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Written By अनिरुद्ध जोशी
Last Updated : सोमवार, 14 सितम्बर 2020 (12:10 IST)

Shri Krishna 13 Sept Episode 134 : पौंड्रक अपने काकाश्री को मारने लगता है तब होता है श्रीकृष्ण का चमत्कार

Shri Krishna 13 Sept Episode 134 : पौंड्रक अपने काकाश्री को मारने लगता है तब होता है श्रीकृष्ण का चमत्कार - Shri Krishna on DD National Episode 134
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 13 सितंबर के 134वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 134 ) में वासुदेव पौंड्रक अपने श्रीकृष्ण भक्त काका को कारागार से निकालकर उनकी हत्या करना चाहता है। वह अपने साथियों काशीराज, वानर द्वीत और उसके भाई के साथ मिलकर वह उनकी हत्या करना चाहता है। परंतु वहां श्रीकृष्ण अपनी माया से उसे बचा लेते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
तभी वहां पर रानी तारा आकर कहती है- ठहरो। ठहरो धनुर्धारियों ठहरो। स्वामी ये आप क्या अनर्थ करने जा रहे हो। तब पौंड्रक कहता है- तारा अनर्थ तो तब होगा जब हम इसे जीवित छोड़ देंगे। ये हमारा अपमान कर रहा है। इसकी बातें हमें बार-बार डंक मार रही है। अब हमसे सहन नहीं होता। यह सुनकर काकश्री कहते हैं- तू क्या मारेगा मुझे। यदि ईश्‍वर की इच्छा होगी तो तू और तेरे ये अधर्मी मित्र मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यह सुनकर काशीराज भड़क जाता और कहता है- बहुत जिव्हा चलाता है ये। तब पौंड्रक वानर द्वीत से कहता है- द्वीत इसका अंत कर दो। यह सुनकर द्वीत कहता है- जो आज्ञा वासुदेव।...श्रीकृष्ण यह सब देख रहे होते हैं। 
 
फिर द्वीत अपना फरसा लेकर काकाश्री के पास पहुंचकर खुद को विशालकाय बना लेता है। यह देखकर काकाश्री अपनी आंखें बंदकर जय श्रीकृष्ण का जाप करने लगते हैं तो श्रीकृष्‍ण आशीर्वाद की मुद्रा में आ जाते हैं। तब द्वीत अपनी विशालकाय मुष्ठिका से काकाश्री के सिर पर वार करता है, परंतु उन्हें कुछ भी नहीं होता है। यह देखकर सभी आश्चर्य करते हैं। तारा प्रसन्न हो जाती है। द्वीत कई प्रहार करता है परंतु काकाश्री को कुछ नहीं होता है। तब वह अपने हाथ के पंजे से काकाश्री के सिर को पकड़कर उठाने का प्रयास करता है परंतु काकाश्री वहां से हिल भी नहीं पाते हैं। तब वह फरसे से वार करता है तब भी कुछ नहीं होता है। यह देखकर द्वीत आश्चर्य करने लगता है तो श्रीकृष्ण मुस्कुरा देते हैं। 
 
फिर द्वीत अपना रूप छोटा करके निराश भाव से काकाश्री को देखता है और फिर वह कहता है- वसुदेव ये मायावी मुझसे छल कर रहा है। यह सुन और देखकर पौंड्रक का भाई कहता है कि ये अवश्य उस कृष्ण की माया होगी। यह सुनकर पौंड्रक कहता है कि उस ग्वाले कृष्ण की माया मैं इसी क्षण नष्ट कर देता हूं। फिर वह अपनी तलवार निकालकर काकाश्री की ओर बढ़ता है। यह देखकर श्रीकृष्ण फिर अपना चमत्कार दिखाते हैं। जैसे ही पौंड्रक काकश्री के हाथ पर तलवार मारता है उस तलवार का असर उसके भाई पर होता है तो वह चीखता है और उसके हाथ से खून निकलने लगता है। काकाश्री अपने हाथ पर देखते हैं तो कुछ भी खरोंच तक नहीं होती है तब पौंड्रक दूसरे हाथ पर मारता है तो फिर उसके भाई के दूसरे हाथ पर चोंट लगती है तो वह जोर से चीखता है और उसके हाथ से खून बहने लगता है। यह देखकर किसी को कुछ समझ नहीं आता है।
 
