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एक आदिवासी लड़की की डायरी

एक आदिवासी लड़की की डायरी -
- रंजन के. पांड

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सत्रह साल की एक लड़की टुनी मुदुली ने बेल्जियम में भारत का प्रतिनिधित्व किया और वह 'मुझे वहाँ से निकालो' (गेट मी आउट ऑफ देयर) अभियान में करोड़ों वंचित बच्चों की ओर से बोली। दरअसल वह अपनी निष्ठा और दृढ़ संकल्प की वजह से ही 'वहाँ से बाहर' आई है। वह अभी भी अवयस्क है लेकिन उसने अपनी जिंदगी में कई बाधाओं का सामना किया है और उनको पार किया है।

उड़ीसा के कोरापुट जिले में पश्चिमी घाटों में बसे एक अजनबी से गाँव की टुनी मुदुली पारजा जनजाति की पहली लड़की है जिसने दसवीं की परीक्षा पास की है। उसके बाद से उसने और भी कई सफलताएँ प्राप्त की हैं और अब वह डॉक्टरी पढ़कर लोगों की सेवा करना चाहती है।

टुनी अपने भाई-बहनों में सबसे अलग थी। उसके माता-पिता पेट भरने के लिए यहाँ से वहाँ मजदूरी करते फिरते थे। कई महीनों तक उन्होंने हैदराबाद के एक ईंट भट्टे में काम किया। काम पर जाने के लिए वे अपने बच्चों को अकेला छोड़ जाते। गाँव में दूसरी अन्य लड़कियों की तरह टुनी ने खाना बनाना तथा घर का दूसरा काम-काज सीख लिया था। लेकिन उसमें पढ़ने की एक अदम्य इच्छा हमेशा से रही थी। इसलिए जब उसके माता-पिता पदलाम और नबीना ने उसे गाँव से करीब 30 किलोमीटर दूर एक सरकारी आवासीय स्कूल में दाखिल कराया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

कोरापुट जिले के नंदपुर ब्लॉक के बलादा सरकारी आवासीय स्कूल में उसने अपनी काबिलियत को साबित कर दिया। लेकिन जब वह चौथी
टुनी अब कई आदिवासी बच्चों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। न केवल उसके पिता बल्कि गाँववालों को भी उस पर गर्व है। प्रसन्न पदलाम कहता है, 'मुझे अभी भी नहीं पता है कि टुनी कहाँ गई थी, यह बेल्जियम है कहाँ। लेकिन अब मुझे भरोसा है कि कुछ सालों में ही वह डॉक्ट
कक्षा में थी, उस समय हैदराबाद में एक ईंट भट्टे में काम करते हुए उसकी माँ का देहांत हो गया। टुनी के लिए यह दोहरा झटका था- एक तो वह अपनी माँ की मौत से पहले ही टूट चुकी थी, ऊपर से उसके पिता ने उसे पढ़ाई छोड़कर घर संभालने को कहा।

हालाँकि टुनी के लिए शिक्षा सबसे बढ़कर थी, लेकिन उसने सोचा कि शायद उसके पिता ठीक कह रहे हैं। वह सोचती थी कि पढ़ाई जारी रखने से ज्यादा जरूरी परिवार की देखभाल करना था।

एक स्थानीय कार्यकर्ता चौधरी संताकर टुनी की मदद कर रहा था। उसने बताया, 'टुनी ने पूरी तरह से घर संभाल लिया। आखिरकार, दस साल की उम्र में अपने परिवार की आमदनी बढ़ाने के इरादे से वह भी अपने भाई संजीत के साथ मजदूरी करने लगी।'
अपने गाँव के बिलकुल करीब के एक कस्बे सुनाबेड़ा में एक सड़क निर्माण योजना में काम करते समय शिक्षा की उसकी महत्वाकांक्षा को फिर से बल मिला। वहाँ हर रोज बच्चों को खुशी-खुशी स्कूल जाते देखकर उसका मन भी स्कूल जाने को करने लगा था। उसने फैसला कर लिया कि उसके पिता या उसका समाज जो चाहे कहे, वह अपनी पढ़ाई जारी रखेगी। उसने अपने पहले वाले बलादा आवासीय स्कूल में फिर से अपना नाम लिखवा लिया।

2006 में उसकी जिंदगी में एक निर्णायक मोड़ आया। यूनिसेफ ने उसे लड़कियों की शिक्षा के बारे में 'मुझे वहाँ से निकालो' के बेल्जियम अभियान में भारत की आदिवासी लड़कियों का प्रतिनिधि चुन लिया।

टुनी की खुशी का पारावार नहीं था। उसके पिता और गाँव वालों को उसकी सफलता के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। टुनी के पिता पदलाम ने कहा, 'मैंने अपनी जिंदगी में समुद्र ही नहीं देखा था जबकि मेरी बेटी सात समंदर पार करके एक 'फिरंग' देश में जाने की बात कह रही थी।'पिता को यह समझाने में कि यह एक बहुत बड़ा अवसर था, टुनी, सरकारी पदाधिकारियों और उसके स्कूल के शिक्षकों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। टुनी बताती है, 'मैं स्कूल से एक ग्लोब और एटलस लेकर आई और मैंने उन्हें समझाया कि हमारा गाँव कहाँ हैऔर बेल्जियम कहाँ है।'

वहाँ, उसने बुनियादी शिक्षा, सुविधाओं और सेवाओं से वंचित करोड़ों बच्चों की ओर से बड़े असरदार ढंग से अपने विचार व्यक्त किए। यूनिसेफ की सेसिलो अडोर्ना लिखती है,

'टुनी जैसे बच्चे एक बड़े मकसद के दूत हैं। समाज में समावेश को बढ़ावा देने के मामले में वे सबसे कारगर साधन होते हैं।

अब वह बेल्जियम से वापस आ गई है, लेकिन उसके इरादे बुलंद हैं। उसने दसवीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की है और वह डॉक्टर बनने के अपने सपने के और करीब पहुँच गई है।

उड़ीसा के एक अग्रणी संस्थान, कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने उसे अपने जूनियर साइंस कॉलेज में दाखिला दे दिया है। वहाँ वह इंटरमीडिएट कोर्स करेगी।

टुनी को यूनिसेफ द्वारा जमीनी स्तर की खबरें देने की भी ट्रेनिंग दी गई है। उसने आदिवासी और ग्रामीण लोगों को वंचित रखने तथा उनके प्रति अन्याय के बारे में रिपोर्टें तैयार की हैं, जिनमें से कई उसने देश में और देश से बाहर प्रस्तुत की हैं। दूरदर्शन केंद्र ने भी उसे तथा उस जैसे बच्चों को सम्मानित किया है। इस प्रकार के सम्मान और समर्थन से टुनी तथा अन्य दूसरे बच्चों में आत्मविश्वास को बल मिल रहा है।'

टुनी अब कई आदिवासी बच्चों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। न केवल उसके पिता बल्कि गाँववालों को भी उस पर गर्व है। प्रसन्न पदलाम कहता है, 'मुझे अभी भी नहीं पता है कि टुनी कहाँ गई थी, यह बेल्जियम है कहाँ। लेकिन अब मुझे भरोसा है कि कुछ सालों में ही वह डॉक्टर बन जाएगी। अब मुझे लग रहा है कि उसकी शिक्षा का विरोध करना कितना गलत था।' उसे अब खुशी है कि उसकी बेटी ने उसे अपना नाम लिखना सिखा दिया है। टुनी बेहतर भविष्य के प्रति आश्वस्त है- अपने लिए और कोरापुट के आदिवासी बच्चों के लिए भी।