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गुफा में रखना : इसराइल और इराकी सभ्यता में लोग अपने मृतकों को शहर के बाहर बनाई गई एक गुफा में रख छोड़ते थे जिसे बाहर से पत्थर से बंद कर दिया जाता था। ईसा को जब सूली पर से उतारा गया तो उन्हें मृत समझकर उनका शव गुफा में रख दिया गया था।
इतिहासकार मानते हैं कि मेसोपोटामिया (इराक) और मिस्र में दफनाए जाने या गुफा में रखे जाने की शुरुआत हुई। इसके चलते प्रारंभिक यहूदियों और उस दौर के अन्य कबीलों में गुफा में रखे जाने का प्रचलन शुरू हुआ।
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पारसी अंतिम संस्कार : पारसियों में आज भी मृतकों को न तो दफनाया जाता है और न ही जलाया जाता है। पहले वे शव को पहले से नियुक्त खुले स्थान पर रख आते थे और आशा करते थे कि हमारे परिजन गिद्ध का भोजन बन जाएं। लेकिन आधुनिक युग में यह संभव नहीं और गिद्धों की संख्या भी तेजी से घट गई है, तब उन्होंने नया उपाय ढूंढ लिया है। वे शव को उनके पहले से नियुक्त कब्रिस्तान में रख देते हैं, जहां पर सौर ऊर्जा की विशालकाय प्लेटें लगी हैं जिसके तेज से शव धीरे-धीरे जलकर भस्म हो जाता है।
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दफनाना : दफगाए जाने को सबसे सभ्य तरीका माना जाता है, लेकिन क्या दफनाना धार्मिक रूप से सही है? दफनाए जाने की परंपरा की शुरुआत भारत में वैदिक काल से हुई जबकि संतों को समाधि दी जाती थी। आज भी हिन्दुओं का साधु समाज संतों का दाह संस्कार नहीं करता। उनकी समाधि ही दी जाती है।
भारत से बाहर प्रारंभ में यहूदी, चीनी और पारसी धर्म में मृतकों को गुफा में रखे जाने का प्रचलन शुरू हुआ। फिर यहूदियों में दफनाए जाने की परंपरा की शुरुआत हुई। ईसाई धर्म की शुरुआत में मृतकों को चर्च में रखा जाता था। चर्च मृतकों को रखे जाने का स्थान बन गया था। फिर धीरे-धीरे उसे दफनाए जाने का प्रचलन चला। कालांतर में चर्च से अलग कब्रिस्तान बने। आज भी चर्च को भूतों का स्थल माने जाने की मानसिकता इसीलिए कायम है, क्योंकि प्रारंभ में शवों को चर्च में ही रखा ममी बनाकर रख दिया जाता था। कितना अजीब था पूजा स्थल पर शवों को रखना।
अलग-अलग कब्रिस्तान : यहूदियों के काल में जब दफनाने की प्रथा शुरू हुई, तब कब्रिस्तान अलग-अलग नहीं हुआ करते थे। इधर, हिन्दुओं के साधु समाज में समाधि देने की परंपरा प्रचलित थी, तब भी अलग-अलग समाधि स्थल नहीं होते थे। कुछ साधु तो हिमालय कि किसी गुफा में जाकर अपनी देह त्याग देते थे।
ईसाई और इस्लाम की उत्पत्ति और उत्थान वाले दौर में लोगों के कब्रिस्तान भी अलग-अलग होते गए। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंटों के अलग कब्रिस्तान हैं। शिया और सुन्नियों के अलग कब्रिस्तान होने के बावजूद उसमें भी कई विभाजन हैं। भारत में जो दलित ईसाई या दलित मुसलमान हैं, उनके कब्रिस्तान अलग हो चले हैं। उसी तरह बैरागी, नाथ और गोसाईं समाज के समाधि स्थल अलग-अलग हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत में मुस्लिम कब्रिस्तान के लिए सरकार जगह उपलब्ध कराती है किंतु बैरागी, नाथ और गोसाईं समाज आज भी अपने लिए एक अलग समाधि स्थल के लिए लड़ाई लड़ रहा है। मजबूरन उन्हें अपने मृतकों को अपनी-अपनी निजी भूमि में समाधि देना पड़ती है। उक्त समाजों के लोग अपने मृतकों को बैठक समाधि देते हैं अर्थात उन्हें बिठाकर ही दफना दिया जाता है।
