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जेल की दीवारों के पार : कैदियों के अधिकारों का संरक्षण

जेल की दीवारों के पार : कैदियों के अधिकारों का संरक्षण - Indian prison, prisoners rights
नई दिल्ली। जेल व्यवस्था और कैदियों के अधिकारों को लेकर तिहाड़ जेल ने ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्‍स इनीशिएटिव और दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क ने 23 सितंबर 2017 को नई दिल्ली में संसद मार्ग स्थि‍त एनडीएमसी कन्वेंशन सेंटर में ए‍कदिवसीय सेमिनार का आयोजन किया।
 
इस आयोजन 'बियोंड प्रिजन वाल्स : कंवरजेशन ऑन प्रिजनर्स राइट्स' में कल्पना की गई थी कि एक ऐसा स्थान बनाया जाए, जहां आपराधिक न्याय और कैदियों तथा जेल व्यवस्था को चलाने वालों के चारों ओर से संबंधों को बना सकें।
 
इस अवसर पर एनसीटी दिल्ली के जेल विभाग के महानिदेशक सुधीर यादव ने कहा कि हमें उम्मीद है कि इस सेमिनार के जरिए कैदियों के सामने आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालने में सफल होंगे। तिहाड़ जेल में हमारा प्रयास कैदियों का सुधार करने, विस्थापित करने और समाज में फिर से जोड़ने का है। हमारा उद्देश्य रहा है कि प्रत्येक कैदी से उसकी गरिमा और सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए। हमें उम्मीद है कि जब वे समाज में वापसी करेंगे तो वे समाज को कुछ वापस देने में सक्षम होंगे।
 
वहीं कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्‍स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) ने निदेशक संजय हजारिका ने उद्‍घाटक सत्र में कहा कि इस सेमिनार का उद्देश्य हिरासत में रखे गए लोगों पर सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और जिम्मेदार लोगों को अन्याय के खिलाफ संवेदनशील बनाना है। इस सेमिनार का उद्देश्य व्यवस्था को त्रस्त करने वाले मुद्दों और मुकदमे से पहले और रिहाई के बाद की चिंताओं को लेकर संवाद के लिए लोगों की चेतना जगाना है। 
 
इस अवसर पर डॉ. मीरा सी. बोरवनकर, महानिदेशक, ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआर एंड डी) ने अपने बयान में कहा कि कैदियों के वही मानव अधिकार होते हैं, जो कि किसी अन्य नागरिक के। और जेल प्रशासन को इस तथ्य को आत्मसात करना चाहिए। एक खुला और पारदर्शी जेल प्रशासन एक सहयोगी नागरिक समाज की मदद से कै‍दी के सुधार और पुनर्वास का मार्ग प्रशस्त करता है। 
 
डिपार्टमेंट ऑफ सोशल वर्क की प्रोफेसर और हैड डॉ. नीरा अग्निमित्रा ने कहा कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुधारवादी समाज कार्य का कार्यक्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है। न्याय पालिका ने समय-समय पर सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका की अनिवार्यता पर जोर दिया है और विशेष रूप से जेल की स्थितियों के बारे में। दिल्ली विश्वविद्यालय के समाज कार्य विभाग को उम्मीद है कि इस सेमिनार के जरिए कैदियों के अधिकारों और जेल सुधार के क्षेत्र में संबंधित हिस्सेदारों में एक सार्थक संवाद पैदा करने के लिए एक विस्तृत संबंधों का पोषण होगा। 
 
कार्यक्रम के उद्घाटक सत्र में हमारे मुख्‍य अतिथि न्यायमूर्ति डॉ. बीएस चौहान, अध्यक्ष विधि आयोग, भारत ने जोर दिया कि सजा मिलने के बाद भी एक व्यक्ति भारत का नागरिक बना रहता है और उसके भी अधिकार होते हैं। जमानत पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि आपराधिक कार्यप्रणाली में संपन्न लोगों का विशेषाधिकार समाप्त होना चाहिए। यह विशेष रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 14 (भेदभावहीनता) के आलोक के वातावरण में हो।
 
दूसरे मुख्‍य अतिथि मनीष सिसोदिया (उपमुख्यमंत्री, दिल्ली सरकार) ने मौजूद कैदियों का स्वागत करते हुए अपना भाषण शुरू किया। उन्होंने कैदियों को विशेष व्यक्तियों की तरह संबोधित करते हुए कहा कि सभी व्यक्तियों के लिए गरिमा की आवश्यकता होती है। उन्होंने कहा कि वे इस कार्यक्रम के सुझावों को आगे ले जाने का प्रयास करेंगे। उन्होंने सीएचआरआई को बधाई दी और इस क्षेत्र में इसके कार्य को सराहा। उन्होंने यह जानकारी एक पत्रकार और एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर हासिल की।
 
दिन के पहले आधे भाग में वर्तमान जमानत प्रावधानों और इसकी परिपाटी पर एक पैनल (चर्चा करने वालों) ने विचार-विमर्श किया। साथ ही, विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित हाल ही में सुधारों और प्रावधानों के क्रियान्वयन की चुनौतियों और भावी परिवर्तनों पर चर्चा की। देश में जेल में बंद कैदियों में दो-तिहाई संख्या विचाराधीन कैदियों की होती है जिनके मामले में 'बेल इज द रूल, जेल एन एक्सेप्शन' (जमानत एक नियम है, जेल अपवाद है) का उल्लंघन होता है।
 
