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Last Updated :नई दिल्ली , रविवार, 23 जुलाई 2017 (12:29 IST)

नौकरीपेशा लोगों से अच्छी स्थिति में हैं भिखारी!

नौकरीपेशा लोगों से अच्छी स्थिति में हैं भिखारी! - Begar
नई दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की करीब डेढ़ प्रतिशत आबादी भिखारियों की है जिससे रोजाना आम लोगों का पाला पड़ता है, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इनमें से ज्यादातर की स्थिति उन डिग्रीधारी नौकरीपेशा लोगों से काफी अच्छी है, जो मेहरबानी कर उनके कटोरे में 1 रुपए का सिक्का डाल आगे बढ़ जाते हैं। 
 
गुलाब के फूलों के साथ नोएडा सेक्टर 15 मेट्रो स्टेशन के पास भीख मांगने बैठा बिहार के शिवहर जिले का 26 वर्षीय सुनील साहनी कहता है कि मेरे लिए कोई व्यवसाय महत्व नहीं रखता है, क्योंकि इससे भीख मांगने का मेरा काम बाधित होता है। मैं रोजाना 2 शिफ्टों में 1,200 से 1,500 रुपए कमा लेता हूं। 
 
सुनील इस पेशे से हर महीने 36 से 45 हजार रुपए कमा लेता है, जो उसे चंद सिक्के देने वाले कई नौकरीपेशा लोगों की कमाई से अधिक है। सुनील बचपन में पोलियो का शिकार हो गया था और फिलहाल वह दोनों पांव से लाचार है। उसके कंधों पर मां के अलावा छोटे भाई-बहन का जिम्मा है। वह कतई नहीं चाहता कि उसके छोटे भाई को यह दिन देखना पड़े। वह कहता है कि यह कोई सम्मानजनक काम नहीं है, जब चाहे कोई भी हमें धमकाकर चला जाता है।
 
कुछ भिखारी अपना नाम-पता जाहिर नहीं करना चाहते। गत 2 वर्षों से एक मेट्रो स्टेशन के बाहर बैठने वाले दोनों हाथों से दिव्यांग अशोक (नाम परिवर्तित) इसकी वजह बताते हुए कहते हैं कि एक तो मैं ब्राह्मण हूं, ऊपर से बहन की शादी भी करनी है। अगर सही पता- ठिकाना छप गया तो मेरी बहन से शादी कौन करेगा?" 
 
वैसे अशोक जहां बैठता है वहां सामान्य दिनों में 1 घंटे की आमदनी 70 से 100 रुपए है। कोई 7-8 साल पहले थ्रेशर में हाथ चले जाने और बाद में संक्रमण के कारण उसे अपने दोनों हाथ गंवाने पड़े। इलाज में 6 बीघा जमीन बिक गई और पौने 12 लाख रुपए खर्च हो गए, इसके बावजूद उसके हाथ बच नहीं सके। उसे पेट पालने के लिए भीख मांगने का विकल्प ही बेहतर नजर आया। 
 
अशोक ने अपनी मदद के लिए गांव के ही एक बेरोजगार युवक को बुलाया है। नारायण नामक युवक अब अशोक की हर जरूरत पूरी करता है और बदले में उसे मुफ्त में रहने के लिए कमरा मिला हुआ है। बीच के समय में वह अपनी रेहड़ी से कुछ कमाई भी कर लेता है। नारायण ने कहा कि मैं तो पूरी तरह संतुष्ट हूं। रोज 100 से 200 रुपए कमा लेता हूं, सो अलग।
 
इन भिखारियों से बातचीत से पता चलता है कि उन्हें परिवार की ओर से कोई मदद नहीं मिलती जिसके कारण उन्हें इस धंधे की ओर रुख करना पड़ता है। जन्म से अष्टावक्र दिव्यांग इरफान मलिक ने कहा कि हम 4 भाई हैं, लेकिन कोई किसी की मदद नहीं करता। सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी उठा रहे हैं। 
 
कुछ भिखारी ऐसे भी हैं, जो अपने पूरे परिवार के साथ भीख मांगते हैं। इनमें कई महिलाएं भी होती हैं, जो प्रतिदिन 250 से 300 रुपए कमा लेने का दावा करती हैं। एक मेट्रो स्टेशन पर अपने 2 बच्चों के साथ भीख मांग रही मध्यप्रदेश की कौशल्यादेवी ने कहा कि पति के दोनों पैर टूट गए हैं जिसके चलते हमें भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। 
 
