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Written By ND

विश्व विपश्यना पगोड़ा

विश्व विपश्यना पगोड़ा -
- सुनील ताम्रकर

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वो ब्रह्मदेश (आज का म्यांमां) और वहाँ भी कुछ लोगों ने गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा सदियों से भगवान बुद्ध की सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक एवं संप्रदाय विहीन, व्यावहारिक शिक्षा एवं खोज को जैसी थी वैसी ही संभालकर रखा एवं समय आने पर पुनः विश्व विपश्यनाचार्य गुरुजी सत्यनारायण गोयन्का द्वारा अपने उद्गम स्थल भारत में लाई गई..., वरना हम लोग केवल पढ़ते-सुनते ही रह जाते कि भगवान बुद्ध ने ' सत्य' की खोज की थी।

'विपश्यना' भारत की अत्यंत प्राचीन साधना पद्धति है। समय-समय पर जो भी व्यक्ति बुद्ध बनता है, वह इस विलुप्त विद्या को खोजकर ही बोधि प्राप्त करता है। गौतम बुद्ध के पूर्वकालीन वैदिक साहित्य में इस विद्या की भूरि-भूरि प्रशंसा उल्लिखित है, लेकिन केवल प्रशंसा ही है। तत्कालीन भारत इस विद्या का प्रयोग सर्वथा भूला बैठा था।

आज पुनः विपश्यना विद्या के पुनरागमन के ऐतिहासिक समय को सदियों तक बनाए रखने के लिए मुंबई महानगर में एक विशाल विश्व विपश्यना पगोड़ा का निर्माण पूर्ण हो चुका है। यह विशाल स्तूप भारत की उस प्राचीन गौरव गरिमा का ज्वाजल्यमान प्रकाश स्तंभ साबित होगा। भारत की पुरातन, सनातन सार्वजनीन धर्म परंपरा को लोक कल्याण के लिए पुनः उजागर करेगा।

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यह स्वर्णिम स्तूप उस स्वर्णिम युग का पुरावर्तन करेगा, जबकि भारत अध्यात्म विद्या के साथ-साथ लौकिक शिक्षाओं एवं भौतिक ऐश्वर्य में भी संसार का सिरमौर था। यह गगनचुंबी स्तूप अपना ऊँचा सिर उठाकर भारत ही नहीं, विश्व के तमाम लोगों का आह्वान करेगा और तथागत तथा उनकी सर्वहितकारिणी शिक्षा को बुलंदी के साथ मुखरित करेगा।

राजस्थान से मँगाए गए विशाल शिलाखंडों से निर्मित यह स्तूप सतह से 96.12 मीटर ऊँचा है एवं आधार पर इसका व्यास 97.46 मीटर है। इस विपश्यना पगोड़ा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें भगवान बुद्ध के दिव्यांश स्थापित हैं। विश्व युद्ध पूर्व की साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के पुरातत्व विभाग ने भारत के एक प्राचीन स्तूप के भग्नावशेष से भगवान बुद्ध के दिव्यांश लंदन ले जाकर अपने म्यूजियम में प्रदर्शन के लिए रखे थे।
भगवान की पावन धातुओं को रखने के लिए म्यूजियम उचित स्थान नहीं होता। वैशाख पूर्णिमा की जिस रात भगवान का महापरिनिर्वाण हुआ, आनंद द्वारा प्रश्न किए जाने पर भगवान ने यह स्पष्ट आदेश दिया था कि उनकी शरीर धातु किसी राजनगरी के सार्वजनीन स्थान पर उपयुक्त चैत्य बनाकर उसमें स्थापित की जाए, ताकि श्रद्धालु पुण्यलाभी हो सकें।

भगवान के आदेशों के अनुकूल आठ राजधानियों में आठ भव्य धातु स्तूप बने। वे सदियों तक साधकों के लिए पावन तीर्थ रहे और लोगों को सद्धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहे। महाबोधि सोसाइटी द्वारा पावन अवशेषों का एक भाग इस विशाल विश्व पगोड़ा में स्थापित करने हेतु दिया गया है।

सामान्यतः ऐसे स्तूप ठोस होते हैं, परंतु विपश्यनाचार्य सयाजी ऊ-बा-खिन की परंपरानुसार आधुनिकतम वास्तु शिल्पकला की तकनीक द्वारा इसे भीतर से ठोस न रखकर 67500 वर्गफुट आकार में एक विशाल विपश्यना साधना कक्ष का स्वरूप दिया गया है। इसके बीचों-बीच ये पावन धातु रखी गई है। इसके इर्द-गिर्द लगभग आठ हजार साधक-साधिकाएँ एकसाथ बैठकर सामूहिक साधना कर सकते हैं।

यह पगोड़ा इंजीनियरी कौशल का एक अद्भुत नमूना है। बर्मी स्थापत्यकला के अनुरूप निर्मित यह विशाल पगोड़ा भारत की शुद्ध सनातनी परंपरा के अनुसार धर्म में पुष्ट होने के दो महत्वपूर्ण मापदंडों की ओर संकेत करता है। एक है पुब्बकारी होना यानी बदले में कुछ पाने की कामना के बिना नितांत निःस्वार्थ भाव से परोपकार करने की पहल करना, दूसरा है कतम्मू कतवेदी यानी कृतज्ञ होना।

सदियों तक यहाँ के लोग इस बर्मी स्थापत्यकला को देखकर उस देश के उपकार को कृतज्ञ भाव से स्मरण करते रहेंगे। कृतज्ञता का भाव जागने से उनकी अपनी धर्म चेतना पुष्ट होगी। इस प्रकार यांगो (रंगून) के श्वेडगोन पगोडा की प्रतिकृति के रूप में इस विशाल पगोड़ा का निर्माण श्वेडगोन पगोड़ा की ऊँचाई से एक फुट कम ऊँचा बनाकर श्वेडगोन पगोड़ा को सम्मान दिया गया है। यह विशाल निर्माण सार्थक होगा, सफल होगा। देशवासियों का मंगल होगा, कल्याण होगा।