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Last Modified: शुक्रवार, 9 जून 2017 (16:20 IST)

भोग में योग

भोग में योग | yoga and bhoga day
योग विषय अनंत तथा असीम है। सभी आचार्यों ने इसकी पृथक-पृथक परिभाषाएं की हैं। योग जैसे गहन और दुरूह विषय में पूर्वाचार्यों के अनेक मत होना स्वाभाविक है। जो विषय गूढ़ और जटिल होता है, उसका अनेक प्रकार से समीक्षण किया जाना भी एक प्रकार से उसके महत्व का सूचक है। 'योग' शब्द प्रसंगाधीन अनेक अर्थों में पाया जाता है। अत: उसका सांकेतिक अर्थ करना उचित नहीं है। कोई योग का अर्थ समाधि करता है तो किसी के मत में अष्टांग योग द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध करना ही योग है।
 
कुछ लोग योग का अर्थ सहकार करते हैं तो किसी के मत में 'योग' नाम दो भावों के संयोग या मिलाप का है। गवेषणापूर्वक निरीक्षण करने से पता चलता है कि योग का अर्थ 'त्याग' करना ही उचित है। वह चाहे किसी अभिप्रेत-अभीष्ट के मिलाप के लिए हो या स्वतंत्र हो किंतु योग का अर्थ 'त्याग' करना युक्ति एवं हेतुपूर्ण है। लोक में भी योग का अर्थ त्याग ही देखा जाता है, जैसे अमुक मनुष्य योगी हो गया, अमुक ने मानो संसार से योग ही ले लिया हो; ऐसा लोग कहते हैं।

संन्यास योग, सांख्य योग, निष्काम कर्मयोग आदि शब्दों पर से स्थिर होता है कि योग शब्द त्याग मात्र में पर्यवसित है, क्योंकि एक के त्याग बिना दूसरे का मिलन नहीं होगा। वस्तुत: 'योग है क्या पदार्थ? उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है और उसके लिए क्या करना होगा?' यह एक जटिल और गंभीर प्रश्न है। इस विषय में विद्वानों के अनंत मतभेद पाए जाते हैं- जैसे अष्टांग योग, हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, प्रेमयोग, ध्यान योग, संन्यास योग, सांख्ययोग, समाधि योग, क्रिया योग इत्यादि शतश: नाम लिए जा सकते हैं, परंतु ध्येय सबका एक है। वह है 'ऐहिक पदार्थों के प्रति अनासक्तिपूर्ण ब्रह्म साक्षात्कार किंवा तत्प्राप्ति।' इस पर किसी का वैमत्य नहीं। अत: सिद्ध होता है कि यो‍गाभिप्रेत परीक्षा का परीक्ष्य विषय अनासक्ति और फल ब्रह्मप्राप्ति है। 
 
अनासिक्त को वासना त्याग भी कहते हैं। ऐहिक वासना का सम्यक् लय करना योग का काम है। वासना किंवा आ‍सक्ति त्याग दो प्रकार से किया जा सकता है। किसी प्रेय पदार्थ का स्वरूप से त्याग और कामना और वासना त्याग। इस विश्व की विचित्रता और व्यापकता को देखते हुए यथार्थ त्याग कामना और वासना द्वारा ही हो सकता है। यदि हठ योग द्वारा जंगल में जाकर या अन्य क्रियाओं द्वारा संसार का स्वरूप से त्याग किया भी जाए तो पूर्ण त्याग नहीं बन सकता। किसी न किसी रूप में संसार का अस्तित्व बना ही रहेगा। कदाचित् बाह्य जगत का त्याग किया भी तो आंतरिक जगत का त्याग न होगा। पांचभौतिक शरीर द्वारा ही पंचभूतों का त्याग नहीं हो सकता। शरीर के रहते हुए ही पंचभूतों का त्याग नहीं हो सकता। शरीर के रहते हुए शरीर का स्वरूप त्याग नहीं बन सकता अत: वासना त्याग को ही यथार्थ मानना चाहिए। 
 
