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नरेन्द्र मोदी के लिए क्यों निर्णायक होगा 2015...

नरेन्द्र मोदी के लिए क्यों निर्णायक होगा 2015... - Narendra Modi
इस बात को लेकर किसी को कोई भी संदेह नहीं होगा कि भारत में वर्ष 2014 के दौरान यदि किसी एक आदमी का सर्वाधिक प्रभाव रहा तो वह व्यक्ति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। लेकिन इस बात से यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या वे वर्ष 2015 के दौरान भी पिछले वर्ष की भांति प्रभावी और निर्णायक सिद्ध होंगे? फिलहाल तो हम इस बात को लेकर कोई भी बात को सुनिश्चित तरीके से नहीं कह सकते हैं। इस प्रश्न का जवाब पाने के लिए हम उनकी उपलब्धियों की चर्चा कर सकते हैं। पर मई 2014 में चुनावों में आश्चर्यजनक जीत के बाद मोदी अपनी पार्टी के लिए राज्यों के चुनाव जीतते रहे हैं। हाल ही में, उन्होंने पार्टी को झारखंड विधानसभा के चुनावों में सफलता दिलाई है और इसके साथ ही नीतिगत मामलों में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के महत्व को फिर से बहाल किया है।
 
विदेश नीति के मामलों में उन्होंने खास सफलताएं हासिल की हैं। अपनी सरकार से जुड़े सभी मामलों में उनकी सबसे बड़ी और चमकदार सफलताएं इसी क्षेत्र से रही हैं। प्रतिरक्षा और रेलवे के मामलों में उन्होंने दो काबिल मंत्रियों- मनोहर पर्रिकर और सुरेश प्रभु की नियुक्तियां की हैं। पर जहां तक सरकार के कामकाज की बात है तो अभी भी कहा जा सकता है कि सरकार के वायदों और कामकाज के बीच बहुत बड़ा गैप है, जिसे भरे जाने की जरूरत है।
 
कुछ नीतियों को लेकर उन्होंने साहसिक शुरुआत भी की है और इसी के तहत उन्होंने मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान आदि की शुरुआत की। इसी तरह संसद के मामले में भी उन्होंने कुछ कानूनी समस्याओं को सुलझाने के लिए न्यायाधीश नियुक्ति बिल, श्रम कानूनों में बदलाव किए और स्माल फैक्टरीज बिल भी लाया गया। पर्यावरण और अन्य मामलों के लिए भी उन्होंने अध्यादेशों का सहारा लिया और इन परिवर्तनों का असर आने वाले समय में महसूस किया जाएगा।  
 
लेकिन, अब तक की उनकी बड़ी घोषणाएं उनके ऊंचे सपनों के बारे में जरूर बताते हैं, लेकिन जहां तक वास्तविक उपलब्धियों की बात है तो इस मामले में बहुत कम और थोड़ा ही किया जा सका है। अब तक किसी प्रकार के युगांतरकारी कानून के पास होने का समय नहीं आया है। जो भी कुछ किया गया है या हुआ है वह थोड़ा और कम महत्वपूर्ण ही कहा जा सकता है। लेकिन इस स्थिति के बहुत से कारण भी रहे हैं क्योंकि मई में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी को राज्य विधानसभा के चुनावों का सामना करना पड़ा है और यह क्रम फरवरी, 2015 तक चलेगा क्योंकि तब दिल्ली विधानसभा के चुनाव होंगे। साथ ही, अब तक जो बात देखने में आई है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि मोदी वर्ष 1991 के एक साथ और धमाकेदार परिवर्तनों की बजाय धीरे-धीरे परिवर्तनों को पसंद करते हैं। तीसरी अहम बात यह है कि जब वे बीमा और जीएसटी पर कुछ नए कानूनों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते रहे हैं, संघ परिवार के कुछ तत्व उनके लिए समस्याएं पैदा करते रहे हैं। ये तत्व मीडिया में धर्म परिवर्तन और गोडसे जैसे मुद्दों को उछालते रहे हैं। इस तरह ये लोग मोदी की राह को मुश्किल बनाने के काम में लगे हुए हैं।   
 
इन्हीं कारणों से वर्ष 2015 मोदी सरकार के लिए निर्णायक और प्रभावी होने वाला है जो कि उनके लिए करो या मरो की स्थिति को पैदा करेगा। अगर इन प्रतिगामी तत्वों का नकारात्मक असर आगे भी चलता है तो मोदी के लिए लोगों को काम करने के मोर्चे पर कुछ करके दिखाना मुश्किल होगा क्योंकि अभी तक तो उन्होंने अपने मतदाताओं को केवल वायदे ही किए हैं। उन्हें उस विकासवादी मसीहा की छवि को सार्थक बनाना होगा, जिसका उन्होंने सार्वजनिक मंचों से प्रचार-प्रसार किया है।
 
इसलिए अब यह जरूरी हो गया है कि मोदी अपने नियंत्रण में आने वाली सारी शक्तियों को प्रयोग में लाएं और इसके बल पर अपने सहयोगियों, विरोधियों को धमकाएं, दबाव में लाने का काम करें और उन कानूनी उपायों को अमल में लाएं जिनके बल पर वे विधायी कदमों को उठा सकें। पर अगर वे कानून के बल पर इन कदमों को नहीं उठाते हैं तो उनकी परिवर्तन करने की गति पर उल्टा असर पड़ेगा और उन्हें अधिकाधिक ऐसी ताकतों से दो चार करना पड़ेगा जोकि उनके कदमों को रोकना चाहती हैं।
 
इसके साथ ही, उन्हें 2015 की समाप्ति तक फिर से राज्यों के विधानसभा चुनावों से जूझना पड़ेगा। विदित हो कि वर्ष 2015 की समाप्त‍ि पर बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं और अगले साल यानी 2016 में तमिलनाडु और बंगाल के चुनाव आ जाएंगे। इनके बाद सबसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के चुनाव 2017 में आ जाएंगे। वर्ष 2015 ऐसा राज्य होगा, जिसमें मोदी को यह निश्चित करना होगा कि क्या वे देश की अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए तैयार हैं। इसके लिए उन्हें अपने राजनीतिक दल की साख और ताकत को भी दांव पर लगाना होगा और अगर उन्हें 'विकास पुरुष' की छवि को बनानी है तो उन्हें संघ परिवार के कट्‍टरवादी तत्वों से छुटकारा पाना होगा जो कि उनकी छवि में पलीता लगाने के लिए तैयार बैठे लगते हैं। हमेशा की भांति इस बार भी सरकार के हनीमून पीरियड को लेकर है। सरकार के कामकाज को परखने के लिए आमतौर पर छह माह का समय दिया जाता है और मोदी सरकार को अपनी शुरुआत करने के लिए यह समय मिल चुका है। 
 
उनकी सरकार का हनीमून पीरियड लम्बा हो सकता था, लेकिन संघ के कट्‍टरपंथी तत्वों की अड़ंगेबाजी भी जारी रहेगी लेकिन इस दौर में भी आलोचक उनकी सरकार को संदेह का लाभ नहीं देंगे और इस अवधि में सरकार के मित्र भी कड़ा रुख अपना सकते हैं। सभी राजनीतिज्ञों की तरह से मोदी ने भी एक बड़ी गलती की है क्योंकि वे कठिन कामों को पूरा करने के लिए बहुत अधिक इंतजार रहे हैं। जबकि सबसे अच्छी बात तो यह होती कि वे प्रधानमंत्री पद पर निर्वाचित होने के पहले 90 दिनों के भीतर अपने विधायी एजेंडा के सबसे कठिन हिस्से को पास करवा लेते। लेकिन अभी तक वे केवल नेशनल जूडिशियल अपाइंटमेंट्‍स कमीशन बिल को पास करवा सके हैं, लेकिन इसके साथ भी मुश्किल यह है कि अभी भी उन्हें 15 राज्यों की स्वीकृति लेनी है क्योंकि तभी एक संविधान संशोधन अधिनियम को पास किया जा सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार के लिए सभी कुछ खत्म हो गया है क्योंकि लोगों की सहानुभूति अभी भी मोदी सरकार के साथ बनी हुई है। अपने इन कानूनों को वे जून 2015 तक पास करवा सकते हैं लेकिन इसका अर्थ है कि उन्हें बहुत तेजी से काम करना होगा और वे समय नष्ट करने की लक्जरी का आनंद नहीं ले सकते हैं।   
 
अरुण जेटली के नेतृत्व में बना मोदी सरकार का आम बजट कोई खास प्रभावी नहीं था, लेकिन उनके अगले बजट से उम्मीद की जा रही है कि यह बहुत से मामलों में लीक से हटकर होगा। उनके इस बजट पर भी निर्भर करेगा कि वे अर्थव्यवस्‍था की जिंदादिली को फिर से जीवित कर सकते हैं। पर बजट से ज्यादातर मनी बिल्स से अलग कानूनों को पास कराने की गारंटी नहीं मिल सकती है। सरकार को कम से कम चार या पांच कानूनों को बनाना होगा तभी यूपीए सरकार के अंतिम 4-5 वर्षों की अर्थव्यवस्‍था से मुक्ति पाई जा सकती है। इसके लिए भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करने होंगे।
 
ये सुधार भी करने होंगे नरेन्द्र मोदी सरकार को... पढ़ें अगले पेज पर...

इसके अलावा बीमा बिल, गुड्‍स एंड सर्विसेज टैक्स, कंपनी कानून समेत अन्य कानूनों में वांछित सुधार करने ही होंगे। अगर इन्हें बजट सत्र में पास नहीं किया जा सका तो ये स्थायी रूप से राजनीति के बंधक बने रहेंगे। राज्यसभा में सरकार की स्थिति कमजोर है क्या मोदी इस अवरोध पर काबू पाने के उपाय रखते हैं। पर अगर इस स्थिति को काबू में लाने के लिए साम-दाम-दंड और भेद की नीतियों को अपनाकर किसी भी तरह से अपने बिल पास करा लेते हैं तो इसे उनकी सरकार की एक उपलब्धि कहा जा सकेगा। इस काम के लिए भाजपा को कांग्रेस से भी हाथ जोड़कर मदद लेनी होगी लेकिन अगर देश का भविष्य दांव पर लगा हो तो किसी भी सरकार के लिए कोई भी कीमत चुकाना बड़ी नहीं होगी। 
 
इन सारे कानूनों को पास करने से पहले अगर मोदी सरकार को संघ परिवार के उपद्रवी तत्वों पर नकेल कसनी होगी अन्यथा इस काम का होना लगभग असंभव हो जाएगा। देश की स्थिति में अंतर पैदा करने की क्षमता की एक बुनियादी समस्या होगी कि किस तरह केन्द्र सरकार राज्यों के रवैए में बदलाव लाता है। वास्तव में सरकार अपनी नीतियों से जो बदलाव लाना चाहती है, वह काम राज्यों के ऊपर निर्भर करता है। 
 
उल्लेखनीय है कि इस मामले में केन्द्र सरकार की भूमिका एक हद तक सीमित है क्योंकि सभी महत्वपूर्ण नीतियों को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। बात चाहे खाद्य सुरक्षा की हो, भूमि ‍अधिग्रहण की, उत्पादन के क्षेत्र में सुधार लाने की हो या फिर स्कूलों में लड़कियों के लिए टॉयलेट बनाने का कार्यक्रम हो, विभिन्न राज्य सरकारें ही मोदी सरकार के कार्यक्रमों को बना सकती हैं या बिगाड़ सकती हैं, लेकिन अगर संबंधित राज्य में सरकार भाजपा के किसी भी विरोधी दल की हुई तो उसका केन्द्र सरकार से विरोध होना स्वाभाविक होगा।   
 
इस तरह का विरोध केवल उन राज्यों तक ही सीमित नहीं होगा जोकि भाजपा विरोधी दलों द्वारा शासित हैं वरन यह स्थिति भाजपा शासित राज्यों में भी देखने को मिल सकती है। ऐसा मानना एक गलती होगी कि भाजपा शासित राज्यों में मोदी की नीतियों को लागू करने में होड़ मच जाएगी। जबकि ऐसा नहीं होता है क्योंकि प्रत्येक राज्य की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं और राज्यों में मोदी की बढ़ोतरी का अर्थ होगा कि क्षेत्रीय स्तर के नेताओं का खात्मा और ज्यादातर नेता यह नहीं चाहेंगे। राज्यों में ऐसे नेताओं की कमी नहीं होगी जो कि मोदी को कमजोर करना चाहेंगे और ऐसे नेताओं को संघ का आशीर्वाद मिल सकता है। 
 
