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पितरों के अधिपति यमराज और यमलोक का परिचय

पितरों के अधिपति यमराज और यमलोक का परिचय | yamraj
वेदों में 'यम' और 'यमी' दोनों देवता मंत्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं। वेदों के 'यम' का मृत्यु से कोई संबंध नहीं है अर्थात वे मृत्यु देने वाले देवता नहीं है। वेदों में यम नाम की एक वायु का भी वर्णन मिलता है। यम को वेदों में पितरों का अधिपति माना गया है।
 
 
वेदों के अंग उपनिषद में नचिकेता की एक कहानी में यमराज का उल्लेख है। 'योग सूत्र' में साधना के आठ अंगों यानी अष्टांग योग में यम का स्थान पहला है। यम का अर्थ होता है नियंत्रण और संयम। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के गर्भ से उत्पन्न सूर्य के पुत्र को भी यम कहा गया है। एक मान्यता में यम की बहन 'यमी' को यमुना नदी कहा गया है।
 
 
यमराज के नाम : यम के लिए पितृपति, कृतांत, शमन, काल, दंडधर, श्राद्धदेव, धर्म, जीवितेश, महिषध्वज, महिषवाहन, शीर्णपाद, हरि और कर्मकर विशेषणों का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में यम को प्लूटो कहते हैं।
 
'मार्कण्डेय पुराण' के अनुसार दक्षिण दिशा के दिक्पाल और मृत्यु के देवता को यम कहा जाता है। यमराज का पुराणों में विचित्र विवरण मिलता है। पुराणों के अनुसार यमराज का रंग हरा है और वे लाल वस्त्र पहनते हैं। यमराज भैंसे की सवारी करते हैं और उनके हाथ में गदा होती है।
 
 
यमलोक के लेखक : देव, ऋषि, दानव, मानव आदि के कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले भगवान चित्रगुप्त हैं। भगवान चित्रगुप्त की बही 'अग्रसन्धानी' में प्रत्येक जीव के पाप-पुण्य का हिसाब है।
 
यमराज की सुरक्षा : इनकी नगरी को 'यमपुरी' और राजमहल को 'कालीत्री' कहते हैं। यमराज के सिंहासन का नाम 'विचार-भू' है। महाण्ड और कालपुरुष इनके शरीर रक्षक और यमदूत इनके अनुचर हैं। वैध्यत यमराज का द्वारपाल है। चार आंखें तथा चौड़े नथुने वाले दो प्रचण्ड कुत्ते यम द्वार के संरक्षक हैं।
 
 
14 यमराज हैं : स्मृतियों के अनुसार 14 यम माने गए हैं- यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त। 'धर्मशास्त्र संग्रह' के अनुसार 14 यमों को उनके नाम से 3-3 अंजलि जल तर्पण में देते हैं। इनका संसार 'यमलोक' के नाम से जाना जाता है। 
 
'स्कन्दपुराण' में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को दीये जलाकर यम को प्रसन्न किया जाता है। एक धर्मशास्त्र का नाम भी यम है।
 
 
कैसा है यमलोक और कैसे पहुंचती है आत्मा वहां, जानिए

पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग।


अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।


यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।

 

अगले पन्ने पर कहां स्थित है यमलोक...


आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है।

नरक का स्थान : महाभारत में राजा परीक्षित इस संबंध में शुकदेवजी से प्रश्न पूछते हैं तो वे कहते हैं कि राजन! ये नरक त्रिलोक के भीतर ही है तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित है। उस लोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान यम हैं। वे अपने सेवकों सहित रहते हैं तथा भगवान की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहां लाए हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दंड देते हैं।


यमलोक : यमपुरी या यमलोक का उल्लेख गरूड़ पुराण और कठोपनिषद ग्रंथ में मिलता है। मृत्यु के 12 दिनों के बाद मानव की आत्मा यमलोक का सफर प्रारंभ कर देती है। पुराणों अनुसार यमलोक को 'मृत्युलोक' के ऊपर दक्षिण में 86,000 योजन दूरी पर माना गया है। एक योजन में करीब 4 किमी होते हैं।


गरूड़ पुराण में यमलोक के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख मिलता है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुंच जाता है अन्यथा इस नदी में वे डूबते रहते हैं और यमदूत उन्हें निकालकर धक्का देते रहते हैं।

यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।

 

अगले पन्ने पर, यमलोक के भीतर और बाहर का वर्णन...


पुराणों के अनुसार यमलोक एक लाख योजन क्षेत्र में फैला और इसके चार मुख्य द्वार हैं। यमलोक में आने के बाद आत्मा को चार प्रमुख द्वारों में से किसी एक में कर्मों के अनुसार प्रवेश मिलता है।


दक्षिण का द्वार : चार मुख्य द्वारों में से दक्षिण के द्वार से पापियों का प्रवेश होता है। यह घोर अंधकार और भयानक सांप, सिंह और भेड़िये आदि तरह के भयानक जीव और राक्षसों से घिरा रहता है। यहां से प्रवेश करने वाली पापी आत्माओं के लिए यह अत्यंत कष्टकर होता है। इसे नरक का द्वार कहा जाता है। यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं।


पश्चिम का द्वार : पश्चिम का द्वार रत्नों से जड़ित है। इस द्वार से ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो।

उत्तर का द्वार : उत्तर का द्वार भिन्न-भिन्न स्वर्णजड़ित रत्नों से सजा होता है, जहां से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो।


पूर्व का द्वार : पूर्व का द्वार हीरे, मोती, नीलम और पुखराज जैसे रत्नों से सजा होता है। इस द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है। इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं।

 

अंत में जानिए यमलोक की व्यवस्था...


पितरों का पितृलोक (यमलोक) : धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।

अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।


पितरों का आगमन : सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्धपक्ष की अवावस्या तिथि का महत्व भी है।


अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतीपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।

पितरों का परिचय : पुराण अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।

चार व्यवस्थापक : यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश।

इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।


दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।

अर्यमा का परिचय : आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।


इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं।

सूर्य किरण का नाम अर्यमा : देसी महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैं- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।