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Written By WD

26/11 के बाद भी नहीं गई 'कमजोरी'

संप्रग की विफल विदेश नीति पर एक रिपोर्ट

26/11 के बाद भी नहीं गई ''कमजोरी'' -
-महेंद्र तिवारी

कभी न भुलाए जाने वाले 'दहशत के तीन दिनों' ने सालों से सालते आ रहे आतंक के दर्द पर देश को सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया। संसद से सड़क तक समवेद स्वर में आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की कसमें खाई गईं। सरकार ने भी जनाक्रोश को भाँपते हुए खंभ ठोंककर इसे लेकर 'जीरो टॉलरेंस' की नीति अपनाने का दम भरा।

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'मुंबई' से सबक लेते हुए सरकार ने प्रशासनिक सर्जरी के साथ-साथ कानून के स्तर पर कई कदम उठाए। इनमें गृहमंत्री शिवराज पाटिल की जगह पी. चिदंबरम का आना, गैर कानूनी गतिविधि नियंत्रण कानून, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी का गठन, देश के चार बड़े शहरों में एनएसजी केंद्रों की स्थापना, यूआईडी परियोजना की शुरुआत, पाकिस्तानी मूल के अमेरिकियों को नई दिल्ली से ही वीजा जारी करना, कश्मीर में प्री-पेड कनेक्शनों पर रोक और चीनी दूतावास की तरफ से कश्मीरियों को अलग से जारी स्टेपल वीजा को अमान्य करना जैसी घोषणाएँ शामिल हैं।

इसमें दो मत नहीं कि गृहमंत्री चिदंबरम आंतरिक सुरक्षा को लेकर अपने पूर्ववर्तियों से हर मोर्चे पर बीस साबित हुए। सुलझी हुई कार्यशैली और मजबूत इरादों की झलक उनके काम में दिखी भी।

...लेकिन संप्रग सरकार की हर अच्छी कोशिश को उतनी ही शिद्दत से गुड़-गोबर करने का बीड़ा भी उसी के विदेश मंत्रालय ने उठाया। कर्नाटक में बतौर मुख्यमंत्री आईटी कंपनियों को शीशे में उतारने वाले एसएम कृष्णा को संप्रग की दूसरी पारी में ताबड़तोडकेंद्र की कुर्सी दे दी गई। कृष्णा को 'विदेश' भेजने का फैसला करने में कांग्रेस नज्यादवक्नहीलिया

पार्टी ने यह समझने की कोशिश भी नहीं की कि 'सिलिकॉन वेली' की सुंदर सूरत दिखाकर कंपनियों को रिझाना अलग बात है और दुनिया के सामने सरकार की सोच को सामने रखने वाले पोर्ट फोलियो की अगुआई करना दूसरी बात।

कृष्णा को विदेश मंत्री बनाना कितनी बड़ी भूल थी, इसकी गवाही खुद कृष्णा ने उस वक्त दे दी, जब उन्होंने तालिबान के साथ राजनीतिक स्तर पर बात करने का प्रस्ताव दे दिया। यहवजि विपक्ष उन्हें इबयालिए 'अपरिपक्व' कहननहीचूका।

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आर्थिक सुधारीकरण के जरिए देश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी विदेश नीति के मामले में कृष्णा कबराबटक्कदेतदिखादिए।

शर्म अल शेख में अपने समकक्ष गिलानी के साथ मुलाकात के एजेंडे में भारत की इच्छा के बगैर बलूचिस्तान का मुद्दा शामिल हुआ। प्रधानमंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि अगर पाकिस्तान बलूचिस्तान में भारत की मौजूदगी के सबूत दे तो कार्रवाई जरूर की जाएगी।

इस पर संसद में न केवल प्रधानमंत्री को सफाई देना पड़ी, बल्कि अगले ही दिन पाकिस्तान ने हिंदुस्तान की स्वीकारोक्ति को विश्व के सामने जोर-शोर से उछालने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।

प्रधानमंत्री के उस बयान की ही मेहरबानी रही कि आज पाकिस्तान बलूचिस्तान के साथ वजीरिस्तान में भी भारत के दखल का आरोप लगा रहा है। उसककहनभारतरतालिबाआर्थिमदमिलतहै

पाकिस्ताआंतरिक रक्षा मंत्री रहमान मलिक हों या विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी अथवा यूसुफ रजा गिलानी...। पाक का हर हुक्मरान वक्त-बेवक्त भारत के खिलाफ तोहमत का जहर उगलता रहता है।

हमारी कमजोर विदेश नीति का ही नतीजा है कि भारत-पाक के बीच कश्मीर और दूसरे लंबित मुद्दों को भारद्वारद्विपक्षीय करार देने के बावजूद पाकिस्तान कभी इन्हें संयुक्त राष्ट्र के सामने उठाने की धमकी देता है तो कभी अमेरिका से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाता है।

