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Written By अनिरुद्ध जोशी

आत्मा का विज्ञानमय कोश-4

बोधपूर्वक जीने की राह....

Vigyanmay kosh | आत्मा का विज्ञानमय कोश-4
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विमान सम्मत है जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
 
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रिया हैं जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता हैं। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
 
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार ‍खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है सत्यज्ञानमय कोश का परिचय।
 
विज्ञानमय कोश : सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश। सत्यज्ञामय कोश अर्थात जिसे सांसारिक सत्य का ज्ञान होने लगे और जो माया-भ्रम का जाल काटकर साक्षित्व में स्थित होने लगे या जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के स्तर से मुक्ति पाकर निर्विचार की दशा में होने लगे उसे ही सत्यज्ञान पर चलने वाला कहते हैं। दूसरा इस कोश को विज्ञानमय कोश भी कहते हैं। विज्ञान का अर्थ साइंस से न ले। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान या विशेष बोध। सत्यज्ञानमय कोश बोधपूर्वक जीने से मिलता है।
 
मनोमय कोष से मुक्त होकर विज्ञानमय अर्थात सत्यज्ञानमय कोश में स्थित आत्मा को ही हम सिद्ध या संबुद्ध कहते हैं। इस कोश में स्थित आत्माएँ मन से मुक्त हो चुकी होती है। इस कोश के भी कुछ स्तर माने गए है जिस तरह की मनोमय के है।
 
जब मनुष्य को अपने अज्ञान में पड़े रहने का ज्ञान होता है तब शुरू होता है मन पर नियंत्रण। मन को नियंत्रित कर उसे बुद्धि-संकल्प में स्थित करने वाला ही विवेकी कहलाता है। विवेकी में तर्क और विचार की सुस्पष्टता होती है।
 
विवेकी को ही विज्ञानमय कोश का प्रथम स्तर माना जाता है किंतु जो बुद्धि का भी अतिक्रमण कर जाता है उसे अंतर्दृष्टि संपन्न मनस कहते हैं। अर्थात जिसका साक्षित्व गहराने लगा। इसे ही ज्ञानीजन संबोधि का लक्षण कहते हैं, जो विचार से परे निर्विचार में स्‍थित है।
 
ऐसे अंतरदृष्टि संपन्न 'आत्मा' विज्ञानमय कोश के प्रथम स्तर में स्थित होकर सुक्ष्मातित दृष्टिवाला होता है। जब अंतरदृष्टि की पूर्णता आ जाती है तो मोक्ष के द्वार खुलने लगते हैं। इस सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश को पुष्ट-शुद्ध करने के लिए ध्यान का प्रावधान है। ध्‍यान तो प्राण और मन को साधने का उपाय भी है।
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