सेमिनार के दूसरे हिस्से में तिहाड़ के एक कैदी ने कहा कि जोखिम के निर्धारण की जरूरत पर विस्तृत चर्चा हुई और यही समय है, जब हम जमानत देने से समाज को होने वाले लाभों के बारे में बातचीत करें। कैदियों ने अधिकारियों, नागरिक समाज और मीडिया के साथ भी बातचीत की। इससे एक ऐसे मंच का निर्माण करने में मदद मिली, जहां जेल के कैदियों ने अपने शब्दों में अपनी चिंताओं को जाहिर किया। काफी समय तक बहुतों ने अपनी बात रखी। 
 
कैदियों के साथ प्राथमिक बातचीत में जो तीन मुद्दे उभरकर आए, वे इस प्रकार हैं- जेल में पहला दिन- 'क्या इस रात की सुबह होगी'। ज्यादातर कैदियों के लिए जेल में पहला दिन बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है। अकेलेपन और नाउम्मीदी के साथ कैदी अपने में ही खोया रहता है। इस सत्र के दौरान इस तरह के सवाल पूछे गए- उन्हें किस चीज से राहत मिलेगी? उनके लिए क्या-क्या सुरक्षाएं बरती जाती हैं? इस हालत में उनकी मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक हालत कैसी होती है? 
 
'हमारा संघर्ष यहां भी'- जेल के भीतर बच्चों और महिलाओं से जुड़े मुद्दे। 
 
महिला कैदी बहुत अधिक कमजोर होती हैं। वे सामाजिक-आर्थिक आधार पर कमजोर होती हैं। अक्सर ही उन्हें अपने परिवारों का सहारा नहीं मिलता है। महिलाओं की ये स्थितियां जेल में उनके जीवन पर भी प्रभाव डालती हैं। सीमित‍ शिक्षा और मजबूरी में दूसरों पर निर्भरता उनके लिए मुकदमे का सामना करने, वकीलों का सामना करने और कोर्ट में क्या होता है, को समझने में बहुत मुश्किल बना देती हैं। इसके लिए उनकी मानसिक स्वास्थ्य की विशेष जरूरतों पर ध्यान देना आवश्यक है। 
 
इस सत्र को सहज बनाने का काम भारत की प्रमुख जेल सुधार कार्यकर्ता और लेडी श्रीराम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग की प्रमुख डॉ. वर्तिका नंदा ने किया। इस सत्र में भाग लेने वालों में सहायक अधीक्षक तिहाड़ ज्योति चौधरी, अधीक्षक आशा ज्योति होम एंड बेगर होम, डिपार्टमेंट ऑफ सोशल वेलफेयर प्रियंका यादव, दिल्ली हाईकोर्ट की वकील अनु नरूला, डायरेक्टर इंडिया विजन फाउंडेशन मोनिका धवन, दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क की प्रो. माली सावरिया और महिला कैदी थीं। 
 
'एक दूसरा मौका'- रिहाई के बाद अवसरों की कमी और सामाजिक बदनामी से सामना। अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष जेल में बिताने के बाद रिहाई के बाद का जीवन बहुत ही चुनौतीपूर्ण हो सकता है। बंदी अवधि के मानसिक और शारीरिक प्रभाव और इसके साथ ही लगा बदनामी का धब्बा सुनिश्चित करता है कि जेल की सलाखों के बाद भी उन्हें 'सजा' मिलती रहती है।
 
इस सत्र के दौरान इन मुद्दों पर चर्चा की गई कि जेल के बाद चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्हें क्या चीज आत्मविश्वास देगी ताकि वे समाज में फिर से जुड़ने की चुनौतियों का सामना कर सकें? क्या समाज उनकी मदद के लिए तैयार होगा? नागरिक समाज उन्हें कैसे स्वीकार करेगा?
 
न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर, न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब मैंने पहली बार वर्ष 1993-94 में तिहाड़ का दौरा किया तब इसकी हालत 'बहुत खराब' थी। इसके बाद मैं दो बार और गया और तब मैंने इसमें बहुत सुधार पाया। उन्होंने वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग के महत्व को रेखांकित किया। उनका कहना था कि इसके जरिए जेलों से न्यायालयों को जोड़कर और प्रभावी बनाया जा सकता है और इसमें कानूनी सेवा से जुड़े अधिकारी और आपराधिक न्याय व्यवस्था से जुड़ी अन्य एजेंसियां भी मदद कर सकती हैं। करीब 1,400 जेल हैं और कोर्ट्‍स की संख्या बहुत ज्यादा है। उनका कहना था कि हम सभी जेलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग इकाइयों को लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
 
उन्होंने दूसरा बिंदु उठाते हुए कानूनी सहायता की विसंगतियों का मुद्दा उठाया। उन्होंने 'स्तरीय कानूनी सहायता' का मुद्दा उठाया और कहा कि नियमित तौर पर कैदियों और वकीलों के बीच वार्तालाप बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने विचाराधीन समीक्षा समि‍‍ति का मामला उठाया और कहा कि प्रत्येक माह में ऐसी बैठकें आयोजित किए जाने की जरूरत है और उन्होंने उम्मीद जताई कि इससे पहले से भरी जेलों पर बोझ कम होगा।
 
सेमिनार के दौरान क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, न्यायिक अधिकारियों, वकीलों, लोक अभियोजकों, सरकार और पुलिस अधिकारियों और कानूनी सहायता देने वाले पदाधिकारियों की विभिन्न एजेंसियों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया।
इस अवसर पर डॉ. वर्तिका नंदा ने जेल सुधारों पर अपनी किताब 'तिनका तिनका डासना' को सेमिनार के अंत में दोनों न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और सुधीर यादव डीजी तिहाड़ जेल को भेंट किया। तिनका तिनका... जेल सुधारों पर एक अद्वितीय श्रृंखला है जिसकी नींव वर्तिका नंदा ने रखी है और वे इसे चलाने का काम करती हैं।