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कब तक लुटती रहेगी नारी अस्मिता?

कब तक लुटती रहेगी नारी अस्मिता? - Yamuna Express Way Incident
यमुना एक्सप्रेस-वे के पास चलती कार को रोककर हत्या और 4 महिलाओं के साथ दुष्कर्म की खौफनाक वारदात ने न केवल उत्तरप्रदेश, बल्कि समूचे राष्ट्र को शर्मसार किया है। 4 औरतों की अस्मत का सरेआम लूटा जाना- एक घिनौना और त्रासद काला पृष्ठ है और उसने आम भारतीय को भीतर तक झकझोर दिया है। 
 
उत्तरप्रदेश में कानून एवं व्यवस्था पर सवाल तो उठे ही हैं और इन सवालों को इसलिए कहीं अधिक गंभीर बना दिया है, क्योंकि पश्चिमी उत्तरप्रदेश पहले से ही अप्रिय कारणों से चर्चा में है। योगी सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती। 
 
एक ओर सहारनपुर की जातीय हिंसा उसके लिए सिरदर्द बनी हुई है तो दूसरी ओर कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। सुशासन के दावे को मुंह चिढ़ाने वाली घटनाएं तब हो रही हैं, जब राज्य सरकार लगातार इस पर जोर दे रही है कि कानून के खिलाफ काम करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। योगीजी के सम्मुख नारी अस्मिता की सुरक्षा की बड़ी चुनौती है।
 
एक्सप्रेस-वे के निकट हत्या और सामूहिक दुष्कर्म की घटना ने करीब 1 साल पहले बुलंदशहर में घटी इसी तरह की हैवानियत की वारदात को ताजा करने के साथ ही आम लोगों में सिहरन पैदा करने का काम किया है। हम सभी कल्पना रामराज्य की करते हैं, पर रच रहे हैं महाभारत। महाभारत भी ऐसा जहां न कृष्ण है, न युधिष्ठिर और न अर्जुन। न भीष्म पितामह हैं, न कर्ण। सब धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बने हुए हैं। न कोई गीता सुनाने वाला है, न सुनने वाला। बस, हर कोई द्रोपदी का चीरहरण कर रहा है। 
 
सारा देश चारित्रिक संकट में है और हमारे कर्णधार देश की अस्मिता और अस्तित्व के तार-तार होने की घटनाओं को भी राजनीतिक ऐनक से देख रहे हैं, आपस में लड़ रहे हैं। कहीं टांगें खींची जा रही हैं तो कहीं परस्पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं, कहीं किसी पर दूसरी विचारधारा का होने का दोष लगाकर चरित्र-हनन किया जा रहा है। 
 
जब मानसिकता दुराग्रहित है, तो दुष्प्रचार ही होता है। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता। सत्ता-लोलुपता की नकारात्मक राजनीति हमें सदैव ही उलट धारणा विपथगामी की ओर ले जाती है। ऐसी राजनीति राष्ट्र के मुद्दों को विकृत कर उन्हें अतिवादी दुराग्रहों में परिवर्तित कर देती है।
 
एक्सप्रेस-वे पर नारी अस्मिता को नोंचने की इस घटना के बाद पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाना स्वाभाविक है। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि पुलिस ने बुलंदशहर की घटना से जरूरी सबक सीखने में कहीं-न-कहीं चूक की है या उसे गंभीरता से नहीं लिया।
 
जब कभी ऐसी ही किसी खौफनाक, त्रासद एवं डरावनी घटना की अनेक दावों के बावजूद पुनरावृत्ति होती है तो यह हमारी जवाबदारी पर अनेक सवाल खड़े कर देती है। आखिर वह कथित घुमंतू गिरोहों की कमर तोड़ने के साथ अपराध बहुल इलाकों की निगरानी का बुनियादी काम क्यों नहीं कर सकी? कहीं ऐसा तो नहीं कि बुलंदशहर की घटना के बाद जो दावे किए गए थे, वे आधे-अधूरे थे? इन सवालों का जवाब जो भी हो, यह ठीक नहीं कि उत्तरप्रदेश में कानून एवं व्यवस्था की साख एक ऐसे समय संकट में है, जब मोदी सरकार अपने कार्यकाल के 3 साल पूरे होने को लेकर जश्न मना रही है।
 