वासना त्याग के लिए जंगल में जाने की या अमुक क्रिया करने की जरूरत नहीं, उसके लिए तो ब्रह्मज्ञ गुरुद्वारा आत्म-परमात्म स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर अंत:करणवृत्त्यवच्छिन्न वासना का त्याग करना होगा। संघर्षमय जीवन की चंचलता को नष्ट कर समता के साम्राज्य में विचरना होगा। 'समत्वं योग उच्यते' का पालन करना होगा,'सर्वमनास्था खलु' की धारणा दृढ़ करनी होगी, ऐहिक ऐश्वर्यों को पाकर भी पद्मपलाशवत् निर्लिप्त रहना होगा, जीते हुए मुरदा बनना पड़ेगा, सच्चा जनक विदेह बनना होगा, तभी भोग में योग का आनंद प्राप्त होगा, गृह में जंगल से अधिक मंगलमय जीवन व्यतीत होगा। इसी का नाम योग है। हठयोग द्वारा किसी वृत्ति को समूल नष्ट करना या किसी वृत्तिविशेष की उत्पत्ति के पूर्व ही उसको नष्ट कर देना वास्तविक योग नहीं। दमन का नाम यथार्थ त्याग नहीं; बल्कि वह त्याग का उपहास मात्र है। त्याग शक्ति की दुर्बलता का परिचय देना हो तो एक प्रकार से योग की अवज्ञा करने के बराबर है। 
 
किसी प्रकार के प्रश्नपत्रों को प्राप्त कर लेना, किसी से पूछ लेना अथवा आत्मघात का भय दिखाकर परीक्षा पास कर लेने को 'उत्तीर्ण' होना नहीं कह सकते। इसी प्रकार जन्म से ही दूर रहकर हठयोग द्वारा वृत्तियों का दमन कर वासनालय या आसिक्त त्याग प्राप्त करना योग का काम नहीं। योगी तो वही है, जो विश्व वैभव सरोवर में खड़ा होकर भी अपने को सूखा रख सके, उसकी तरंगों का रंग न चढ़ने दे, विषय द्वंद्व में भी निर्द्वंद्व रहे। निर्वात दीप की भांति चित्त को निश्चल और मन को एकाग्र रखे। विषय रस को नीरस बना दे। किसी ने कहा भी है- 
 
ईंधन बिहूनी आग राखिबे को जतन कहा, 
ईंधन में आग राखे वाही को जतन है।
इन्द्री गलित करै, कहौ कौन साधपनो,
इन्द्री बलित बांधे सोई साधपन है।।
 
'अक्षर अनन्य' बिन बिषय पाए त्याग कहां,
पाय करै त्याग सोई बैराग मन है।
घर छोड़ बन जोग मांडन को निहोरो कहा,
घर ही में जोग मांडे सोई गुरुजन है।।
 
वास्तव में योग विषयक 'अक्षर अनन्य' कवि के उपर्युक्त पद्य का भाव अक्षरश: सत्य है। जब संभावना ही नहीं, तब त्याग किसका? बलात् इन्द्रियों का दमन करना तो योग की विडंबना है। तृण के अभाव में अग्नि का रखना, अग्नि की यथार्थ रक्षा नहीं। तृण समूह के होते हुए अग्नि को सु‍रक्षित रखने का नाम ही रक्षा है। कमल जल में वास करता है, किंतु जल में लिप्त नहीं। जो गृह में रहकर भी गृह में लिप्त नहीं, उसमें आसक्त नहीं, वही सच्चा योगी है। किसी ने सत्य कहा है- 
 
