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Written By WD

भगवा आतंक की तर्ज पर व्यापमं जांच

-अनिल सौमित्र

भगवा आतंक की तर्ज पर व्यापमं जांच -
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व्यापमं विवाद ने अनायास ही भगवा आतंक की याद ताजा कर दी है। दोनों मसलों में कुछ बातें समान दिखती हैं। दोनों प्रकरणों में जांच से ज्यादा ‘मीडिया ट्रायल’ है। दोनों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ निशाने पर दिखता है।

भगवा आतंक प्रकरण में मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार के बहाने संघ निशाने पर था, व्यापमं में स्व. श्री सुदर्शन और सुरेश सोनी के बहाने संघ टारगेट पर है। एक की जांच एनआईए कर रहा है, जबकि दूसरे की एसटीएफ। दोनों मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं, लेकिन दोनों में कांग्रेस और मीडिया अमर्यादित रूप से सक्रिय है। कांग्रेस ने इन दोनों मामलों में जांच व न्याय की प्रक्रिया और दिशा प्रभावित करने की बेजा कोशिश की है। संघ पर निशाना साधने वाला कोई और नहीं वही कांग्रेस है जो कभी केन्द्र की सत्ता में थी, लेकिन आज विपक्ष की हैसियत भी गंवा चुकी है।

चुनावी राजनीति में लुट-पिट गई कांग्रेस के पास राजनीतिक षड्यंत्र के सिवा कुछ भी नहीं बचा है। भगवा आतंक और व्यापमं जांच में कुछ असमानताएं भी हैं। वहां आतंक की घटनाएं थीं, यहां भ्रष्टाचार है। एक की जांच का आदेश केन्द्र की यूपीए सरकार ने दिया था, जबकि दूसरे की जांच मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने दिया है। दोनों ही प्रकरण दुर्भावना और दुर्भाग्यवश ओछी राजनीति के शिकार हो गए हैं। आतंक और भ्रष्टाचार के दोषियों की पहचान और सजा कांग्रेस की षड्यंत्रकारी राजनीति के दुष्चक्र में उलझकर रह गईं। गौरतलब है कि भगवा आतंक की जांच के दौरान भी भोपाल और मध्यप्रदेश, राजनीति, विवाद और मीडिया ट्रायल का केन्द्र बना था।

मीडिया में और मीडिया के लिए काम करते हुए भी संघ मीडिया से परहेज करता रहा है। यही कारण है कि संघ के अनेक वरिष्ठ पदाधिकारी मीडिया के लिए अपरिचित हैं, अनजान हैं। यही कारण है कि संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी अनेक महत्वपूर्ण कार्यों से जुड़े होने के बाद भी शायद पहली बार मीडिया के समक्ष आए और अपना बयान दिया। जो उन्होंने कहा, वह सिर्फ मीडिया और राजनीति के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने छोटे से बयान में कई पहलुओं और सवालों का जिक्र किया है।

सह-सरकार्यवाह के रूप में सोनी आरएसएस और भाजपा के बीच लंबे समय से समन्वय व मार्गदर्शन का काम भी करते रहे हैं। इस दरमियान कांग्रेस ही नहीं, बल्कि भाजपा के भी कई नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर कुठाराघात हुआ होगा। यह अस्वाभाविक नहीं है कि आरएसएस और सोनी, कांग्रेस और भाजपा के ही कई नेताओं की आंखों की किरकिरी बन गए। गत लोकसभा चुनाव में संघ ने जिस प्रकार जनजागरण के लिए योजना, रणनीति और क्रियान्वयन किया उसके परिणाम देश और दुनिया के सामने हैं।

राजनीति के जानकार और समीक्षक भी यह मानते हैं कि भाजपानीत एनडीए की सरकार और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में भाजपा से अधिक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका है। तब कांग्रेस का संघ से नाराज होना, क्रोधित होना, अपमान और कलंक के बीज बोना स्वाभाविक ही है, लेकिन संघ के इन प्रयासों से जिन भाजपा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और कुटिल प्रयासों को धक्का पहुंचा, वे भी संघ का नुकसान पहुंचाने में निष्क्रिय रहे, यह भी अस्वाभाविक है। सोनी का यह बयान कि व्यापमं मामले में संघ के पूर्व सरसंघचालक स्व. श्री सुदर्शन और उनका नाम आना किसी बड़ी राजनीतिक साजिश का हिस्सा है। साजिश के सूत्रधारों के बारे में पूछने पर उन्होंने नाम ढूंढने का काम मीडिया के हवाले कर दिया।

साजिश के सूत्रधारों का नाम बताना आवश्यक भी नहीं है, जबकि मीडिया का एक तबका स्वयं इस साजिश का हिस्सा हो। किसी प्रकरण की जांच या न्याय से राजनीतिक साजिश का कोई संबंध नहीं होता। ऐसी साजिश से तो बस तात्कालिक परिणामों की अपेक्षा होती है। मीडिया इसमें एक उपकरण की तरह उपयोग कर लिया जाता है। मीडिया के सहारे साजिशकर्ता लक्षित व्यक्ति और संगठनों की छवि धूमिल करता है, जांच की दिशा और निहितार्थ बदल देता है, आम जनता को भ्रमित कर देता है। चाहे संजय जोशी प्रकरण हो या तथाकथित भगवा आतंक अथवा व्यापमं घोटाले की जांच, सभी मामले राजनीतिक साजिश के तात्कालिक उद्देश्यों की भेंट चढ़ गए। संजय जोशी राजनीति के बियाबान में खो गए, भगवा आतंक के नाम पर असली आतंकी गुम हो गए, नकली पकड़े और प्रताडि़त किए गए, कहीं व्यापमं घोटाले का भी यही हश्र न हो जाए!