एनसीआर में भीख मांगने के तरीके भी अजब-गजब के हैं। कुछ गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ) की ओर से कैंसर के इलाज के नाम पर चंदा वसूला जाता है। शनिवार के दिन मेट्रो स्टेशनों के आसपास तथा सीढ़ियों पर शनिदेव के चित्र और उनके पास तेल रखकर बड़े पैमाने पर पैसे एकत्र किए जाते हैं। इन स्थानों पर मांगने वाला कोई नहीं होता, बल्कि देने वालों के विवेक पर सब कुछ छोड़ दिया जाता है। 
 
एनसीआर के मेट्रो स्टेशनों के आसपास के रास्ते में भिखारियों की कतारें 'सजी' रहती हैं। इनमें बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के कम उम्र के लड़के-लड़कियों के भीख मांगने के दृश्य आम हैं। इनमें कइयों की स्थिति हृदयविदारक होती है, मसलन शरीर के किसी बड़े हिस्से की चमड़ी का जला होना, हाथ कटे होना और कभी-कभार नाक भी कटे होने जैसी भयानक स्थिति। 
 
अधिकतर भिखारी रोगी जैसे दिखते हैं। कुछ बाल भिखारी तो सामाजिक अपराध की उपज होते हैं, मसलन बच्चों को अगवा करके विकलांग बनाया जाता है और उन्हें भीख मांगने के लिए बाध्य किया जाता है। अब तो नई प्रवृत्ति उभरकर आई है। यहां 'दादा' भिखारी बाकायदा ठेका लेता है और अपने मातहत भिखारियों की जगह निर्धारित करता है। इस क्रम में वर्चस्व स्थापित करने के लिए हाथापाई या मारपीट का भी सहारा लेना पड़ता है। 
 
समाज के सबसे निचले पायदान पर जीने वाले इन व्यक्तियों को महानगरों के सौंदर्य में ग्रहण की तरह देखा जाता है इसलिए दिल्ली को भिखमंगों से मुक्त करने की मांग विभिन्न संगठनों द्वारा लगातार की जाती रही है। वयस्क भिखारियों को भीख मांगने के अपराध में सजा होती है और नाबालिग भिखारियों को सुधार गृह का रास्ता दिखाया जाता है, लेकिन क्या इससे उनके जीवन को कोई आधार मिलता है? आज जब वर्ग, समुदाय या जाति के राजनीतिक आधार, दबाव डालने की हैसियत से प्रशासनिक सुविधाएं तय होती हैं, तब क्या ये भिखारी दबाव समूह की भूमिका में आ सकते हैं।
 
एनसीआर क्षेत्र में भीख मांगने वाले एक दिव्यांग ने इस धंधे को छोड़ने का अपने परिवार का अनुरोध ठुकरा दिया। उसके चारों बेटे-बेटियां अच्छी जगह नौकरी कर रहे हैं या फिर अपने परिवार के साथ गुजर-बुसर करके सुखी जीवन जी रहे हैं। जैसा कि सुखराम (नाम परिवर्तित) कहता है कि चूंकि मेरा आधार ही इसी पर टिका है इसलिए मैं मरते दम तक इस धंधे को नहीं छोड़ूंगा।
 
हालांकि इनमें जन्म के 3 वर्षों के बाद अपने दोनों पैर गंवा चुका 27 वर्षीय बिहार के सहरसा जिले का सौदागर सिंह भी है, जो भीख के बजाए दूसरे धंधे को अहमियत देता है। उसने वजन मापने की एक मशीन रखी है जिससे प्रति व्यक्ति एक बार का 1 रुपया लेता है। सौदागर रोजाना 50 रुपए होने के बाद संतोष कर लेता है। इसके अलावा दिल्ली के कुछ दिलदार उसके संयम के कारण उसे अलग से 10-20 रुपए दे देते हैं। 
 
देश में कुल कितने भिखारी हैं, इसके सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। 'नारीजन' नामक एक स्वयंसेवी संस्था ने एक सर्वे में बताया है कि एनसीआर की 3 करोड़ आबादी में डेढ़ प्रतिशत भिखारी हैं। यह आबादी शरीर ढंकने वाला वस्त्र भी भिक्षा पात्र से हासिल करती है।
 
चिंताजनक बात यह भी है कि दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगता बचपन या तो नशीली दवाओं का शिकार हो रहा है या अपराधियों की गिरफ्त में आ रहा है। (वार्ता) 
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