उधर अमेरिका में हॉलीवुड का अलग कब्रिस्तान है, जहां सिर्फ हॉलीवुड की मशहूर हस्तियों को ही दफनाया जाता है। इसी तरह दुनियाभर में अमीरों व प्रसिद्ध व्यक्तियों के अलग कब्रिस्तान विकसित हो गए हैं। धनाढ्य लोग अब तो पहले से ही कब्रिस्तान की जगह बुक करा लेते हैं। यह भी तय होने लगा है कि पति-पत्नी दोनों को पास-पास ही दफनाया जाए। पुर्तगाल के एक द्वीप को पूरी तरह से अमीर लोगों की कब्र के लिए ही विकसित किया गया है।
पहले कब्रिस्तान अव्यवस्थित-बंजर हुआ करता था, लोग वहां जाना पसंद नहीं करते थे। फिर धीरे-धीरे कब्रिस्तान में बगीचा विकसित किया जाने लगा। इसके पीछे तर्क दिया गया कि जहरीले पदार्थ और गैस को बगीचे में लगे पेड़-पौधे सोख लेंगे।
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दाह संस्कार : हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के लोगों को छोड़कर अन्य धर्म के लोगों के लिए जलाया जाना विभत्स तरीका लग सकता है। लेकिन जलाए जाने की परंपरा की शुरुआत बहुत ही सोच समझकर की गई। हिन्दुओं में साधुओं और बच्चों का दाह संस्कार नहीं किया जाता, लेकिन अन्यों का दाह संस्कार होता है। धर्मानुसार सूर्यास्त के बाद किसी को न समाधि दी जाती है और न ही उसका दाह संस्कार किया जाता है।
आत्मा जब देह से अलग होती है तो उसके मन में देह के प्रति आसक्ति और बढ़ जाती है। देह के मोह और उसके संस्कारों से जितनी जल्दी मुक्ति मिलेगी अगला जन्म उतना आसान होगा। इसीलिए दाह संस्कार के माध्यम से आत्मा की देह के प्रति आसक्ति को समाप्त कर दिया जाता है। जब आत्मा यह देखती है कि मेरी देह राख हो गई तब उसका ध्यान उस ओर से हट जाता है।
इतिहासकार मानते हैं कि मृतकों को जलाने की प्रथा यूनानी और पूर्व आर्यन लोगों ने शुरू की थी। जलाने को सभ्यतावश दाह-संस्कार या अग्नि-संस्कार कहते हैं। ये लोग मानते थे कि जलाने से आत्मा की देह के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है और इससे पृथ्वी को पर्यावरण के नुकसान से भी बचाया जा सकता है। इस कर्म से व्यक्ति की देह पंचतत्व में पूर्णत: लीन हो जाती है।
लेकिन जलाने का वीभत्स रूप जब हमें भारत के गंगा किनारे देखने को मिलता है, तो फिर इस कर्म को असभ्य करार देने में कोई हिचक महसूस नहीं करता। धर्म के जानकार लोग इसे धर्म-विरुद्ध मानते हैं।
हिन्दुओं में जलाने और दफनाने दोनों ही तरह की परंपरा प्रचलित है। हिन्दुओं के कई समाज ऐसे हैं, जो अपने मृतकों को दफनाते हैं। उदाहरण के लिए गोसाईं, नाथ और बैरागी समाज के लोग अपने मृतकों को समाधि देते हैं। इसके अलावा हिन्दुओं में बच्चों को दफनाए जाने का प्रचलन है।
