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Written By WD

ग़ालिब के ख़त

ग़ालिब के ख़त -
सब जानते हैं कि ग़ालिब अपनी शायरी के लिए बहुत मशहूर हैं। लेकिन कम लोग जानते होंगे कि शायरी की तरह ग़ालिब अपनी
नस्र निगारी में भी अपना सानी नहीं रखते। नस्र में भी उनके खुतूत अपना जवाब आप हैं।

Aziz AnsariWD
ख़त लिखने में ग़ालिब ने एक नई तर्ज़ ईजाद की। वो अपने ख़त लिखते वक़्त जिसे ख़त लिखना चाहते थे उसे ख्याली तौर पर अपने सामने बैठा लिया करते थे और अपनी तेहरीर ऐसी रखते थे जैसे उससे बातें कर रहे हों। अपनी तेहरीर में भी हँसी-मज़ाक़ और ज़राफ़त से कभी परहेज़ नहीं करते थे।

  "देखो साहब ये बातें हमको पसन्द नहीं। 1958 के ख़त का जवाब 1959 में भेजते हैं और मज़ा ये के जब तुमसे कहा जाएगा तो ये कहोगे के मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा है"।      
ग़ालिब के ख़त उर्दू नस्र के विक़ार में चार-चाँद लगाते हैं। ग़ालिब ने अपने एक दोस्त को रमज़ान के महीने में ख़त लिखा। उसमें लिखते हैं "धूप बहुत तेज़ है। रोज़ा रखता हूँ मगर रोज़े को बहलाता रहता हूँ। कभी पानी पी लिया, कभी हुक़्क़ा पी लिया,कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया। यहाँ के लोग अजब फ़हम र्खते हैं, मैं तो रोज़ा बहलाता हूँ और ये साहब फ़रमाते हैं के तू रोज़ा नहीं रखता। ये नहीं समझते के रोज़ा न रखना और चीज़ है और रोज़ा बहलाना और बात है"।

एक दोस्त को दिसम्बर 1858 की आखरी तारीखों में ख़त लिखा। उस दोस्त ने उसका जवाब जनवरी 1859 की पहली या दूसरी तारीख को लिख भेजा। उस खत के जवाब में उस दोस्त को ग़ालिब ख़त लिखते हैं। "देखो साहब ये बातें हमको पसन्द नहीं। 1858 के ख़त का जवाब 1859 में भेजते हैं और मज़ा ये के जब तुमसे कहा जाएगा तो ये कहोगे के मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा है"।

ग़ज़

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोह्द
पर तबीयत इधर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती