शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By माँ अमृत साधना

स्वतंत्र इंडिया, परतंत्र भारत

स्वतंत्र इंडिया, परतंत्र भारत -
भारत की स्वतंत्रता का हीरक महोत्सव बड़े शान से मनाया जाएगा, उस समय हम सभी के भाव उत्तुंग होकर तिरंगे के साथ लहराएँगे। जैसे ही उत्सवांकित उफान खत्म हो जाएगा, पीछे खड़े दो खंडित हिस्से सिर उठाएँगे। वे दो खंड हैं भारत और इंडिया। भारत और पाकिस्तान के बीच की दरार तो शायद कभी मिट भी जाए, इंडिया और भारत के बीच की खाई मिटने के असार नजर नहीं आते।

क्या वजह है इस विरोधाभास की? क्या तरक्की के नए सोपान चढ़ने वाले इंडिया के पास इतनी फुरसत और संवेदनशीलता है कि वह अपने ही साये को देखने के लिए पल भर रुक जाए? भारत की इस असंतुलित प्रगति का बड़ा सटीक विश्लेषण ओशो ने किया है। शायद निगलने में कड़वा लगे, लेकिन है असरदार।

भारत को जब स्वतंत्रता मिली तब सभी स्वतंत्रता सेनानियों की चेतना एक ही दिशा में उन्मुख थी- अंग्रेजों को हटाओ। उसका रुख नकारात्मक था जो कि उस समय जरूरी था। आजादी की जंग में किसी ने यह नहीं सोचा कि यदि स्वतंत्रता मिल जाए तो हम क्या करेंगे? उसे कैसे निभाएँगे? और वाकई, अचानक स्वतंत्रता मिल गई। स्वतंत्र भारत के सामने जो नए प्रश्न खड़े होंगे, उनका कोई अंदेशा इन सेनानियों को नहीं था, और न ही उनके पास भारत के नव निर्माण का कोई कार्यक्रम था।

स्वतंत्रता एक ऐसी अदम्य प्यास है, जो हर किसी को होती है लेकिन स्वतंत्रता को संभालने के लिए जो परिपक्वता चाहिए, वह बहुत कम लोगों के पास होती है। ओशो ने स्वतंत्रता कोस तीन वर्गों में बाँटा है- नकारात्मक स्वतंत्रता, सकारात्मक स्वतंत्रता और विशुद्ध स्वतंत्रता।

नकारात्मक स्वतंत्रता है किसी चीज से मुक्ति पाना। कोई अवांछित घटना, वस्तु या व्यक्ति से मुक्ति पाने को स्वतंत्र होना कहा जाता है। अधिकतर स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले इसी प्रकार की स्वतंत्रता चाहते हैं। जीवन इतना दुखद है कि दुख से मुक्ति पाना व्यक्ति का अहम प्रयास होता है। राजनैतिक स्वतंत्रता इसी श्रेणी की है : बंधन से मुक्ति, दासता से मुक्ति। इसके लिए जो भी क्रांतियाँ की जाती हैं, वे जीतकर भी असफल होती हैं। क्योंकि दासता से मुक्ति हो गई, सत्ता आ गई, अब सत्ता पाने के बाद आगे क्या? सृजन की कोई समझ या प्रतिभा ऐसे लोगों के पास नहीं होती। स्वतंत्रता को संभालना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। जोखिम से भरा और उतना ही जीवन से लबालब।

दूसरी स्वतंत्रता है सकारात्मक। जैसे कोई इंसान चित्रकार बनना चाहता हो या कवि बनना चाहता हो और उसे अपने परिवार से संघर्ष करना पड़ता है, तकि उसे अपना शौक पूरा करने का अवसर मिले। तो यह सकारात्मक स्वतंत्रता है। इस व्यक्ति में बहुत-सी सृजनात्मक ऊर्जा है। उसे लड़ने में इतना रस नहीं है जितना कुछ निर्माण करने में है।

तीसरी स्वतंत्रता है विशुद्ध स्वतंत्रता या कहें आध्यात्मिक स्वतंत्रता। भारत की समूची प्रतिभा सदियों-सदियों से इसमें संलग्न थी। व्यक्तिगत मुक्ति ही ऋषियों का लक्ष्य था। यह किसी अप्रिय परिस्थिति से छुटकारा नहीं है बल्कि अपनी जन्मजात स्थिति को पाना है। भारत के सभी दर्शन और आध्यात्मिक प्रणालियाँ अत्यंतिक आत्मिक स्वतंत्रता की अभीप्सा से प्रेरित हैं।

स्व-तंत्र बड़ा ही खूबसूरत शब्द है। जिसने स्व का तंत्र पाया, वह है स्वतंत्र। क्या है स्व का तंत्र? तंत्र है तकनीक या ऐसी कुंजी जो आंतरिक संपदा का द्वार खोले। यह कुंजी कहीं बनी बनाई नहीं मिलती, यह हर एक को अपनी-अपनी गढ़नी पड़ती है। यह रेडीमेड नहीं है, कस्टम मेड है। जिसे यह तंत्र मिल गया, वह जिंदगी के तमाम बंधनों के बीच रहकर आजाद रहता है। वह मानो कीचड़ में रहते हुए खिलने का राज कमल से सीख लेता है। ऐसा निर्भय, निर्गुण, निरामय व्यक्ति है स्वतंत्र।

स्वतंत्रता बहुत बड़ा दायित्व है, फिर वह किसी भी तल पर हो। चाहे राजनैतिक, मानसिक या आत्मिक, स्वतंत्र होने का अर्थ है अपनी पूरी जिम्मेदारी उठाना। जो स्वतंत्र है, वह हारने के लिए स्वतंत्र है और जीतने के लिए भी, वह सुखी होने के लिए स्वतंत्र है और दुखी होने के लिए भी। अपनी दुर्गति के लिए वह किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकता। इसीलिए स्वतंत्र होने के लिए बहुत मजबूत कंधे चाहिए और प्रबल आत्मविश्वास, तभी वह स्वतंत्रता को कंधों पर संभाल सकता है।

इस मामले में यह देश लड़खड़ा गया है और वह आसेतु हिमाचल फैली हुई आबादी को साथ लेकर चल नहीं सका। उसके दो टुकड़े हो गए। इंडिया तो दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता चला गया और भारत अँधेरे में घिसटता रहा, पिछड़ता रहा। लेकिन हम नहीं भूलें कि भारत इंडिया का ही साया है। क्या इंडिया को अपने साये की फिक्र है? यदि नहीं है तो एक दिन साया इतना बड़ा हो जाएगा कि अपना वजूद प्रकट करके रहेगा।

ऐसे में क्यों न इस देश के जो भी खोजी व्यक्तिगत मुक्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं, वे इकट्ठे होकर अपनी आध्यात्मिक पूँजी को एकत्रित करें और इस पूरे देश को ही सामूहिक रूप से स्वतंत्र बना दें? यद्यपि यह स्वतंत्रता अलग किस्म की होगी। यह होगी गरीबों से, गंदगी से, अंधविश्वासों से, भ्रष्टाचार से और उन तमाम अँधेरों से, जो भारत को उपेक्षित साया बनकर जीने को बाध्य कर रहे हैं।

यदि इंडिया के लोग अपनी आर्थिक समृद्धि में मदहोश होकर अपनी मानसिक दरिद्रता को नहीं देख पा रहे हैं तो हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा उन्हें मानसिक तल पर आजाद करेगी। ताकि अपने ही साये के प्रति जड़ हुई उनकी मानसिकता हड़बड़ाकर जाग्रत हो जाए और आंतरिक फासलों को मिटाने की कोशिश करे। तभी हम वेदों का संदेश चरितार्थ कर सकते हैं : उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्तवरान्निबोधत।