इसलिए मोदी को यह वास्तविकता स्वीकार करनी होगी कि वे केवल उन्हीं क्षेत्रों में असर डाल सकते हैं जिन पर केन्द्र का सीधे तौर पर प्रभाव होता है। और ये क्षेत्र हैं बजट, विदेशी मामले, प्रतिरक्षा और मैक्रोइकोनॉमी। इसका सीधा का अर्थ है कि मोदी सरकार की मेक इन इंडिया या स्वच्छ भारत जैसी नीतियां तभी काम कर सकेंगी, जबकि राज्य सरकारें इन्हें लागू करने की मंशा रखती हैं। इस मामले में मोदी सरकार ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकती है कि वह योजनाओं के लिए धन दे और केन्द्र सरकार की ओर से विशेषज्ञों की सहायता मुहैय्या कराए। 
 
राज्यों की ओर से बेहतर करने के लिए मोदी सरकार, राज्य सरकारों को बेहतर करने के लिए प्रतियोगिता का माहौल पैदा करे, सर्वश्रेष्ठ उपायों को शेयर करने के रास्ते सुझाए। यह सब केन्द्र सरकार खुद नहीं कर सकती है। अगर मोदी चाहते हैं कि उनके कार्यकाल के बाद भी उनकी विरासत चलती रहे तो इसके लिए उन्हें संघवाद को अपनाने पर जोर देना होगा। इस मामले में केवल सुशासन से काम नहीं चलेगा और वास्तव में वे राज्यों को और अधिक अधिकार देने के प्रस्ताव को जीएसटी और अन्य कानूनों के क्रियान्वयन से जोड़ सकते हैं। इस मामले में केन्द्र और राज्य के बीच इस तरह का समझौता हो सकता है कि केन्द्र सरकार राज्यों को अधिक आर्थिक शक्तियां दे और समवर्ती सूची में शामिल विषयों की सूची को कम कर दे और इस तरह दिल्ली के हस्तक्षेप के बिना राज्य अपने लिए कानून खुद बना सकें। योजनाओं के लिए सभी केन्द्रीय फंड्‍स पूरी तरह से ग्रांट आधारित हो और राज्यों के लिए छूट हो कि वे जब भी इसे महत्वपूर्ण समझें, इसका उपयोग करें।
 
वास्तव में मोदी को इस बात पर फोकस करना चाहिए कि राज्य, कारोबार और सुधारों के लिए प्रतियोगिता करें क्योंकि केन्द्र सरकार द्वारा चलाए जाने वाले सुधारों का जमाना तेजी से समाप्त हो रहा है। अगर मोदी सोचते हैं कि वे खुद ही ऐसा कुछ कर सकते हैं तो वे एक असफल आदमी ही सिद्ध होंगे। इसलिए उनके सामने एकमात्र विकल्प बचता है कि वे उन क्षेत्रों मे बेहतर परिणाम देने का प्रयास करें जो कि काननून उनके नियंत्रण में आते हैं। इन क्षेत्रों में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले शामिल हो सकते हैं। जबकि अन्य क्षेत्रों में केन्द्र की भूमिका एक मददकर्ता की हो सकती है। उसके लिए उचित होगा कि वह राज्यों को अधिकाधिक ताकत दें और उन्हें परिणाम देने के लिए प्रोत्साहित करे।
 
इस लिहाज से वर्ष 2015 मोदी को बनाने या बिगाड़ने की ताकत रखता है, लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह सीमाएं भी तय करनी होंगी कि वे खुद क्या करना चाहते हैं। वे वह सभी खुद नहीं कर सकते हैं जिनके परिणाम देने की जिम्मेदारी के लिहाज से राज्य सक्षम हैं। उन्हें अपनी सफलता को इस तरह से परिभाषित करना होगा कि वे राज्यों को सफल होने के लिए सक्षम बनाए।