वर्तमान संघ प्रमुख ने पूरे मामले में संघ की संलिप्तता नकारते हुए कानून को अपना काम करने देने की अपील की। संघ के प्रचारक और भाजपा के महासचिव रहे विचारक गोविन्दाचार्य ने संघ और संघ पदाधिकारियों पर लग रहे आरोपों के पीछे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान का हाथ बताकर इस मामले को और तूल दे दिया है। बकौल गोविन्दाचार्य- शिवराज सिंह चैहान खुद पर और परिवार पर लग रहे आरोपों से ध्यान बंटाना चाहते हैं। सुरेश सोनी ने भी छह माह पुरानी एसटीएफ और अदालती कार्यवाई के बीच अचानक संघ के ऊपर लग रहे लांछन और आरोपों को राजनीतिक साजिश और षड्यंत्र कहा है। इस बीच पुलिस ने अधिकृत रूप से बयान जारी कर उपलब्ध दस्तावेजों और साक्ष्यों के हवाले से संघ या संघ के किसी पदाधिकारी की संलिप्तता को सिरे से खारिज कर दिया है। आरोपी मिहिर कुमार ने भी संघ पदाधिकारी के नाम उल्लेख करने संबंधी बयान को नकार दिया है।

व्यापमं घोटाला जांच संबंधी पूरे मामले पर सरसरी निगाह डालते ही राजनीतिक साजिश और मीडिया ट्रायल की बू आती है। मीडिया में मिहिर कुमार को पूर्व सरसंघचालक स्व. श्री सुदर्शन का ‘सेवादार’ बताया गया है। संघ में सेवादार जैसा कोई पद नहीं होता। हां! निज सहायक जरूर होते हैं, लेकिन मिहिर कुमार निज सहायक कभी नहीं रहे। सेवादार का आशय अगर सेवा और सहयोग करने वाले से है तो ऐसे सैकड़ों स्वयं सेवक ‘सेवादार’ के रूप में सुदर्शन के साथ रहे होंगे। यह बात किसी के भी गले नहीं उतरती कि सुदर्शन ने किसी परीक्षार्थी को इतना विस्तार से बताया होगा कि परीक्षा में जितना सही उत्तर आता हो लिखना, बाकी छोड़ देना। सुदर्शन से इतनी और ऐसी बात करने का साहस मिहिर जैसे कम उम्र के स्वयं सेवक तो क्या उनके परिवार के किसी सदस्य में भी नहीं होगा।

दिग्विजय सिंह, कटारे या मानक अग्रवाल जैसे नेता चाहें तो अपनी बयानबाजी से घृणा का पात्र भले ही बन जाएं, लेकिन संघ और स्व. श्री सुदर्शन के बारे में उनके बयानों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। जहां तक एसटीएफ का सवाल है, आज नहीं तो कल उसे यह जवाब देना ही होगा कि जिस प्रकरण की जांच वह उच्च न्यायालय की निगरानी में कर रहा है, उससे संबंधित दस्तावेज मीडिया को किसके इशारे पर कैसे उपलब्ध हुआ? क्या जांच संबंधी तथ्यों और दस्तावेजों को उजागर करना, मीडिया ट्रायल करना न्यायालय की अवमानना के दायरे में नहीं आता?

जब तक न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध न हो जाए, सजा न हो जाए, जांच एजेंसी का यह दायित्व नहीं है कि वह आरोपियों और साक्ष्यों को सुरक्षा प्रदान करे? मीडिया ट्रायल करना न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करना नहीं माना जाना चाहिए? सूत्रों के हवाले से प्रकाशित हो रही खबरों को एसटीएफ द्वारा नजरअंदाज करना, जांच से संबंधित चयनित तथ्यों को पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर मीडिया को उपलब्ध कराना राजनीतिक साजिश का हिस्सा ही माना जाएगा। ईमानदारी का अर्थ सिर्फ आर्थिक ईमानदारी नहीं होता। इसे व्यापक संदर्भों में देखा-परखा जाना चाहिए। एसटीएफ की ईमानदारी आर्थिक, नैतिक, कानून और नियमों की कसौटी पर भी परखा जाएगा। अभी तो एसटीएफ की जांच प्रक्रिया पर भी अंगुली उठने लगी है।

बहरहाल व्यापमं घोटाले का मामला अब राजनीतिक रंग ले चुका है। जांच प्रक्रिया न्याय पर सवाल उठने लगे हैं। प्रदेश में सरकार और संगठन पशोपेश में है। मामला जांच एजेंसी और न्यायालय से परे राजनीतिक दलों और मीडिया के दायरे में जा चुका है। देशी भाषा में कहें तो रायता फैल चुका है। संघ पर आरोपों के छींटे नहीं धब्बे लगाने की कोशिश हुई है। भले ही थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन आरोपों के ये दाग-धब्बे धुल जाएंगे। लेकिन क्या संघ इन साजिश के सूत्रधारों, षड्यंत्रकारियों और कालिखबाजों को ऐसे ही भुला देगा, बिना सबक दिए? बस देखना यही है कि संघ अपने ऊपर लगे दाग-धब्बों की कितनी जल्दी सफाई कर पाता है, और दाग-धब्बे देने वालों की कब और कैसी धुलाई करता है।
(लेखक मीडिया एक्टिविस्ट हैं)