बौद्धों में भी जलाने और दफनाने दोनों की ही परंपरा है, जो कि स्थानीय संस्कृति के रिवाज से आती है। सिखों में भी मृतकों को जलाया जाता है। धर्मज्ञ मानते हैं कि अच्छी तरह से लकड़ी की चिता बनाकर मृतक को उस पर लेटाकर और पूर्ण रीति-रिवाज से दाह-संस्कार करना ही श्रेष्ठ कर्म है, अन्य तरीके से दाह-संस्कार करना धर्म-विरुद्ध है।
एक सर्वे के अनुसार 25 प्रतिशत अमेरिकी दाह-संस्कार का तरीका अपनाते हैं। वे अंत्येष्टि स्थल की भट्टी में मृतक को डाल देते हैं। अंत में हड्डियों को निकालकर उसका चूरा बनाकर उसे कलश में रख दिया जाता है। वर्तमान में बॉक्स में रखकर मृतकों को इलेट्रॉनिक मशीन द्वारा राख में बदल दिया जाता है। भारत में इसे विद्युत शवदाहगृह कहा जाता है। भारत में भी ऐसा किए जाने का प्रचलन बढ़ रहा है। बुद्धिजीवी लोग मानते हैं कि शव के साथ किए जाने वाले वीभत्स और असभ्य व्यवहार में से एक यह भी है।
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मौत का मातम या उत्सव : वैसे तो सभी धर्मों में अपने परिजनों की मौत पर गम मनाने की परंपरा है। हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई आदि सभी में मौत का मातम मनाया जाता है, लेकिन सभी धर्मों के अंतर्गत कुछ ऐसे समाज हैं, जो धर्म के नियमों से हटकर भी कार्य करते हैं।
उनमें से कुछ समाज अपने परिजनों के मरने का गम मनाते हैं और कुछ समाज मौत का उत्सव मनाते हैं। गम मनाने के तरीके भी अलग-अलग हैं और उत्सव मनाने के तरीके भी भिन्न हैं, लेकिन इनमें एक बात समान है कि दोनों ही तरीकों में मृत्युभोज दिया जाता है।
उत्सव मनाने वाले लोग या समाज शराब पीना या नाचना, गाना आदि तरीके से उत्सव मनाते हैं। कुछ समाज नाचते-गाते ढोल-ढमाके के साथ शवयात्रा निकालते हैं। गम मनाने वाले समाज शवयात्रा में किसी भी प्रकार का शोर-शराबा नहीं करते और मुंडन कराकर 40 दिन या सवा माह तक घर में गमी का माहौल ही रखते हैं।
पश्चिमी मध्य चीन के दापाशान और वुलिंगशान पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित थु जाति में अंतिम संस्कार बड़े धूमधाम से किया जाता है। मृतक को विदाई देने के दौरान नाच-गाना और खान-पान चलता रहता है। ये लोग बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं, लेकिन स्थानीय प्रभाव के कारण यह प्रथा प्रचलन में है। इसी तरह दुनियाभर की कई जनजातियों व समाजों में मृत्यु का उत्सव मनाने की परंपरा है।
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अजीब रिवाज : सबसे वीभत्स यह कि प्राचीनकालीन मैक्सिको में लोग शव को कब्र से निकालकर उसके साथ दावत उड़ाते थे। दावत के बाद उसे फिर से दफना दिया जाता था। मूल अमेरिकी कबीलों में शव को खाकर खत्म कर दिया जाता था। विशेष रूप से उसका मस्तिष्क खा लिया जाता था। कुछ समाज के लोग शव को उबालकर उसका कंकाल बनाकर रख लेते थे।