पंकज ज्यों जलमांहि बसै, तो पै भिन्न रहै, जल परस न लावे।
हंस बसै सर मांहि सदा, पै छीर भखै नीरहि बिलगावे।।
व्यूह-समूह बसै जिमि ध्यानी, पै ध्यान धरै, नहिं चित्त डिगावे।
भोग न बाधि सकै तिमि योगै, जो भोग में योग समाधि लगावे।। 
 
शुद्धांत:करण और सात्विक अन्नभोगी के चित्त में कभी विक्षेप उत्पन्न नहीं होता, तब बाधा कैसी? वह चाहे जिस आश्रम में बसे, किसी से कम नहीं। चित्तवृत्ति के निरोध का नाम समाधि है, वह चाहे किसी प्रकार क्यों न प्राप्त हो। मानसिक वेगों के शांत होते ही 'नोद्वेजति न च द्वेष्टि योगी विगतकल्मष:' हुआ नहीं कि वही सच्चा योगी हो गया।
 
यदि हमें भोग में योग साधना है तो सबसे प्रथम आचार-विचारों को शुद्ध और परिमित करना होगा। तभी अंत:करणवृत्यवच्छिन्न इस प्रपंचमय प्राणी को योगी बना सकेंगे। जहां तक चित्त की चंचलता और विक्षेप का नाश नहीं, वहां तक योग (त्याग) प्राप्त नहीं होता और त्याग बिना ब्रह्म साक्षात्कार कैसा? अत: स्थिर धारणा प्राप्त करनी होगी। स्थिरता तो समता में है। तराजू के किसी पलड़े में यदि बोझ कम-ज्यादा होगा तो स्थिरता नहीं प्राप्त हो सकती। बस, यही दशा योगी की है। मन की तरंगों का रंग किसी तरफ चढ़ जाने दिया या उसकी परवाह न की तो फिर स्थिरता कहां? चित्तवृत्ति में विक्षेप का प्रवेश हुआ नहीं कि बस, किया-कराया सब धूल! 
 
अत: यदि भोग में योग प्राप्त करना है तो चित्त में विक्षेप का प्रवेश मत होने दो, मन के विकारों को नष्ट करो, कल्पना को मिटा दो, उदासीनता का सेवन सीखो, जंगल में नहीं, किंतु घर में ही सच्चे जनक विदेह बनो। कौन कहता है कि भोग में योग नहीं हो सकता? निर्लेप होते ही सब ऋद्धि‍-सिद्धि आपकी दासी हो जाएंगी। तृष्णा आपके आगे हाथ जोड़े खड़ी रहेगी। संतोष आपका मित्र होगा, फिर भय किसका? कल्पना-काल का अभाव हुआ कि आप अजर-अमर योगी हो गए- 'जल में न्हाइये, कोरे रहिये, अन्तर में कीजे बास।' अब शेष क्या रहा? विशुद्धांत:करण-मनुष्य को कुछ भी दुर्लभ नहीं- 
 
विक्षेपकल्पनातीत: समचितो विचारधी:।
भोगे योगं न जानाति स योगी किं करिष्यति।। 
 
कल्पना, काल एवं विक्षेप रूप शत्रु को जीतने वाला, शांति के साम्राज्य में स्थिरचित्त हो निश्चिंत विचरने वाला यदि भोग में योग नहीं साध सकता तो वह योगी होकर ही क्या करेगा? अरे, बंधन तो वासना में है, जब वासनालय हो गया, तब जाग्रदवस्था होते कितनी देर लगती है। और वासनारहित योगी सदा ही जीनन्मुक्त है, उसे भोग बंधन कैसे हो सकता है-
 
वानसालिङ्गसम्बद्धो जीव: संसृतिहेतुक:।
वानसालिङ्गनिर्लिप्तो योगी जाग्रहदवस्थक:।।
शान्ति: शान्ति: शान्ति:

-  लेखक काव्यतीर्थ पं. श्रीकृष्णदत्तजी शास्त्री, साहित्यायुर्वेदोभयाचार्य
- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक से साभार
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