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Written By WD

आदि कवि सूरदास

Poet Surdas | आदि कवि सूरदास
जन्म- सन्‌ 1478 ई.
मृत्यु- सन्‌ 1573 ई. के लगभग
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हिन्दी के अनन्यतम और ब्रजभाषा के आदि कवि सूरदास का जन्म जनश्रुति के आधार पर दिल्ली के समीपस्थ सीही नामक ग्राम में माना जाता है। परंतु कुछ विद्वान मथुरा और आगरा के बीच स्थित रूनकता नामक ग्राम को इसका श्रेय देने के पक्ष में हैं। वल्लभ सम्प्रदाय में, जिससे सूरदास सम्बद्ध रहे हैं, यह माना जाता है कि वे अपने गुरु श्री वल्लभाचार्य से केवल दस दिन छोटे थे।

इस मान्यता से उनका जन्म संवत्‌ 1565 (सन्‌ 1478 ई.) स्थिर किया जाता है। गऊघाट में गुरुदीक्षा प्राप्त करने के पश्चात सूरदास ने 'भागवत' के आधार पर कृष्ण की लीलाओं का गायन करना प्रारंभ कर दिया। इससे पूर्व वे केवल दैन्य भाव से विनय के पद रचा करते थे। उनके पदों की संख्या 'सहस्राधिक' कही जाती है जिनका संग्रहीत रूप 'सूरसागर' के नाम से विख्यात है।

कहा जाता है कि वे जन्मांधथे किन्तु उनकी कविता में प्रकृति तथा दृश्य जगत की अन्य वस्तुओं का इतना सूक्ष्म और अनुभवपूर्ण चित्रण मिलता है कि उनके जन्मांध होने पर विश्वास नहीं होता। इसी तरह उन्हें सारस्वत ब्राह्मण बताया जाता है। पर उनकी रचनाओं में जो जातिगत उल्लेख मिलते हैं, वे संदेह उत्पन्न करते हैं।

सूरदास की तथाकथित रचना 'साहित्य लहरी' के एक पद में उन्हें चंदबरदायी का वंशज माना गया है और उनका वास्तविक नाम सूरजचंद बताया गया है। इस पद की प्रामाणिकताभी संदिग्ध है। वल्लभाचार्यजी के पुत्र श्री विट्ठलनाथजी ने सूरदास को आठ कवियों के समुच्चय 'अष्टछाप' में स्थान दिया था और वे उसके सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध हुए।

पुष्टिमार्ग की उपासना और सेवा-प्रणाली का अनुसरण करते हुए सूरदास ने जीवनपर्यन्त पद-रचना की। नरसी, मीरां, विद्यापति, चंडीदास आदि भारतीय साहित्य के अनेक कवियों ने पद-रचना की परंतु गीतिकाव्य में सूरदास का स्थान सर्वोच्च कहा जा सकता है। उनकी कविता अत्यंत लोकप्रिय हुई और उसे साहित्यिक सम्मान भी अद्वितीय रूप में मिला। 'सूर सूर तुलसी ससी' वाली लोक उक्ति इसका ज्वलंत प्रमाण है।

सूर की काव्य प्रतिभा ने तत्कालीन शासक अकबर को भी आकृष्ट किया था और उसने उनसे आग्रहपूर्वक भेंट की थी जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है। इसी प्रकार तुलसीदास से भी सूरदास की भेंट का वर्णन प्राप्त होता है जो सर्वथा संभव है। सूर का निधन काल निश्चित रूप से तो ज्ञात नहीं परन्तु अनुमानतः सौ वर्ष से अधिक की उम्र पाकर वे सं. 1630-35 वि. (सन्‌ 1573-78) ई. के लगभग पारसोली ग्राम में दिवंगत हुए थे।

हृदय को स्पर्श कर सकने की प्रबल शक्ति सूर के पदों में मिलती है और यही उनकी कविता की सबसे बड़ी विशेषता है।

स्नेह, वात्सल्य, ममता और प्रेम के जितने भी रूप मानवीय जीवन में मिलते हैं, लगभग सभी का समावेश किसी न किसी रूप में सूरसागर में प्राप्त हो जाता है। सागर की तरह विस्तार और गहराई दोनों ही विशेषताएं सूर के काव्य में मिलती हैं। अतः उनकी रचना के साथ यह नाम उचित रूप से ही संबद्ध हुआ है। भावों की सूक्ष्म विविधता और अनेकरूपता तक उनकी सहज गति थी, यह सूरसागर के कृष्ण की लीलाओं के चित्रण को देखने से स्पष्ट हो जाता है। वात्सल्य और श्रृंगार के वे अद्वितीय कवि कहे जा सकते हैं।