भारत-पाक दोनों आतंक के सताए हुए : प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के उस बयान को कैसे बिसराया जा सकता है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान को भी भारत के समान आतंकवाद से बराबर का पीड़ित बताते हुए इस मुद्दे पर साथ चलने का ऐलान कर दिया था।

इतना ही नहीं समूचा देश जब हमलों को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ आगबबूला था, मनमोहनसिंह ने आईएसआई प्रमुशूजा पाशा को भारत आने का न्योता दे डाला। यह दीगर बात है कि पाशा ने खुद ही आने से इनकार कर दिया।

यह कितना हास्यास्पद है कि पाकिस्तान की जिस खुफिया एजेंसी की 'कारस्तानियों' से सारी दुनिया अच्छतरवाकिफ है, उसे हमारे प्रधानमंत्री हमलों की जाँच में शामिल होने का बुलावा भेजते हैं।

अगखामियोनजरअंदादियजामुंबई हमले से जुड़ी ऐसी कई कमजोर कड़ियाँ हैं, जो प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और उनके कुनबे को आतकंवाद के मुद्दे पर बौना साबित करती हैं।

26/11 के मास्टरमाइंड हाफिज सईद का बेखौफ घूमना: मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड औजमात-उद-दावा का सरगना हाफिज मोहम्मद सईद अपने खिलाफ तमाम आरोपों के बावजूद पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहा है। 'नई दिल्ली' को दिखाने के लिए पाक ने उस पर कार्रवाई का ढोंग ही रचा। सत्ता की चौसर पर 'खास' कहे जाने वाले मनमोहन के सारे वजीर पड़ोसी मुल्क से सईद पर कार्रवाई का राग अलापते रहे, लेकिन उसने कभी इनकी बातों पर कान नहीं दिए।

संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रह चुके विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर हों या परणीत कौर...। सोनिया के सिपहसालारों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जो पाकिस्तान को दबाव की मुद्रा में ला सके।

सबूतों को सूचना ही मानता रहा पाक : मुंबई हमलों में पाकिस्तानी जमीन का इस्तेमाल और उसके नागरिकों की संलिप्तता से जुड़े तमाम सबूतों को पाक ने महज 'सूचना' माना। भारत हर मंच सपाक को प्रमाण सौंपने के सुर लगाता रहा, लेकिन पाक अपने रुख से नहीहिला।

पाकिस्तानी आतंकवादियों कशव न लेना : मुंबई हमलों को लेकर भारत की कूटनीतिक कमजोरी उसी वक्त सामने आ गई, जब पाकिस्तान ने मोहम्मद अजमल कसाब को अपना नागरिक मानने से ही इनकार कर दिया। बाद में उसने यह गलती तसुधार ली, लेकिन हमलों में मारे गए नौ आतंकियों के शव लेने से वह आज तक मुकर रहा है। सरकार उसे शव लेने के लिए राजी ही नहीं कर पाई।

सबूतों के बाद भी एफबीआई के सामने गिड़गिड़ाए : संप्रग सरकार की राजनयिक दुर्बलता का एक और नजारा तब दृष्टिगोचर हुआ, जब चिदंबरम ने अमेरिका की यात्रा की। गृहमंत्री मुंबई हमलों से जुड़ी जानकारी और सबूत साथ लेकर एफबीआई के दफ्तर पहुँचे।

चिदंबरम साहब क्या बता सकते हैं कि हमला हम पर हुआ...नागरिक हमारे काल कवलित हो गए। हमारे ही शहीदों की पत्नियाँ बेवक्त बेवा हो गईं और उनके बच्चे यतीम...। फिर क्या कारण था कि हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने की अर्ज लेकर अमेरिका पहुँचे।

क्या वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के वक्त अमेरिका ने भारत से किसी प्रकार की कोई मदद या जाँच में सहयोग माँगा था। क्या जॉर्ज बुश (तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति) ने भारतीय प्रधानमंत्री से इजाजत माँगी थी कि हम तालिबान पर हमला करें या नहीं या भारत बताए कि ओसामा बिन लादेन के खिलाफ पहला कदम क्या हो?

ऊपर लिखित नमूने इतना तो साफ-साफ बयाँ करते हैं कि जब तक अपनी विदेश नीति पर नेहरू के जमाने से जमती आ रही धूल नहीं झाड़ेगा, अंतराष्ट्रीय मंच पर किसी सफलता की उम्मीद बेमानी ही होगी। फिर चाहे वह 26/11 का हमला हो या इस तरह के अन्य हमलों की पुनरावृत्ति।