प्रश्न है कि आखिर हम कब औरत की अस्मत को लूटने की घटना और मानसिकता पर नियंत्रण कर पाएंगे? मान्य सिद्धांत है कि आदर्श ऊपर से आते हैं, क्रांति नीचे से होती है, पर अब दोनों के अभाव में तीसरा विकल्प ‘औरत’ को ही ‘औरत’ के लिए जागना होगा। 
 
सरकार की उदासीनता एवं जनआवाज की अनदेखी भीतर-ही-भीतर एक लावा बन रही है, महाक्रांति का शंखनाद कब हो जाए, कहा नहीं जा सकता? दामिनी की घटना ने ऐसी क्रांति के दृश्य दिखाए, लगता है हम उसे भूल गए हैं। एक सृसंस्कृत एवं सभ्य देश के लिए ऐसी क्रांति का बार-बार होना भी शर्मनाक ही कहा जाएगा।
 
आज जब सड़कों व चौराहों पर किसी न किसी की अस्मत लुट रही हो, औरतों से सामूहिक बलात्कार की अमानुषिक और दिल दहला देने वाली घटनाएं हो रही हों, इंसाफ के लिए पूरा देश उबल रहा हो और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग जनाक्रोश को भांपने में विफल रहे हों, तब इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।
 
देश का इस तरह बार-बार घायल होना और आम आदमी की आत्मा को झकझोरकर रख देना- सरकार एवं प्रशासन की विफलता को ही उजागर करता है। जनता का क्रोध बलात्कारियों और सरकार दोनों के प्रति समान है।
 
ऐसी विडंबनापूर्ण घटनाओं पर जनता के आक्रोश पर सरकार और पुलिस का यह सोचना कि 'यह भीड़तंत्र का तमाशा है, कुछ समय बाद ही शांत हो जाएगा', यह भी शर्मसार करने वाली स्थिति है। हौसला रहे कि आने वाले वक्त की डोर हमारे हाथ में रहे और ऐसी ‘दुर्घटनाएं’ दुबारा न हो।
 
इतनी क्रूर घटना पर आंसू बहाने की बजाय जिस तरह की टिप्पणियां की जाती हैं, वे समस्या के समाधान की ओर न होकर राजनीति या स्वार्थ की रोटियां सेंकने का ही माध्यम होती हैं। अक्सर बलात्कार की घटना के बाद महिलाओं की ड्रेस पर सवाल खड़े किए जाते हैं।
 
एक्सप्रेस-वे पर रात के गहन सन्नाटे में हुई घटना में नैतिकता के तथाकथित ठेकेदारों के पास उठाने को ऐसे क्या सवाल होंगे? लेकिन उनके पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं कि महिलाओं के विरुद्ध बढ़ रहे अपराध रोकने के लिए वे क्या कर रहे हैं? इनका नजरिया इतना तंग है कि ये समस्या की गहराई में जाना ही नहीं चाहते और केवल उस पर लफ्फाजी करना चाहते हैं जिस पर केवल गुस्सा ही आ सकता है।
 
मैं पूछना चाहता हूं इन ठेकेदारों से कि जब फूलनदेवी से सामूहिक बलात्कार किया गया था, तब क्या उसने उत्तेजक कपड़े पहन रखे थे? फिर भी उसे घिनौने अपराध का शिकार होना पड़ा। तंदूर, स्टोव, चूल्हे और न जाने कितनी ही नयनाओं को लीलते एवं दामिनियों को नोंचते रहे। बुलंदशहर एवं एक्सप्रेस-वे पर सामूहिक बलात्कार होते रहे। हमें इनकी जड़ को पकड़ना होगा।
 
इस जड़ को पकडने का दायित्व पुलिस प्रशासन का है, लेकिन हमारे यहां की पुलिस तो हमेशा ही विवादों में रही है, अक्षम नहीं है। यह सही है कि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन केंद्र सरकार को यह तो देखना ही होगा कि राज्य सरकारें इस मोर्चे पर जरूरी कदम उठा रही हैं या नहीं? 
 
