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Written By ND

गुरु तेगबहादुर का 333वाँ शहीदी पर्व

गुरु तेगबहादुर का 333वाँ शहीदी पर्व -
- प्रीतमसिंह छाबड़ा

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विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों की रक्षा हेतु प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेगबहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। धर्म स्वतंत्रता की नींव श्री गुरुनानकदेवजी ने रखी और शहीदी की रस्म शहीदों के सरताज श्री गुरु अरजनदेवजी द्वारा शुरू की गई। परंतु श्री गुरु तेगबहादुरजी की शहादत के समान कोई मिसाल नहीं मिलती, क्योंकि कातिल तो मकतूल के पास आता है, परंतु मकतूल कातिल के पास नहीं जाता।

गुरु साहिबजी की शहादत संसार के इतिहास में एक विलक्षण शहादत है, जो उन मान्यताओं के लिए दी गई कुर्बानी है जिनके ऊपर गुरु साहिब का अपना विश्वास नहीं था।

गुरुजी ने 1924 में मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ तत्कालीन हुकूमत द्वारा किए गए हमले के खिलाफ हुए युद्ध में अनूठी शूरवीरता का परिचय दिया जिससे उनके पिताजी ने उनका नाम त्यागमल से तेगबहादुर (तलवार के धनी) रख दिया।

युद्धस्थल के भीषण रक्तपात का गुरु तेगबहादुरजी के वैराग्यमय मानस पटल पर गहरा प्रभाव पड़ा, तद्नुसार तेगबहादुरजी का मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर उन्मुख हो गया। धैर्य, वैराग्य एवं त्याग की मूर्ति गुरु तेगबहादुरजी ने एकांत में लगातार 20 वर्ष बाबा बकाला नामक स्थान में प्रभु चिंतन एवं सतत प्रबल साधना की।

1964 में आठवें गुरु हरकिशनजी के परम ज्योति में विलीन होने के समय उन्होंने अपने उत्तराधिकारी का नाम बाबा बकाले का दिशा-निर्देश दिया। यह खबर सुनकर इस स्थान पर 22 व्यक्तियों ने स्वयं को गुरु घोषित कर दिया।

सन्‌ 1675 में गुरुजी मानव धर्म की रक्षा के लिए अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध अपने चारों शिष्यों सहित धार्मिक एवं वैचारिक स्वतंत्रता की खातिर शहीद हो गए। 'धरम हेत साका जिनि कीआ/ सीस दीआ पर सिदक न दीआ' (बचित्र नाटक)। निःसंदेह गुरुजी का यह बलिदान राष्ट्र की अस्मिता एवं मानव धर्म को नष्ट करने वाले आघात का प्रतिरोध था।

गुरुजी की इस अद्वितीय शहादत ने इस देश की एवं धर्म की सर्वधर्म समभाव की विराट संस्कृति को न केवल अक्षुण्ण बनाया, अपितु सुदृढ़ता प्रदान कर धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ निर्भयता से जीवजीनमंत्सिखाया।