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Written By वार्ता

एक महीने बाद मनाई जाती है दीपावली

एक अनोखी दीवाली

एक महीने बाद मनाई जाती है दीपावली -
पूरे देश में रोशनी का त्योहार दीपावली जहाँ कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती है, वहीं उत्तराखंड में देहरादून जिले के जौनसार बावर और टिहरी, गढ़वाल एवं उत्तरकाशी जिले के रवांई क्षेत्र में एक महीने बाद मार्गशीष (अगहन) मास की अमावस्या को मनाई जाती है।

भारत भूमि की उत्तर दिशा में बसा उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए दुनियाभर में विख्यात है। यहाँ स्थित देश के सिरमौर पहाड़ों के राजा हिमालय की बर्फ से ढँकी चोटियाँ, ऊँचे पर्वत शिखर तथा उनके बीच मौजूद गहरी घाटियाँ, कल-कल बहती नदियाँ सदैव हर किसी को आकर्षित करती हैं साथ ही यहाँ के रीति-रिवाज, खान-पान, मेले, त्योहार, रहन-सहन एवं बोली-भाषा हमेशा ही संस्कृति प्रेमियों के लिए शोध का विषय रहे हैं।

देश के लोग जब कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीपावली का जश्न मनाने में मशगूल रहते हैं वहीं टिहरी, गढ़वाल और उत्तरकाशी के रवांई एवं देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की भाँति अपने काम-धंधों में लगे रहते हैं। उस दिन यहाँ कुछ भी नहीं होता है।

इसके ठीक एक महीने बाद मार्गशीष, अगहन, अमावस्या को यहाँ की दीपावली मनाई जाती है और यह चार-पाँच दिनों तक मनाई जाती है। इसे यहाँ पहाड़ी दीपावली देवलांग के नाम से जाना जाता है।

इन क्षेत्रों में दीपावली का त्योहार एक महीने बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता है, लेकिन इसके कुछ कारण भी लोग बताते हैं। कार्तिक महीने में किसानों की फसल खेतों और आँगन में बिखरी पड़ी रहती है, जिस कारण किसान अपने काम में व्यस्त रहते हैं और एक महीने बाद किसान सब कामों से फुरसत में होकर घर बैठता है। इसी कारण यहाँ दीपावली मनाई जाती है।

कुछ लोगों का कहना है कि लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त कर रामचन्द्रजी कार्तिक महीने की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे और इस खुशी में वहाँ दीपावली मनाई गई थी, लेकिन यह समाचार इन दूरस्थ क्षेत्रों में देर से पहुँचा इसलिए अमावस्या को ही केंद्र बिंदु मानकर ठीक एक महीने बाद दीपोत्सव मनाया जाता है।

एक अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी आदमी ने वीर माधोसिंह भंडारी की झूठी शिकायत की थी, जिस पर भंडारी को तत्काल दरबार में हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी।

रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राज दरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक महीने बाद भंडारी के वापस लौटने पर अगहन के महीने में अमावस्या के दिन दीपावली मनाई गई।

ऐसा भी कहा जाता है किसी समय जौनसार-बावर क्षेत्र में सामूशाह नामक राक्षस का राज था जो बहुत निर्दयी तथा निरंकुश था। उसके अत्याचार से क्षेत्रीय जनता का जीना दूभर हो गया था। तब पूरे क्षेत्र की जनता ने अपने ईष्ट महासू देवता से उसके आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। महासू देवता ने लोगों की करुण पुकार सुनकर सामूशाह का अंत किया। उसी खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है।

शिवपुराण एवं लिंग पुराण की एक कथानुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर आपस में द्वंद्व होने लगा और वे एक दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी-देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की।

शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग (महाग्नि स्तंभ) के रूप में दोनों के बीच खडे़ हो गए। उस समय आकाशवाणी हुई की तुम दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वही श्रेष्ठ होगा।

