शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. मनोरंजन
  2. बॉलीवुड
  3. फिल्म समीक्षा
  4. Begum Jaan, Vidya Balan, Srijit Mukherjee, Samay Tamrakar

बेगम जान: फिल्म समीक्षा

बेगम जान: फिल्म समीक्षा - Begum Jaan, Vidya Balan, Srijit Mukherjee, Samay Tamrakar
श्रीजीत मुखर्जी ने अपनी बंगाली फिल्म 'राजकहिनी' को हिंदी में 'बेगम जान' नाम से बनाया है। कहानी उस दौर की है जब भारत आजाद हुआ था और विभाजन की रेखा खींची जा रही थी। यह रेखा बेगम जान (विद्या बालन) के कोठे के बीच से जाती है, यानी आधा कोठा भारत में और आधा पाकिस्तान में। बेगम जान कोठा छोड़ना नहीं चाहती। दो पार्टियों के नेता हरिप्रसाद (आशीष विद्यार्थी) और इलियास (रजित कपूर) बेगम जान पर पुलिस के जरिये दबाव बनाते हैं, लेकिन वह नहीं मानती। आखिरकार कोठा खाली करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। 
 
बेगम जान देखते समय आपको श्याम बेनेगल की 'मंडी' और केतन मेहता की 'मिर्च मसाला' जैसी फिल्में याद आती हैं। सेक्स वर्कर्स की दशा को 'मंडी' में बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। 'मिर्च मसाला' में मजदूर महिलाएं ताकवतर से लड़ाई लड़ने का फैसला करती हैं। ये दोनों फिल्में मास्टरपीस हैं और 'बेगम जान' इनके पास भी नहीं पहुंच पाती क्योंकि कहानी, स्क्रिप्ट और निर्देशन की कमियां समय-समय पर उभरती रहती हैं। श्रीजीत मुखर्जी ने ही इन सारे विभागों की जिम्मेदारी संभाली है। 
 
कहानी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि बेगम जान आखिर क्यों अपना कोठा खाली नहीं करना चाहती? माना कि बेगम जान और उसके लिए काम करने वाली स्त्रियों को डर रहता है कि समाज उन्हें अपनाएगा नहीं और उनका कोई दूसरा ठिकाना भी नहीं है, लेकिन विभाजन के लिए कई लोगों को अपने मकान और जमीन का बलिदान करना पड़ा। 
 
सरकारी अधिकारी और पुलिस बेगम जान से उसका कोठा आसानी से खाली करवा सकते थे, इस काम के लिए एक गुंडे की मदद लेना और हिंसा का रास्ता अपनाने वाली बात हजम नहीं होती। केवल बेगम जान को 'हीरो' की तरह पेश करने के लिए यह सब तामझाम किया गया है। 
 
फिल्म की स्क्रिप्ट मेलोड्रामा से भरी हुई है। ड्रामा अति का शिकार और लाउड है। ऐसा लगा कि सिर्फ ऐसे सीन और संवाद लिखे गए है जो दर्शकों पर असर छोड़े, लेकिन इन्हें कहानी में ठीक से पिरोया नहीं गया है, इस कारण से ये सीन बचकाने लगते हैं। बिना किसी आधार के हर किरदार बड़ी-बड़ी बातें बोलता है और व्यवहार करता है। साथ ही बहुत सारी बातें इस फिल्म में समेटने की कोशिश की गई है जो गैर जरूरी भी लगती है। हरिप्रसाद और इलियास की बातें बहुत ज्यादा है, जिन्हें कम किया जा सकता था।  
 
निर्देशक के रूप में श्रीजीत मुखर्जी फैसला नही कर पाए कि वे अपना प्रस्तुति करण वास्तविकता के निकट रखे या कमर्शियल फिल्म बनाए और यह दुविधा पूरी फिल्म में नजर आती हैं। वे अपनी ही लिखी कहानी को ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाए। कहानी को उन्होंने रजिया सुल्तान, मीरा, झांसी की रानी के कारनामों से जोड़ने की फिजूल कोशिश की है।
 
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी भी कई बार अजीब लगती है, खासतौर पर हरिप्रसाद और इलियास के चेहरे कई बार आधे दिखाए गए हैं। यह जताने की कोशिश की गई है कि बंटवारे के कारण चेहरे भी आधा हो गया है, लेकिन बार-बार इस तरह के आधे चेहरे स्क्रीन पर देखना दर्शक के लिए अच्छा अनुभव नहीं कहा जा सकता। 
 
फिल्म का संपादन भी ढंग का नहीं है और देखते समय दर्शक लगातार झटके महसूस करता है। एक सीक्वेंस के बीच दूसरे सीक्वेंस को डालने की कोशिश फिल्म देखने का मजा खराब करती है। 
 
विद्या बालन अपने अभिनय से फिल्म का स्तर उठाने की कोशिश पुरजोर तरीके से करती है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और निर्देशन उनका कब तक साथ देता। उनके सारे प्रयास बेकार साबित होते हैं। उनके किरदार का ठीक से विस्तार भी नहीं किया गया है। 
 
फिल्म में कई प्रतिभाशाली कलाकार हैं, लेकिन उनका ठीक से उपयोग ही निर्देशक नहीं कर पाए। नसीरुद्दीन शाह का रोल छोटा और महत्वहीन है। पल्लवी शारदा को कुछ सीन मिले हैं। विवेक मुश्रान निराश करते हैं। आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर और राजेश शर्मा के रोल ठीक से नहीं लिखे गए हैं। कबीर नामक विलेन के रूप में चंकी पांडे अपना असर छोड़ते हैं। फिल्म के गाने अच्छे हैं। 
 
कमजोर स्क्रिप्ट और निर्देशन 'बेगम जान' में जान नहीं डाल पाए। 
 
बैनर : विशेष फिल्म्स, प्ले एंटरटेनमेंट 
निर्माता : मुकेश भट्ट, विशेष भट्ट 
निर्देशक : श्रीजीत मुखर्जी
संगीत : अनु मलिक  
कलाकार : विद्या बालन, नसीरुद्दीन शाह, गौहर खान, पल्लवी शारदा, इला अरुण, आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर, विवेक मुश्रान
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 14 मिनट 
रेटिंग : 2/5