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Last Modified: मंगलवार, 11 अगस्त 2020 (21:38 IST)

कभी साइनबोर्ड पेंटर थे राहत इंदौरी, हालात से लड़कर पाया शायरी में ऊंचा मुकाम

कभी साइनबोर्ड पेंटर थे राहत इंदौरी, हालात से लड़कर पाया शायरी में ऊंचा मुकाम - rahat indori was a sign board painter in his early days
इंदौर। मशहूर शायर राहत इंदौरी (Rahat Indori) का शहर के अरबिन्दो अस्पताल में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उन्हें मंगलवार को ही कोरोनावायरस (Coronavirus) संक्रमण के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

राहत इंदौरी का निधन होने के बाद अदब की मंचीय दुनिया ने वह नामचीन दस्तखत खो दिया है जिनका काव्य पाठ सुनने के लिए दुनियाभर के मुशायरों और कवि सम्मेलनों में लोग बड़ी तादाद में उमड़ पड़ते थे। हालांकि यह बात कम ही लोग जानते होंगे कि एक जमाने में वे पेशेवर तौर पर साइनबोर्ड पेंटर थे।
 
इंदौरी के परिवार के करीबी सैयद वाहिद अली ने पीटीआई को बताया कि शहर के मालवा मिल इलाके में करीब 50 साल पहले उनकी पेंटिंग की दुकान थी। उस वक्त वे साइन बोर्ड पेंटिंग के जरिए आजीविका कमाते थे। 
 
अली ने बताया कि उर्दू में ऊंची तालीम लेने के बाद इंदौरी एक स्थानीय कॉलेज में इस जुबान के प्रोफेसर बन गए थे, लेकिन बाद में उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और वे अपना पूरा वक्त शायरी और मंचीय काव्य पाठ को देने लगे थे।
 
अपने 70 साल के जीवन में इंदौरी पिछले साढ़े चार दशक से अलग-अलग मंचों पर शायरी पढ़ रहे थे। उन्होंने कुछ हिन्दी फिल्मों के लिए गीत भी लिखे थे। लेकिन बाद में फिल्मी गीत लेखन से उनका मोहभंग हो गया था।
 
इंदौरी का असली नाम 'राहत कुरैशी' था। हालांकि इंदौर में पैदाइश और पलने-बढ़ने के कारण उन्होंने अपना तखल्लुस (शायर का उपनाम) 'इंदौरी' चुना था। उनके पिता एक कपड़ा मिल के मजदूर थे और उनका बचपन संघर्ष के साए में बीता था।
 
अली ने बताया कि इस संघर्ष ने इंदौरी की शायरी को नए तेवर दिए। वे हालात से लड़ते हुए शायरी की दुनिया में सीढ़ी-दर-सीढ़ी आगे बढ़ते रहे। 
 
इस बात का सबूत इंदौरी के इस शेर में मिलता है- 'शाखों से टूट जाएं, वो पत्ते नहीं हैं हम, आंधी से कोई कह दे कि औकात में रहे।'  इसी तासीर का उनका एक और शेर है- 'आंख में पानी रखो, होंठों पर चिंगारी रखो, जिंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।' 
 
इंदौरी की शायरी अलग-अलग आंदोलनों के मंचों पर भी गूंजती रही है। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी (एनपीआर) के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले लोगों के लिये उनका मशहूर शेर- 'सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।', जैसे कोई नारा बन गया था।
 
सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरोध में देशभर में हुए धरना-प्रदर्शनों से लेकर सोशल मीडिया की अभिव्यक्तियों में इस शेर का खूब इस्तेमाल किया गया था।
 
इंदौरी के करीबी लोग बताते हैं कि पिछले कुछ बरसों में वे दुनियाभर में लगातार मंचीय प्रस्तुतियां दे रहे थे और अपने इन दौरों के कारण गृहनगर में कम ही रह पाते थे।
 
बहरहाल, कोविड-19 के प्रकोप के कारण वे गुजरे साढ़े चार महीनों से उस इंदौर के अपने घर में रहने को मजबूर थे जो देश में इस महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में शामिल है।
 
इंदौरी ने अपनी मशहूर गजल 'बुलाती है, मगर जाने का नईं (नहीं)" का एक शेर 14 मार्च को ट्वीट किया था- "वबा फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नईं....."
 
इंदौरी ने अपने इस ट्वीट के साथ "कोविड-19" और "कोरोना" जैसे हैश टैग इस्तेमाल करते हुए यह भी बताया था कि वबा का हिन्दी अर्थ महामारी होता है।
 
कोविड-19 की महामारी से इंदौरी के निधन से देश-दुनिया में उनके लाखों प्रशंसकों में शोक की लहर फैल गई है और उन्हें सोशल मीडिया पर भावभीनी श्रद्धांजलि दी जा रही है। (इनपुट भाषा)
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