तब पौंड्रक और भी ज्यादा क्रोधित होकर काकाश्री की जंघा पर तलवार मारता है तो उसका भाई फिर से जोर से चीखता है। पौंड्रक फिर से अपने भाई की ओर देखता है। उसका भाई जांघ पकड़कर चीखता है उसकी जांघ से खून बहने लगता है। यह देखकर काकाश्री कहते हैं- जय श्रीकृष्ण। तब क्रोधित होकर पौंड्रक काकाश्री के मुंह पर तलवार मार देता है। तो काकाश्री को तो कुछ नहीं होता है परंतु उसके भाई के मुंह पर खून ही खून हो जाता है। तब वह सिर पर वार करने लगता है तो उसकी पत्नी रोककर कहती है कि रुक जाओ स्वामी आपकी तलवार ने तो काकाश्री पर वार किया था परंतु खून तो बह गया आपके भाई का। आप तो काकाश्री का वध करने जा रहे थे परंतु घायल तो आपका भाई हो गया है। स्वामी अब भी प्रभु की लीला पहचान लीजिये।...फिर पौंड्रक कहता है वीरमणि मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं। फिर सभी अपने भाई को संभालते हैं। 
 
सभी वहां से चले जाते हैं तब काकाश्री कहते हैं कि हे वासुदेव श्रीकृष्ण! आज आपकी लीला देखकर मैं तो धन्य हो गया। आज आपने त्रिलोक को दिखा दिया भगवन, आपने सिद्ध कर दिया कि मुझ जैसे एक सामान्य-सा भक्त भी आपको कितना प्रिय है भगवन, आप धन्य है। मेरा उद्धार कीजिये वासुदेव। मेरे भजीजे पौंड्रक को क्षमा कर दीजिये भगवन। उस मूर्ख को क्षमा कर दीजिये वासुदेव। 
 
फिर उधर, पौंड्रक अपने साथियों के साथ सभा लेता है तो काशीराज कहता है कि हे वासुदेव उस मायावी कृष्ण ने काका वीरमणि को बचाया और वो हमारा भी बुद्धि भेदन करना चाहता है। फिर द्वीत कहता है कि परंतु ऐसा नहीं हो सकता। हम उसकी माया के प्रभाव मैं नहीं आएंगे। उस कृष्ण ने मेरे परममित्र नरकासुर का वध किया है। मैं उसका वध करके अपने मित्र का बदला लूंगा। तब तक प्रतिशोध की इस आग में जलता रहूंगा। पौंड्रक भी कहता है कि हम भी कृष्ण का वध करना चाहते हैं ताकि सब हमें लोग भगवान कहे, वासुदेव मानें। तब काशीराज कहता है कि इसके लिए हमें द्वारिका पर आक्रमण करना होगा ताकि वो भगोड़ा कृष्ण हमसे युद्ध करने का साहस कभी नहीं जुटा पाएगा।
 
तब द्वीत कहता है कि नहीं वासुदेव, कृष्ण से सीधे-सीधे टकराना उचित नहीं क्योंकि कृष्ण मायावी है, कपटी है और वह छल से युद्ध करता है। इसलिए उसके साथ हमें भी छल से युद्ध करना चाहिए। पहले हमें उस कृष्ण को अपना दूत भेजकर चेतावनी देंगे। वह उस चेतावनी को महत्व नहीं देगा। फिर उसे भ्रमित करने के लिए हम चुप रहेंगे। केवल तब तक, जब तक कृष्‍ण द्वारिका से बाहर नहीं चला जाचा। इस बर काशीराज कहता है कि फिर जब कृष्ण द्वारिका में नहीं होगा तब हम द्वारिका का विनाश करेंगे। इसके बाद हम उस पर भी आक्रमण कर देंगे। इसके बाद न रहेगा कृष्ण और न बजेगी उसकी बांसुरी। इस योजना के तय होने के बाद सभी जोर-जोर से हंसने लगते हैं। 