कम से कम भाजपा शासित राज्य सरकारों के मामले में तो मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना ही चाहिए कि वे कानून एवं व्यवस्था को लेकर पर्याप्त सजगता का परिचय दें। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि उत्तरप्रदेश के साथ झारखंड सरकार भी इन दिनों कानून एवं व्यवस्था को लेकर गंभीर सवालों से दो-चार है।
 
इसमें दोराय नहीं कि मोदी सरकार अपने 3 साल के कार्यकाल की अनेक उपलब्धियां गिनाने की स्थिति में है, लेकिन क्या पुलिस सुधार के लिए उसने कोई ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत किया है? जबकि पुलिस सुधार के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने भी दिशा-निर्देश दिए हैं, लेकिन उन दिशा-निर्देशों पर अमल के मामले में सभी राज्य सरकारें गंभीरता का परिचय क्यों नहीं दे रही हैं?
 
नि:संदेह यह भी एक सवाल है कि पुलिस सुधार केंद्र सरकार के एजेंडे से बाहर क्यों है? यदि राज्य सरकारें कानून एवं व्यवस्था में सुधार को पहली प्राथमिकता नहीं देतीं तो फिर सुशासन के उनके दावों को चुनौती मिलती ही रहेगी। 
 
भले ही योगी सरकार को अभी सत्ता संभाले 2 माह ही हुए हों, लेकिन इसकी तह तक जाना उसका ही काम है कि तमाम कोशिशों के बाद भी हालात सुधर क्यों नहीं रहे हैं? यदि अराजक तत्वों को अभी भी किसी तरह का बिखरावजनक राजनीतिक प्रोत्साहन मिल रहा तो उन्हें बेनकाब करना उसकी ही जिम्मेदारी है।
 
जिस देश की संसद में अनेक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हों वहां राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक मूल्य बचने की कोई उम्मीद तो नहीं की जानी चाहिए, फिर भी उम्मीदों पर दुनिया जिंदा है। नैतिक मूल्य बच जाएं, हमें भी अपने दायित्व-बोध का अहसास हो। 
 
आज के दिन लोग कामना करें कि नारी शक्ति का सम्मान बढ़े, उसे नोंचा न जाए। समाज ‘दामिनी’ के बलिदान को नहीं भूले और अपनी मानसिकता बदले। हर व्यक्ति एक न्यूनतम आचार संहिता से आबद्ध हो, अनुशासनबद्ध हो। 
 
दो राहगीर एक बार एक दिशा की ओर जा रहे थे। एक ने पगडंडी को अपना माध्यम बनाया, दूसरे ने बीहड़, ऊबड़-खाबड़ रास्ता चुना। जब दोनों लक्ष्य तक पहुंचे तो पहला मुस्कुरा रहा था और दूसरा दर्द से कराह रहा था, लहूलुहान था। मर्यादा और अनुशासन का यही प्रभाव है।
 
आज हम अगर दायित्व स्वीकारने वाले समूह के लिए या सामूहिक तौर पर एक संहिता का निर्माण कर सकें, तो निश्चय ही प्रजातांत्रिक ढांचे को कायम रखते हुए एक मजबूत, नैतिक एवं शुद्ध व्यवस्था संचालन की प्रक्रिया बना सकते हैं। हां, तब प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों को मुखर करना पड़ेगा और चापलूसों को हताश ताकि सबसे ऊपर अनुशासन और आचार संहिता स्थापित हो सके अन्यथा अगर आदर्श ऊपर से नहीं आया तो क्रांति नीचे से होगी। 
 
जो व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढ़ियों से नीचे उतर जाती है।
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