'भ्रमरगीत' में गोपियों का विरह-वर्णन भी उन्होंने जिस तन्मयता के साथ किया है, वह दर्शनीय है। 'भागवत' से सूरसागर की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि सूरदास ने 'भागवत' का अनुवाद न करके मौलिक रूप से कृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया है और अनेक स्थानों पर ऐसी मौलिक उद्भावना भी प्रस्तुत की है जिसका आभास तक 'भागवत' में नहीं मिलता। 'निर्गुण' पर 'सगुण' की श्रेष्ठता ऐसी ही मौलिक उद्भावना है। कृष्ण के बाल-वर्णन और राधा-कृष्ण-प्रेम-निरूपण में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं।

सूर की भाषा अत्यन्त परिष्कृत, समर्थ एवं भावानुकूल है। शैलीगत और छंदगत विविधता भी उनकी रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में मिलती है। अलंकार चमत्कार का भी इतना समावेश है कि रीतिकवियों की रचनाएं जूठी-सी जान पड़ती है। यह सूर की अपनी विशेषता है कि उन्होंने काव्य कौशल को भाव तत्व से ऊपर नहीं आने दिया।

लगता है जैसे सारा काव्य-वैभव उनको अनायास ही उपलब्ध हो गया हो। कहीं-कहीं ऐसी पुनरावृत्ति भी मिलती है जिससे ऐसा लगता है कि कवि ने विशेष मनोयोग से रचना नहीं की, पर श्रेष्ठ स्थल इतने अधिक हैं कि यह दोष नगण्य हो जाता है। सूर ने मनोविनोद और कौशल के भाव से कुछ कूट पदों की भी रचना की है जिनका अर्थ समझना दुरूह है।

सूरदास रचित पांच ग्रंथ माने जाते हैं। इनमें 'सूरसागर' ही सर्वप्रधान और श्रेष्ठ है। 'साहित्य-लहरी' में दृष्टिकूट पद हैं और संभवतः ये नंददास को साहित्य का शास्त्रीय ज्ञान कराने के निमित्त रचे गए थे। 'सूर सारावली' एक प्रकार से सूरसागर का सार अथवा विषय-सूची है। 'नल-दमयंती' और 'ब्याहलो' अप्राप्य हैं। सूरसागर आदर्श गीत-काव्य है और 'भागवत' के आधार पर लिखा गया है। वह 'भागवत' की भांति बारह स्कंधों में विभाजित है, किन्तु 'भागवत' की भांति न वह प्रबंध काव्य है, न उसका अनुवाद।

जहां तक भागवत में 335 अध्यायों में केवल 90 अध्याय कृष्णावतार विषयक हैं, वहां सूरसागर में 4132 पदों में से 3642 पदों में कृष्ण-लीला का गान है। अवशिष्ट रचना के अन्य अवतारों की कथा और प्रथम स्कन्ध में 219 विनय के पद हैं। 'भागवत' में कृष्ण की ब्रज-लीला के 49 अध्याय और द्वारिका-लीला के 41 अध्याय हैं। पर सूरसागर में गोकुल और मथुरा की लीला के 3494 पद हैं और उत्तरकालीन लीला से संबंधित 138 पद।

सूरदास ने ब्रजमंडल के लोकगीतों, संगीतज्ञों के शास्त्रीय पदों की और विद्यापति आदि के साहित्यिक गीतों की परंपराओं का ऐसा समन्वित विकास प्रस्तुत किया कि उसका प्रौढ़ रूप तथा सौंदर्य दर्शनीय हो उठा। सूरसागर राग-रागिनियों का अक्षय भंडार है, कृष्ण लीला का सुंदर कीर्तन है और सूरदास की पुष्टिमार्गीय भक्ति का आत्मोद्गार भी। यह ब्रज भाषा की प्रथम साहित्यिक कृति है। ब्रज भाषा में इतनी बड़ी रचना पहले नहीं लिखी गई।

अतएव इसकी लालित्यपूर्ण सजीव पद-योजना तथा भाषा की प्रांजलता और प्रौढ़ता विस्मयकारिणी है। 'सूरसागर' में भाषा का वह साहित्यिक रूप ढला, जो शताब्दियों तक हिन्दी भाषा में व्यवहृत हुआ और अशेष सौंदर्य की प्रदर्शनी सजा गया। गीति-काव्य का माधुर्य उससे और अधिक निखर गया। सूरदास बड़े भावुक भक्त थे। उनकी आत्मानुभूति की ही यह विशेषता है कि इतिवृत्तात्मक पद्धति को अपनाने पर भी उच्चकोटि की गीतिमत्तासे उनका काव्य वियुक्त नहीं हुआ। 'सूरसागर'उनकी साहित्यिक निपुणता तथा प्रकृति के सौंदर्य और मानव हृदय की गहराइयों के पर्यवेक्षण का प्रतिफल है।