गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. मुख्य ख़बरें
  3. राष्ट्रीय
  4. Kashmir struggled on three fronts
Written By सुरेश डुग्गर
Last Modified: बुधवार, 7 अगस्त 2019 (20:10 IST)

कश्मीर में तीन मोर्चों पर जूझना होगा केन्द्र सरकार को

कश्मीर में तीन मोर्चों पर जूझना होगा केन्द्र सरकार को - Kashmir struggled on three fronts
जम्मू। संविधान की धारा 370 को हटा दिए जाने के बाद गठित जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में आने वाले दिन कैसे होंगे, इसकी भयावह तस्वीर से अधिकारी अभी से ही चिंतित होने लगे हैं। यह चिंता अब कश्मीर में तिहरे मोर्चे से जूझने की जिसमें पहले से ही आतंकियों व अलगाववादियों से जूझने वालों को अब राजनीतिज्ञों से भी जूझना होगा जो एक छतरी के नीचे होने लगे हैं और जिनका आधार कश्मीर के गांव-गांव और गली-गली में है।
 
माना कि फिलहाल सभी दलों राजनीतिक के कई बड़े नेता हिरासत में हैं या फिर नजरबंद हैं। बावजूद इसके धुर विरोधी नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी समेत अन्य दलों के बीच पर्दे के भीतर इस पर कसरत शुरू हो चुकी है। इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन और अनुच्छेद 370 भंग करने से हाशिए पर आए तमाम कश्मीरी दल एक छतरी के नीचे आ जाएंगे।
 
इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसमें उन्हें अलगाववादी संगठनों का भी साथ मिल सकता है और अलगावादियों के लिए अब अपना एजेंडा आगे बढ़ाना आसान इसलिए भी होगा क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर सामने नहीं आना पड़ेगा और उनका काम भी यही राजनीतिक दल करेंगे।
 
इससे कोई इंकार नहीं करता कि कश्मीर केंद्रित सभी दल राज्य के विशेष दर्जे के समर्थक हैं। केंद्र सरकार द्वारा विशेष दर्जे पर फैसला लेने से पूर्व ही रविवार को नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट समेत अन्य सियासी दलों के नेताओं ने बैठक की थी।
 
नेकां अध्यक्ष डॉ. फारूक अब्दुल्ला के आवास पर हुई बैठक में राज्य के विशेष दर्जे को भंग किए जाने पर आंदोलन छेड़ने की चेतावनी दी गई थी। कश्मीर के मजहबी और कई सामाजिक संगठन भी अनुच्छेद 370 को कश्मीरी मुस्लिमों की पहचान मानते हैं। ऐसे में फिर अपनी पहचान खोने का डर दिखाकर सभी संगठनों को साथ लाने के प्रयास शुरू भी कर दिए गए हैं।
 
वर्ष 2008 में अमरनाथ भूमि आंदोलन के दौरान भी यह तमाम संगठन एक मंच पर थे। फारूक अब्दुल्ला ने मंगलवार को मीडिया के समक्ष इसका संकेत भी दे दिया। उन्होंने कहा कि अभी यहां सब कुछ बंद हैं, पाबंदी हटने दो, यहां सभी सड़क पर होंगे। ऐसा भी नहीं है कि सड़कों पर उतरने वाले सिर्फ कश्मीर तक ही सीमित रहेंगे क्योंकि जम्मू संभाग के अढाई जिलों को छोड़कर बाकी में भी नेकां और पीडीपी का अच्छा खासा आधार है, जिसे नजरअंदाज करना बहुत बड़ी भूल होगी।
 
अब्दुल्ला के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए राजनीतिक पंडित कहते थे कि केंद्र के फैसले से तमाम कश्मीरी सियासी दलों और उनके पक्षकारों की सियासत समाप्त होने के कगार पर है। इसलिए वह एक मंच पर जमा होंगे। उनका कहना था कि घाटी में तीन साल पूर्व कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए कालोनियां बसाने की चर्चा के दौरान भी सभी दल विरोध में आ गए थे।
 