ब्रह्माजी ऊपर को उडे़ और विष्णुजी नीचे की ओर। कई सालों तक वे दोनों खोज करते रहे, लेकिन अंत में जहाँ से खोज में निकले थे वहीं पहुँच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई हमसे भी श्रेष्ठ (बड़ा) है। जिस कारण दोनों उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे।

यहाँ महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे, इस कारण वहाँ दीपावली नहीं मनाई गई। जब वे युद्ध जीतकर आए तो खुशी में ठीक एक महीने के बाद दीपावली मनाई गई और यही परंपरा बन गई।

कारण कुछ भी हो, लेकिन यह दीपावली जिसे यहाँ नई दीवाली भी कहा जाता है, जौनसार, बावर के चार-पाँच गाँवों में मनाई जाती है। वह भी महासू देवता के मूल हनोल व अटाल के आसपास।

यहाँ एक परंपरा और है कि महासू देवता जो हमेशा भ्रमण पर रहते हैं तथा अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों में 10-12 सालों के बाद ही पहुँच पाते हैं। जिस गाँव में महासू देवता विश्राम करेंगे वहाँ उस साल नई दीवाली मनाई जाएगी, बाकी संपूर्ण क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली ही मनाई जाएगी।

वैसे तो एक महीने बाद (मार्गशीष) अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में यहाँ से लगे टिहरी के जौनपुर ब्लॉक, थौलधार, प्रतापनगर, उत्तरकाशी के रवांई, चमियाला, रूद्रप्रयाग तथा कुमाऊँ के कई इलाकों में मनाई जाती है। अन्य जगहों में दीपावली मनाने के जो भी कारण हों यहाँ बिलकुल भिन्न हैं।

यहाँ की दीपावली में न पटाखों का शोर, न बिजली के बल्बों व लड़‍ियों की चकाचौंध, न ही मोमबत्तियों की जगमगाहट होती है, बल्कि बिलकुल सामान्य तरीके से यहाँ आज भी दीपावली मनाई जाती है।

यह त्योहार वैसे तो अमावस्या से जुड़ा है, पर इसकी शुरुआत चतुर्दशी की रात से ही हो जाती है। इस रात सारे गाँव के लोग एक निश्चित जगह पर इकट्ठे होते हैं, वहाँ पर (ब्याठे) भीमल की छाल उतरी डंडिया, जलाकर पारंपरिक गीत गाते हैं जिन्हें (हुलियत) कहा जाता है।

बाजगी, गाँव में ढोल बजाने वाला अपने घर में कई दिन पहले जौ बोकर हरियाली तैयार करता है जिसे स्थानीय लोग दूब कहते हैं।

अमावस्या की रात को गाँव के सभी नर-नारी, बच्चे, बूढ़े़, पंचों को आँगन में इकट्ठा कर अपना पारंपरिक लोक नृत्य करते हैं तथा लोकगीत के माध्यम से अपने ईष्ट महासू देवता की आराधना करते हैं।

चतुर्दशी की भोर से प्रत्येक दिन चार बजे प्रातः जागकर अपने घर से व्याठे जलाकर निश्चित स्थान पर पहुँचते हैं तथा उजाला होने तक नृत्य एवं गीतों का दौर चलता रहता है। दीपावली के अंतिम दिन हमेशा की भाँति सुबह चार बजे सभी एकत्र होते हैं और उजाला होने पर अपने-अपने घरों को जाते हैं।

स्नान आदि से निवृत होकर सभी लोग एक जगह इकट्ठे होकर पूरे गाँव में बधाई देने को निकलते हैं। पुरुष, महिला, बालक, बालिका सभी अलग-अलग समूहों में निकलते हैं। इसी दिन यहाँ भिरूडी भी मनाया जाता है इसमें हर परिवार से 108 दाने अखरोट के माँगे जाते हैं। ये सभी को देने होते हैं।