‍फिर पौंड्रक का दूत द्वारिकाधीश के समक्ष पौंड्रक का संदेश पढ़कर सुनाता है- हे द्वारिकाधीश! समस्त संसार के राजाओं, महाराजाओं को परास्त करके मैंने ये प्रमाणिक कर दिया है कि पृथ्‍वीलोक पर मैं ही सर्वशक्तिमान हूं।... यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं और बलरामजी क्रोधित होकर सुनते हैं।.. आगे वह दूत पढ़ता है- इसलिए एक के बाद एक सभी राजाओं ने मेरे अधीन होना स्वीकार कर लिया है। जिन मूर्ख राजाओं ने मुझे पृथ्‍वीवल्लभ मानने से इनकार किया है, वह अब इस धरती पर नहीं धरती के अंदर समा चुके हैं। तुम एक बुद्धिमान राजा हो इसलिए मैंने द्वारिका के विरूद्ध अपनी विशाल सेना ना भेजकर अपने शांतिदूत...यह सुनकर बलरामजी भड़क जाते हैं और कहते हैं ठहरो।....कन्हैया ये शांतिदूत शांति के संदेश में युद्ध की धमकी को लपेटकर लाया है और तुम चुपचाप सुन रहे हो। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया दूत अपना कर्तव्य निभा रहा है वह राजा पौंड्रक का आदेशबद्ध है उनके आधीन है इसलिए उसे उसका कर्तव्य निभाने दो।.. दूत आगे का संदेश पढ़ो।
 
फिर वह दूत आगे का संदेश पढ़ता है- तुम एक बुद्धिमान राजा हो इसलिए मैंने द्वारिका के विरूद्ध अपनी विशाल सेना ना भेजकर अपना शांतिदूत भेजा है और शांति की बात ये है कि तुम भी अपनी बुद्धि से काम लो। ना केवल पृथ्‍वीवल्लभ मानो बल्कि अपने आपको वासुदेव कहना छोड़कर मुझे वासुदेव कहकर संभोधित करो। इसलिए कि सच्चा वासुदेव अब केवल मैं ही हूं। यदि तुमने मेरे शांति के इस संदेश को नहीं माना तो मैं यह समझूंगा कि तुम और तुम्हारे भाई बलराम को अपने बल का अकारण ही घमंड हो गया है और तुम दोनों उन्मत्त हो गए हो।..
 
यह सुनकर बलराम खड़े होकर चीखते हैं- दूत। फिर वे श्रीकृष्ण की ओर देखते हैं और फिर अक्रूरजी की ओर देखते हैं और तब सात्यकि को कहते हैं सात्यकि इस पाखंडी की गर्दन उड़ा दो। यह आदेश पाते ही सभी खड़े होकर अपनी तलवार पर हाथ रख लेते हैं। दूत घबरा जाता है। फिर सात्यकि श्रीकृष्ण की ओर देखते हैं तो वे कुछ भी नहीं कहते हैं। तब बलरामजी चीखकर कहते हैं- सात्यकि मेरी आज्ञा का पालन हो। यह सुनकर सात्यकि अपनी तलवार निकाल लेता है और उस दूत की ओर बढ़ने लगते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं- ठहरो सात्यकि। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया शांति से काम लीजिये।
 
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- शांति से काम लूं कन्हैया। पौंड्रक ने सारे शिष्टाचार खाई में फेंककर हमारी मान-मर्यादा पर आक्रमण करने के लिए इस आक्रमणकारी को शांतिदूत के रूप में भेजा है। इसलिए शांति की आड़ में जो युद्ध थोपा गया है उसका उत्तर देना हमारा कर्तव्य बनाता है कन्हैया। इसका उत्तर यही होगा कन्हैया की इसी क्षण पौंड्रक के इस प्रतिनिधि की गर्दन उड़ा दी जाए।
 
यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि द्वारिकाधीश दाऊ भैया ठीक कह रहे हैं यदि राजा पौंड्रक शांति चाहता तो संदेश की भाषा इतनी आतंक से भरी नहीं होती। ये शांति संदेश केवल युद्ध की घोषणा है। तब सात्यकि कहता है- द्वारिकाधीश मुझे आज्ञा दीजिये। मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूं। मेरी तलवार इसका रक्त पीना चाहती है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सात्यकि इस समय तुम इस दूत का अपमान कर रहे हो। तब सात्यकि कहता है क्षमा करें द्वारिकाधीश ये भी तो आपका अपमान कर रहा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने जजमान का अपमान करना राजा पौंड्रक की नीति होगी परंतु हम तो अपने अतिथि का सम्मान करना जानते हैं और ये दूत इस समय द्वारिका नगरी का अतिथि है और हमारे शरण में आया है। इसलिए आप सब अपने क्रोध की तलवारों को अपनी म्यान में वापस रख लें। तब सात्यकि तलवार रख लेता है। 
 
फिर बलरामजी कहते हैं परंतु कन्हैया पौंड्रक के मन में हमारे लिए केवल द्वैष की भावना है। वो हमारे साथ सिर्फ युद्ध चाहता है और कुछ नहीं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु इस समय तो ऐसा लग रहा है कि आप सब युद्ध के लिए उतावले हो रहे हो।.. हां मैं ये मानता हूं कि राजा पौंड्रक ने राजनीति के शिष्टाचारों का उल्लंघन किया है परंतु हम ऐसा नहीं कर सकते। इसलिए दूत को पहले अपना संदेश सुनाने दीजिये। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं परंतु कन्हैया जिस संदेश का अर्थ हमें युद्ध की चुनौती देना हो उस संदेश को मैं चुपचाप नहीं सुन सकता। यह कहकर बलरामजी वहां से चले जाते हैं। फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं आप लोग सब बैठ जाइये। हे दूत तुम अपने राजा का संदेश आगे सुनाओ। 
 
तब दूत पुन: कहता है हे कृष्ण तुमने मेरा नाम वासुदेव ग्रहण करके मेरा स्वांग भरा है। परंतु याद रखो मैं ही सच्चा वासुदेव हूं। मेरे पास गोमुखी नाम की प्रचंड गदा है जिसने बड़े-बड़े वीरों महावीरों को यमलोक पहुंचाया है। मेरा सारंग धनुष दिव्य धनुष है जिसकी टंकार से तुम्हारा हृदय धड़कना भूल जाएगा। नंदन नामी मेरी तलवार यमराज को भी योमलोक पहुंचा सकती है और मेरा सुदर्शन चक्र तुम्हारे सुदर्शन चक्र के टूकड़े-टूकड़े कर सकता है और तुम्हारा वध भी आसानी से कर सकता है। मैं ही सच्चा वासुदेव हूं। इस धरती पर एक ही वासुदेव रहेगा इसलिए तुम या तो मुझे वासुदेव मानोगे या अपनी मृत्यु मांगोगे। तुम्हारा शुभ चिंतक वासुदेव पौंड्रक। 
 
यह सुनककर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- पौंड्र नगरी के दूत संदेश लाने का धन्यवाद। राजा पौंड्रक ने इस संदेश द्वारा ‍जिन शब्दों से युद्ध छेड़ने का प्रयास किया है उसका उत्तर देना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि मैं ना ही शब्दों के युद्ध के पक्ष में हूं और ना ही शस्त्रों के। फिर भी यदि वे युद्ध चाहते हैं तो युद्ध होगा परंतु इसकी पहल उन्हीं को करना होगी। और यदि इसकी पहल उन्होंने की तो युद्ध का अंत हम करेंगे। 
 
फिर श्रीकृष्ण अक्रूजी से कहते हैं अक्रूजी श्रीमान दूत यदि ठहरना चाहे तो आदर और सम्मान के साथ यहां ठहराया जाए और यदि वे जाने चाहे तो आप स्वयं अपनी जिम्मेदारी से द्वारिका की सीमा तक उन्हें स्वयं छोड़कर आएं। तब अक्रूजी कहते हैं जैसी आपकी आज्ञा। तब सभी द्वारिकाधीश की जय-जयकार करते हैं।
 