अलगाववादी खेमा और कश्मीरी दल भले ही एक मंच पर नहीं आए, लेकिन कालोनियों के खिलाफ सब आवाज मुखर कर रहे थे। अब फिर साथ आना मजबूरी है और इस बार नारा अपनी पहचान बचाने का होगा। इसमें मजहबी संगठन भी होंगे और अलगाववादियों का कैडर भी।
 
एक अन्य विशेषज्ञ ने कहा कि फिलहाल पाबंदियों के चलते वादी में लगभग सभी गतिविधियां ठप हैं। बावजूद इसके कुछ इलाकों में लोग मंगलवार को बाहर निकले और सियासी दलों के कुछ नेताओं की बैठक भी हुई है। इसमें 370 और राज्य के पुनर्गठन पर चर्चा हुई। इसके अलावा सिविल सोसायटी का एक वर्ग भी सक्रिय दिखा। यही वर्ग सभी संगठनों से संपर्क साध रहा है। रविवार को हुई बैठक में तय हुई रणनीति को संबधित दलों का कैडर आगे बढ़ाएगा।
 
नतीजतन आने वाले दिनों में मुर्दा खामोशी से फूटने वाले लावा को कैसे रोका जाएगा, एनएसए डोभाल रणनीति बनाने में तो जुटे हैं पर वे इस बार कामयाब हो पाएंगें कहना कठिन है। यह आशंका कश्मीर पर नजर रखने वाले उन राजनीतिक पंडितों को है जो पिछले 30 सालों से कश्मीर में टिके हुए हैं और जिनका कहना था कि इस बार का माहौल पूरी तरह से अलग है जिसमें आतंकवाद भी है, अलगाववादी भी हैं और इतिहास और पहचान छिन जाने वालों का गुस्सा व दर्द भी है।
 
कारगिल में दो दिनों से हड़ताल जारी : कारगिल जिले में दो दिनों से जारी हड़ताल दरअसल उन लोगों के लिए तमाचे की तरह है जो यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि लद्दाख को दिए जाने वाले केंद्र शासित प्रदेश के दर्जे से सभी लद्दाखवासी खुश हैं। पर कारगिल के लोग इससे नाखुश हैं। वे धारा 370 को हटाए जाने से नाराज हैं। हालांकि लेहवासियों में भी नाखुशी है, लेकिन विधानसभा नहीं दिए जाने की। जानकारी के लिए लद्दाख नाम का कोई प्रशासनिक प्रदेश जम्मू कश्मीर में नहीं हैं। बल्कि लेह और कारगिल जिलों को मिला कर लद्दाख संभाग बनता है।
 
पिछले कई सालों से केंद्र शासित प्रदेश पाने का आंदोलन सिर्फ और सिर्फ लेह के लोगों ने छेड़ रखा थ। इसमें कारगिल के लोगों का समर्थन नहीं था। ऐसा इसलिए था क्योंकि लेहवासी कश्मीर के उपनिवेशवाद से मुक्ति चाहते थे। अपने आंदोलनों में वे ऐसे ही पोस्टर भी चिपकाते थे और नारे भी लगाते थे। अब जबकि केंद्र सरकार ने एक झटके में जम्मू कश्मीर राज्य को बांटकर दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिए तो इसकी खुशी सिर्फ दो ही जगह देखने को मिली। एक लेह में और दूसरी जम्मू संभाग के अढाई जिलों में।
 
मुस्लिम विरोध नहीं कर पाए थे जो लेह में रह रहे हैं। पर कारगिल की मुस्लिम आबादी ने हमेशा ही लेहवासियों की इस मांग का हमेशा विरोध किया है। यही कारण था कि कारगिल में पिछले दो दिनों से इस फैसले के विरुद्ध हड़ताल है।
ये भी पढ़ें
धारा 370 पर सिंधिया ने क्यों किया मोदी सरकार का समर्थन? इनसाइड स्टोरी