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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

श्राद्ध पर्व : पितरों की तृप्ति

पितृ ऋण से मुक्ति हेतु श्राद्ध

Pitra Paksha | श्राद्ध पर्व : पितरों की तृप्ति
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।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-(1) ब्रह्म यज्ञ (2) देव यज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। उक्त पाँच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं। 'यज्ञ' का अर्थ आग में घी डाल कर मंत्र पढ़ना नहीं होता। यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म।

क्या है पितृयज्ञ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पुर्वज, माता, पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति तथा श्राद्ध कर्म से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।

श्राद्ध कर्म जरूरी : भाद्रपद की पूर्णिमा एवं आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। पितृ पक्ष को पितरों की मरण-तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। सर्वपितृ अमावस्या को कुल के उन लोगों का श्राद्ध किया जाता हैं जिन्हें नहीं जानते हैं।

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पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात ही स्वयं पितृ तर्पण किया जाता है।

पितर चाहे किसी भी योनि में हों वे अपने पुत्र, पु‍त्रियों एवं पौत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश स्वीकार करते हैं। इससे पितृगण पुष्ट होते हैं और उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है। यह कर्म कुल के लिए कल्याणकारी है। जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं। पूरे वर्ष वे लोग उनके श्राप से दुखी रहते हैं। पितरों को दुखी करके कौन सुखी रह सकता है?

श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है।

गयाजी : गया में श्राद्ध करने का बड़ा महत्व माना गया है। प्रतिमास मृत्यु-तिथि पर मृतक का मासिक श्राद्ध किया जाता है। प्रतिवर्ष मृत्यु-तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है। आश्विन कृष्ण पक्ष में प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध किया जाता है। काशी, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में तीर्थ-श्राद्ध किया जाता है। तथा गयाधाम में गया-श्राद्ध करने का विधान है। तीन, तेरह, सवा माह और एक वर्ष में भी जो पितर मुक्त नहीं हो पाते हैं उसके लिए अंतिम विकल्प के तौर पर गया में पूर्ण श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किया जाता।

पटना से करीब 92 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गया के बारे में कहते हैं कि जो गया हो आए उन्हें मोक्ष मिल गया। गया मोक्ष स्थली के रूप में विख्यात है। प्रत्येक साल 15 दिनों के लिए होने वाला पितृ पक्ष का मेला इस नगर की एक विशिष्ट पहचान है। पितृदोष या कालसर्प योग की मुक्ति के लिए त्र्यंबकेश्वर जाना होता है।

श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्‌॥

'श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को वे जैसे आहार के योग्य होते हैं, वैसा ही होकर उन्हें मिलता है।' पितरों के कल्याणार्थ इन श्राद्ध के दिनों में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। उससे वे तृप्त होते हैं और अपने कुटुम्बियों की मदद भी करते हैं।

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1.पितृयज्ञ: पितरों की तृप्ति