शब्दों की गति
आकांक्षा यादव (पोर्टब्लेयर)
कागज पर लिखे शब्द कितने स्थिर से दिखते हैं आड़ी-तिरछी लाइनों के बीच सकुचाए-शर्माए से बैठे। पर शब्द की नियति स्थिरता में नहीं है उसकी गति में है और जीवंतता में है। जीवंत होते शब्द रचते हैं इक इतिहास उनका भी और हमारा भी आज का भी और कल का भी।सभ्यता व संस्कृति की परछाइयों को अपने में समेटते शब्द सहते हैं क्रूर नियति को भी खाक कर दिया जाता है उन्हें यही प्रकृति की नियति। कभी खत्म नहीं होते शब्द खत्म होते हैं दस्तावेज और उनकी सूखती स्याहियाँ पर शब्द अभी-भी जीवंत खड़े हैं।