जिनके घर में उस वर्ष लड़के का जन्म हुआ हो वह 200 दाने देगा ऐसा नियम है तथा उसका पालन भी होता है। यही दिन सर्वाधिक महत्व का होता है। दोपहर तीन बजे से ही लोग पंचों के आँगन में घिरने लगते हैं।

इसमें व्‍यवस्थानुसार बच्चे अलग, औरतें अलग, बूढ़ी महिलाएँ अलग तथा मर्द अलग रहते हैं। बूढ़ी महिलाओं को पहले ही उनका हिस्सा दिया जाता है। फिर अखरोटों की बरसात होती है और सभी लूटने के लिए उन पर टूट पड़ते हैं। चारों तरफ ऊँचे स्थानों से अखरोट फेंके जाते हैं। यह बेहद रोमांचकारी दृश्य होता है।

भिरूड़ी कार्यक्रम के बाद उसी स्थान पर बाजगी सभी लोगों के सिर में दूब लगाता है। इस क्रिया को हरिपाडी कहा जाता है। उसके पश्चात नृत्य किया जाता है। बीच में दो तलवारबाज एक-दूसरे पर प्रहार व बचाव करते हैं। यह इस समाज में युद्धप्रेमी होने की भावना को उजागर करता है। नृत्य में भी संघर्ष और बचाव यह साबित करता है कि यहाँ के लोग अपनी सुरक्षा के लिए सदैव संवेदनशील रहते हैं।

अँधेरा होने के बाद सभी लोग ढोल के साथ नाचते हुए गाँव के भ्रमण पर निकल पड़ते हैं। गाँव के चारों ओर होते हुए फिर उसी जगह पर पहुँचते हैं। इसे यहाँ मौव कहा जाता है। यहाँ पहुँचते ही सभी परिवारों के बडे़ भाई एक तरफ और छोटे भाई दूसरी तरफ खडे़ होते हैं और उनमें रस्साकशी होती है।

संघर्षपूर्ण वातावरण रहता है। फिर से नाच और गीतों का दौर चलता है। भोजन आदि के बाद फिर सभी एकत्र होते हैं और अब बारी आती है 20 फीट ऊँचे हाथी के नचाने की।

इस विशालकाय हाथी पर गाँव का मुखिया सवार रहता है जिसके दोनों हाथों में तलवारें होती हैं जिन्हें वह रणक्षेत्र की भाँति घुमाता रहता है। हाथी को गाँव के 10-12 हट्टे-कट्टे नौजवान कंधों पर उठाए इधर-उधर पूरे आँगन में नचाते रहते हैं।

इनके थकने पर बीच-बीच में गाँव के ही कलाकार हास्य नाटक पेश कर मनोरंजन करते हैं। पूरी रात नृत्य, गीतों तथा संगीत को समर्पित रहती है जिसमें मुख्यतः ईष्ट महासू देवता की आराधना वीर रस और श्रृंगार रस के गीत होते हैं। इनमें एक गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं: वरमे ना जाई विरैसु वरमे जाई रै, सोडा तामी बहणो देया तु विरस छेवे लाइया।

पारंपरिक गीत में विरसू नामक महासू देवता का भंडारी यमुना नदी को पार करते समय बह जाता है जिसे एक मछली निगल लेती है और वह मछली दिल्ली में एक मछुआरे द्वारा पकड़ी जाती है।

वह उस मछली को एक व्यापारी को बेचता है लेकिन वह व्यापारी भी महासू देवता का भक्त था। हनोल स्थित मंदिर के लिए वह अनाज तथा नमक आदि भेजता था। उसकी संतानें आज भी इस परंपरा को निभाती हैं।

रातभर नृत्य के बाद आठ दिनों से भिगोए धान से तैयार च्यूडा को प्रसाद के रूप में सभी एक-दूसरे को देते हैं। आधुनिक युग की फटाफट जिंदगी का असर यहाँ भी पड़ा है, लेकिन फिर भी यहाँ अभी तक यह संस्कृति बची हुई है। नौकरीपेशा लोग इस दीपावली में आज भी सपरिवार घर पहुँच जाते हैं।