिन-रात निरंतर (स्नान और भोजन का समय छोड़कर) नाक बंद रखने से उक्त तिथियों के भीतर बिलकुल ही कोई रोग नहीं होगा। 
 
यदि असावधानी के कारण नि:श्वास में गड़बड़ी से कोई रोग उत्पन्न हो जाए तो जब तक रोग दूर न हो जाए, तब तक ऐसा करना चाहिए कि जिससे शुक्ल-पक्ष में दाहिनी और कृष्ण पक्ष में बाईं नासिका से श्वास न चले। ऐसा करने से रोग शीघ्र दूर हो जाएगा और यदि कोई भारी रोग होने की संभावना होगी तो वह भारी न होकर बहुत सामान्य रूप में होगा और फिर थोड़े ही दिनों में दूर हो जाएगा। ऐसा करने से न तो रोगजनित कष्ट भोगना पड़ेगा और न चिकित्सक को धन ही देना पड़ेगा। 
 
नासिका बंद करने का नियम
नाक के छेद में घुस सके, जरा-सी पुरानी साफ रुई लेकर उसकी गोल पोटली-सी बना लें और उसे साफ बारीक कपड़े से लपेटकर सी लें। फिर इस पोटली को नाक के छिद्र में घुसाकर छिद्र को इस प्रकार बंद कर दे जिसमें उस नाक से श्वास-प्रश्वास का कार्य बिलकुल न हो। जिन लोगों को कोई शिरोरोग है अथवा जिनका मस्तक दुर्बल हो, उन्हें रुई से नाक बंद न कर, सिर्फ साफ पतले कपड़े की पोटली बनाकर उसी से नाक बंद करनी चाहिए। 
 
किसी भी कारण से हो, जितने क्षण या जितने दिन नासिका बंद रखने की आवश्यकता हो, उतने क्षण या उतने दिनों तक अधिक परिश्रम का कार्य, धूम्रपान, जोर से चिल्लाना, दौड़ना इत्यादि नहीं करना चाहिए। जो लोग तम्बाकू के बिना बिलकुल नहीं रह सकते हों, उन्हें तम्बाकू पीते समय नाक से पोटली निकाल लेनी चाहिए और तम्बाकू पी लेने पर नाक के छेद को वस्त्र आदि से अच्छी तरह से पोंछकर उसे पूर्ववत् पोटली से बंद कर देना चाहिए। जब जिस किसी कारण से नाक बंद रखने की आवश्यकता हो, तभी इन नियमों का जरूर पालन करना चाहिए। नई अथवा बिना साफ की हुई मैली रुई कभी नाक में नहीं डालनी चाहिए। 
 
नि:श्वास बदलने का तरीका
कार्यभेद तथा अन्यान्य अनेक कारणों से एक नासिका से दूसरी नासिका में वायु की गति बदलने की भी आवश्यकता हुआ करती है। कार्य के अनुकूल नासिका से श्वास चलना आरंभ होने तक उस कार्य को न करके चुपचाप बैठे रहना किसी के लिए भी संभव नहीं। अतएव अपनी इच्छानुसार श्वास की गति बदलने की क्रिया सीख लेना नितांत आवश्यक है। इसकी क्रिया अत्यंत सहज है, सामान्य चेष्टा से ही श्वास की गति बदली जा सकती है। 
 
जिस नासिका से श्वास चलता हो, उसके विपरीत दूसरी नासिका को अंगूठे से दबा देना चाहिए और जिससे श्वास चलता हो, उसके द्वारा वायु खींचना चाहिए। फिर उसको दबाकर दूसरी नासिका से वायु को निकालना चाहिए। कुछ देर तक इसी तरह एक से श्वास लेकर दूसरी से निकालते रहने से अवश्य श्वास की गति बदल जाएगी। जिस नासिका से श्वास चलता हो, उसी करवट सोकर यह क्रिया करने से बहुत जल्द श्वास की गति बदल जाती है और दूसरी नासिका से श्वास प्रवाहित होने लगता है। इस क्रिया के बिना भी जिस नाक से श्वास चलता है, केवल उस करवट कुछ समय तक सोए रहने से भी श्वास की गति पलट जाती है। 
 
इस लेख में जहां-जहां नि:श्वास बदलने की बात लिखी जाएगी, वहां-वहां पाठकों को इसी कौशल से श्वास की गति बदलने की बात समझनी चाहिए। जो अपनी इच्छानुसार वायु को रोक और निकाल सकता है, वही पवन पर विजय प्राप्त करता है।
 
(लेखक- परिव्राजकाचार्य परमहंस श्रीमत्स्वामी निगमानन्दजी सरस्वती)
- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक से साभार    
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