उधर, बलरामजी अकेले ही पौंड्रक का वध करने के लिए उतावले होकर अपना धनुष उठाकर चले देते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें रोककर यह बताते हैं कि दाऊ भैया इस वक्त युद्ध करना अच्छा नहीं क्योंकि दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का विवाह तय हुआ है हमें वहां जाना है यह सुनकर बलराम कहते हैं अरे ये तो मैं भूल ही गया था। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि और हमें साम्ब की चिंता भी करना है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं उसे भी तो वहां विवाह समारोह में जाना है। तब बलराम कहते हैं कि साम्ब तो मेरा भतीजा उसकी क्या चिंता करना वह तो बलशाली है। 
 
फिर बाद में हनुमानजी को श्रीराम की पूजा करते हुए बताया जाता है। वे अपने प्रभु को नीलकमल भेंट करते हैं तो श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं आह आज मुझे मेरे भक्त ने बहुत ही सुंदर और सुगंधित कम भेंट किया है। रुक्मिणी कहती है कि वाह प्रभु सचमुच बहुत ही सुगंधित हैं। तब श्रीकृष्ण बताते हैं कि इस कमल तक पहुंचना ही बहुत कठिन है। देवी यही अब इन कमलों के द्वारा मैं पौंड्रक को दंड दूंगा।

फिर उधर, पौंड्रक अपने साथियों काशीराज, वानर द्वीत और अपने भ्राता के साथ चौपड़ खेल रहे होते हैं तभी खिड़की से उड़कर कमल का फूल आकर उनके बीच गिर पड़ता है। यह देखकर सभी आश्चर्य करते हैं और उसकी सुगंध से सभी मदमस्त हो जाते हैं। उस कमल को उठाकर पौंड्रक उसे सूंघता है और कहता है कि ऐसी मतमस्त सुगंध, पता करो किस सरोवर का है। तभी दूसरा फूल भी आकर गिर पड़ता है। तब काशीराज कहता है कि ये फूल यहां के किसी सरोवर के नहीं हो सकते। सुना है कि गंधमादन पर्वत पर एक दिव्य सरोवर है जहां ये कमल खिलते हैं। तभी उसकी पत्नी तारा भी उसकी सुंगध से वहां खींची चली आती है और कहती है- गंधमादन पर्वत पर? महाराज ये फूल उड़ते-उड़ते मेरे कक्ष में भी आए परंतु इन फूलों को तो राजमहल के जलकुंड में खिलना चाहिए, क्यों महाराज? काशीराज इसके लिए मना करता है तो वानर द्वीत कहता है कि मैं गंधमादन पर्वत पर जाकर ये फूल अवश्य लाऊंगा।
 
फिर वानर द्वीत गंधमादन पर्वत पर पहुंच जाता है और वह उस सरोवर को देखता है जिसमें ये कमल खिले होते हैं। तब वह उनके पास जाने का प्रयास करता है परंतु तभी आग उत्पन्न हो जाती है। तब वह कहता है- कौन है वो जो मुझे अपनी मायावी शक्ति से रोक रहा है? तब उसे आवाज सुनाई देती है ऐसे असुर द्वीत तुम यहां से ये दिव्य कमल पुष्प नहीं ले जा सकते। क्योंकि इन दिव्य कमल पुष्पों पर केवल मेरे प्रभु का अधिकार है। इन दिव्य पुष्पों से रोज अपने प्रभु की पूजा करता हूं। तब द्वीत जोर से कहता है- तुम्हारा प्रभु। 
 
तब एक कुटिया से हनुमानजी बाहर निकलते हैं और कहते हैं- प्रभु श्रीराम। यह देख और सुनकर द्वीत कहता है- अच्छा तो तुम्हीं हो वो मायावी। तुम अपनी माया से लोगों को भ्रमित कर रहे हो और अपने आप को हनुमान समझते हो। तब हनुमानजी कहते हैं कि मैं समझता नहीं हूं मैं स्वयं हनुमान हूं। तब द्वीत कहता है- सचमुच वृद्धावस्था के कारण तुम्हारी बुद्धिभ्रष्ट है। अरे बुढ्ढे इस सरोवर के सारे फूल में तोड़ ले जाऊंगा। यदि तुमने मुझे रोकने की कोशिश की तो मैं तुम्हारी गर्दन उड़ा दूंगा। जय श्रीकृष्णा।
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा