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Last Updated : मंगलवार, 2 सितम्बर 2014 (20:40 IST)

न बुवाई, न कटाई, कैसे हो पेट की भरपाई

न बुवाई, न कटाई, कैसे हो पेट की भरपाई - न बुवाई, न कटाई, कैसे हो पेट की भरपाई
-सुरेश एस डुग्गर
अब्दुल्लियां (भारत-पाक सीमा)। न ही बुवाई, न ही कटाई तो कैसे हो पेट की भरपाई। सच में लगातार कई हफ्ते हो गए उन किसानों को अपने उन खेतों में गए हुए जो जीरो लाइन से सटे हुए हैं। सीमा के समझौते भी उन्हें अपने खेतों की मिट्टी को चूमने देने में सहायक नहीं हुए। कारण स्पष्ट है कि आज सीमा पर बुवाई, कटाई और पेट की भरपाई पाकिस्तानी सेना पर ही निर्भर हो चुकी है।
 
अक्सर यही होता है सीमा पर। किसी तरह से अगर सीमा समझौतों की आड़ में फसल बो भी ली जाए तो उसे काटने की हिम्मत जुटा पाना सीमांत क्षेत्रों के नागरिकों की बस की बात नहीं होती क्योंकि खेतों में जाने पर गोलियां उनका स्वागत करती हैं। ऐसे में खेतों का क्या होता है अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। फसलें खड़ी खड़ी ही सड़ जाती हैं। खेतों को किसान जोत सकें, अक्सर इसके लिए बीएसएफ को धमकीपूर्ण रवैया भी अपनाना पड़ता है। 
अधिक दिन नहीं हुए, पाकिस्तानी सेना ने गोलीबारी न करने के समझौते को तोड़ डाला इस सेक्टर में तो बीएसएफ कमांडेंट ने हिम्मत दर्शाई और पाकिस्तानी रेंजरों को धमकी दे डाली। अगर उन्होंने भारतीय किसानों पर गोली चलाई तो वे उनके किसानों को नहीं बख्शेंगें। हालांकि इस धमकी का असर अधिक दिनों तक नहीं चल पाया क्योंकि रेंजरों का स्थान पाक सेना के नियमित जवानों ने ले लिया जो ऐसी धमकी को धमाके में बदलने के लिए आतुर हैं।
 
स्थिति यह है कि कभी बुवाई के समय और कभी फसलों की कटाई के समय पाकिस्तानी बंदूकों के मुंह खुल जाते हैं। नतीजतन अगर फसल लग भी जाए तो उसे काट पाना संभव नहीं होता। परिणाम दोनों ही तरह से पेट की भरपाई प्रभावित होती है।
 
यही कारण है कि फसलों की बुवाई और कटाई पर जिन किसानों का जीवन निर्भर है उनके पेट की भूख की भरपाई अब पूरी तरह से पाकिस्तानी सैनिकों के रहमोकरम पर है। जिनके दिमाग पर युद्ध का साया ऐसा मंडरा रहा है कि वे बस दिन-रात गोलियों की बरसात कर उन सभी कदमों को रोक दे रहे हैं जो अपने खेतों की ओर बढ़ते हैं। ये कदम कभी अपनी पेट की भूख शांत करने की खातिर और कभी अपने जानवरों की भूख शांत करने की खातिर खेतों की ओर बढ़ते हैं।
 
कई बार समझौता हुआ किसानों पर गोली न चलाने का, परंतु समझौतों की परवाह कौन करता है। प्रत्येक समझौते का हश्र वही हुआ जो वायदों का होता आया है। कभी कोई समझौता एक दिन चला तो कभी पांच दिन। अभी तक रिकॉर्ड समझौते की सबसे कम उम्र थी तीन घंटे और अधिकतम मात्र छह दिन।
 
पहले तीन साल तो समझौतों के लिए पाक सैनिक तैयार ही नहीं हुए थे क्योंकि वे आक्रामक मुद्रा में थे और फिर जब भारतीय जवानों का रुख आक्रामक हुआ तो पाक सैनिक रास्ते पर आ गए क्योंकि मजबूरी में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सीमांतवासियों को निशाना बनाया था। अफसोस, पाक सैनिकों ने कभी समझौतों की लाज नहीं रखी। नतीजा हजारों हेक्टर भूमि बंजर। हजारों परिवार भूखो मरने की कगार पर। 
 
सरकार की उदासीनता का साया सीमा सुरक्षाबल के जवानों पर भी जो अभी भी, बावजूद इसके कि सीमा पर पाक सेना ने युद्ध से पूर्व के तूफान की मुर्दा खामोशी का वातावरण बना डाला है, सरकार की ओर से मिलने वाले संयम के निर्देशों का पालन कर रहे हैं।
 
स्थिति यह है कि पाक सेना की बढ़ी गतिविधियों का करारा जवब देने के पूर्ण निर्देश न होने के कारण नागरिकों के गुस्से का सामना भी सैनिकों को करना पड़ रहा है जो आप यही चाहते हैं कि सरकार की ओर से उन्हें सभी प्रकार की 'उल्लंघना' करने की अनुमति नागरिकों की खातिर दी जाए।