जब कैमरे का आविष्कार हुआ तो अमेरिका और ब्रिटेन में मृतकों की तस्वीर उतारने का प्रचलन भी बढ़ गया, खासकर बच्चों की। लेकिन भारत और चीन में शवयात्रा या मृतकों के चित्र खींचना थोड़ा बुरा ही माना जाता है, किंतु राजनेताओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के शव पर ये बात लागू नहीं होती।
जल दाग : दूसरी ओर हिन्दुओं में जल दाग देने की प्रथा भी है जिसके चलते गंगा-यमुना में कई शव बहते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बांधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं। यह मृतकों के साथ किए जाने वाले अजीबोगरीब असभ्य तरीकों में से एक है।
हॉरर चित्रण : ईसा मसीह के जमाने से ही जिंदा लोगों को दफनाने या कब्र से जिंदा हो उठने का भय अभी भी व्याप्त है। एक उपन्यासकार ने कब्र से जिंदा निकल आए लोगों की दास्तान पर उपन्यास लिखकर भय को और बढ़ाया। हॉलीवुड में इस थीम को लेकर कई फिल्में भी बनीं।
क्रायोनिक्स : अमेरिकी और ब्रिटेन के कुछ समाज मानते हैं कि मृतकों को फिर से जिंदा किया जा सकता है। वे मानते हैं कि क्रायोनिक्स (Kryonics) मृतकों को जिंदा करने की एक संगीत तकनीक या विचार है। मृतकों को संलेपन कर ममी बनाकर रखने वाले इसी विचारधारा के हैं। बुद्धिवादियों के अनुसार यह एक कल्पना मात्र है।
वस्तु के साथ शव : कुछ लोग धार्मिक रीति से हटकर दफनाए जाने के तरीके ईजाद करते हैं। कोई अपने परिजन को कार के साथ दफनाता है तो कोई मोटरसाइकल के साथ। जिस व्यक्ति को जिस तरह का शौक था या जिसकी वह जीवनभर इच्छा करता रहा, उसे उस-उस वस्तु के साथ दफनाए जाने का प्रचलन भी बढ़ा है।
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मौत का व्यापार : अब मौत लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए एक बड़ा व्यापार बन चुकी है। अमेरिका में ताबूत को कैस्कट (Casket ) कहा जाता है। कैस्कट कई तरह की वैरायटी में मिलता है, जैसे अमेरिकन स्टाइल, यूरोपीयन स्टाइल आदि। ब्रिटेन में ताबूत को कोफिन (Coffin) कहा जाता है। ब्रिटेनी ताबूत भी कई प्रकार के होते हैं। जैसा दाम वैसा ताबूत।
शव को संलेपन (embalm) करने का तरीका भी अब कारोबार का रूप ले चुका है। सस्ते और महंगे सभी तरह के ताबूत और संलेपन उपलब्ध हैं।
दूसरी ओर अपने मृतकों का दाह-संस्कार करने वाले समाजों के लिए अब एक ही जगह पर अन्त्येष्टि का सामान उपलब्ध है। अच्छी किस्म की लकड़ी के दाम थोड़े महंगे हैं। मृतकों के साथ रखे जाने वाले परंपरागत सामान जैसे नए कपड़े, चांदी की सीढ़ियां, आंख में रखे जाने वाले सोने के मोती आदि। विद्युत शवदाह का प्रचलन भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। दूसरी ओर गंगा-यमुना के किनारे दाह करने वाले अब ज्यादा पैसे मांगने लगे हैं। बीच नदी में जाकर जल दाग देना है तो उसके महंगे दाम हैं।
अंतरिक्ष में अवशेष : पैसा है तो शव के अवशेषों (14 ग्राम) को अंतरिक्ष में भेजने की व्यवस्था भी कर दी जाएगी। ये अवशेष 30 से 40 साल तक पृथ्वी की कक्षा में घूमकर जब वायुमंडल में प्रवेश करते हैं तो जलते हुए बिखर जाते हैं। अमेरिका में ऐसी बहुत-सी संस्थाएं हैं, जो यह काम करवाने का दावा करती हैं।