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मेरा ब्लॉग : क्या पढ़ोगे, क्या बनोगे मनु .....?

मेरा ब्लॉग : क्या पढ़ोगे, क्या बनोगे मनु .....? - webdunia blog
“मनु तो काफी बड़ा और समझदार हो गया होगा?” मिश्रा जी साल में एकाध बार आते हैं और हर बार सवाल यही होता है। 
 
“जी, 14 का हुआ है और समझदार...(?).....भी। ”


 
 
“आज फिर चीटिंग .....। कल से पहली बैटिंग मेरी, बस ...।” मनु अपने से आधी उम्र के बच्चों के साथ क्रिकेट खेल कर लौट रहा है। “मम्मा ...” मनु धड़धड़ाते हुए सीधे ड्राइंग रूम में “ ओ...अ ...न ..नमस्ते अंकल।”
 
अंकल मम्मा द्वारा अभी-अभी किए गए मनु-वर्णन और सामने खड़े ‘सच’ के बीच उलझे हैं।
 
“बेटा, फ्रेश हो लो, मिश्रा अंकल तुम्हें ही याद कर रहे थे।” मम्मा जानती है, मनु की मेमोरी से मिश्रा अंकल की फाइल डिलीट हो चुकी होगी। 
 
“कौन-सी क्लास में हो, बेटा?” अंकल की पहली गेंद। 
 
“अंकल, नाइन्थ में, सेंट जोसफ कॉन्वेंट, अरेरा कॉलोनी। ” अगले सभी संभावित प्रश्नों का एक साथ उत्तर देकर मनु ने मुक्ति का प्रयास किया।”
 
“नाइन्थ..! बड़ी क्लास में आ गए हो भई। फिर क्या.. आई.आई .टी?” (दूसरी ही बॉल बाउन्सर.?)
 
“जी, अभी देखते हैं, अंकल।” मनु ‘डक’ करना सीख रहा है।
 
“सोचा नहीं? आजकल तो बच्चे आठवीं से कोचिंग जाने लगते हैं। मेडिकल में जाना है क्या? वैसे कॉमर्स भी बुरा नहीं है।”
 
“अंकल, मुझे हिस्ट्री और लेंग्वेजेस पसंद है।” मनु की बाउन्ड्री, सीधे अंकल के सिर के ऊपर से। 
  
“कहानियां पढ़ना किसे बुरा लगता है लेकिन करियर का क्या?” अंकल ने निराशा भाव से सिर हिलाया। 
 
जाहिर तौर पर मनु उनकी उम्मीदों के खाकों में कहीं फिट नहीं हुआ है।तो क्या बच्चों की परवरिश सामाजिक अपेक्षाओं के खाकों के आधार पर की जाए? आई.आई टी, मेडिकल, सी.ए, क्लेट......नहीं तो......रिजेक्टेड?
 
मम्मा जानती है कि मनु की सोच और रुचियाँ उसके हमउम्र बच्चों से जुदा है और शायद यही बात उसे खास बनाती है। बल्कि मनु ही क्यों, हर बच्चा अपने-आप में एक स्वतंत्र इकाई है और इसीलिए विशेष है। 
 
“भिशक्याओं...हैंड्स अप, मैं डाकू बना हूं।” चार साल के मनु को लगा था कि डाकू भी ‘बना’ जाता है।” फिर तो रोज कुछ ‘बनना’ नया खेल हो गया, डॉक्टर से लेकर एक्टर तक... लेकिन बचपन का खेल इतनी जल्दी यथार्थ का प्रश्न बन जाएगा सोचा नहीं था। 
 
मम्मा ने कई सारी रंगीन सचित्र किताबें इकट्ठी की हैं। ढाई साल के मनु के विद्याध्ययन का श्री गणेश। रंग, फल, फूल, वर्णमाला के अक्षरों से परिचय का उपक्रम और साथ में ढेर सारी मस्ती|       
 
“बारिश बरसी छम छम छम.......बिजली चमकी चम चम चम........,छाता लेकर निकले हम.......फिसला पांव गिरे धड़म” मम्मा गिरने का अभिनय करती और दोनों ताली बजाकर देरतक टिल-टिल हँसते| 
 
घुटनों तक की नीली निकर, सफेद शर्ट और पिद्दी सा बस्ता लिए मनु नर्सरी में जाने के लिए तैयार है। मम्मा ऐसे बलैया ले रही है, मानो ग्रेजुएशन सेरीमनी के लिए निकल रहे हो। अब चार लाइन की कॉपी में टेढ़े-मेढ़े अक्षर आकार ले रहे हैं। मनु की जिद है कि वह अकेला क्यों लिखे? इसलिए मम्मा की भी एक कॉपी है। पर शर्त यह है कि मम्मा के अक्षर मनु से ख़राब आने चाहिए। मम्मा ईमानदारी से कोशिश कर रही है। 
 
“मम्मा, मैं खुद लर्न कर लूँगा।'' मनु छठीं में आ गया है। “चार एफ.ए और दो एस.ए” क्लास टीचर पालकों को समझा रही हैं। मनु पूरी तरह से सी.बी.एस.ई की गिरफ्त में जा रहा है, साल दर साल। 
 
“कल से एफ.ए -1”  
 
“अभी परसों तो ख़त्म हुए हैं?” दादा हैरान है, पूरे साल तो परीक्षा चलती है, फिर पढ़ाई कब होती है?         
“टाइप वन था, दा, अब टाइप टू –प्रोजेक्ट, मम्मा! हिन्दी में कबीर ....”                                           मम्मा पुरानी किताबों से कबीर के दोहे और चित्र खोज रही है| 10 नंबर है, प्रोजेक्ट के। मनु कैंची, गोंद आदि के साथ मुस्तैद है। 
 

“मैं मामा की सगाई में नहीं जा सकता, स्पीकिंग स्किल का टेस्ट है, छूटा तो सीधे एक ग्रेड कम।”  
 
उफ़ ..! ये कैसी शिक्षण पद्धति है, एक पल को चैन नहीं? बच्चा क्या पूरा परिवार इस अजीब मकड़जाल में उलझा है। इतनी कवायद के बाद भी भविष्य अनिश्चित। अनंत की मम्मी अक्सर हिसाब लगाती हैं, “इनके स्कूल में ही 10 ग्रेड पॉइंट वाले 40-50 बच्चे होते हैं। सोचो, प्रतियोगी परीक्षाओ में पूरे देश के बच्चे होंगे। अभी मेहनत नहीं करेंगे तो कहां टिकेंगे?”  
 
‘.........की आई.आई.टी में 12 वीं रैंक, ‘........ने सी पी टी में टॉप किया।’ ऐसे शीर्षक अख़बारों में आम है लेकिन जो बच्चे मेहनत तो करते है पर कुछ अंकों से चूक जाते हैं, उनका क्या? हज़ारों औसत छात्र बाद में दूसरे विकल्प तलाशते होंगे। यह प्रक्रिया कितनी कष्टप्रद हो जाती है या बना दी जाती है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते अब नौवीं-दसवीं से प्रश्नों की झड़ी, ‘आगे क्या सोचा?’ ‘कितना ग्रेड बना?’ ‘कौन-सा करियर ..?’ अनगिनत सवाल और अधकच्चे मन। कुछ इन दबावों  के आगे हार भी जाते हैं और कहीं छोटी-सी खबर आती है-‘दसवीं का नतीजा देख छात्रा घर से भागी’ या ‘छात्र ने जहर खाया’.... 
 
मम्मा के माथे पर पसीने की बूंदें झलक आई हैं। मनु को 2-3 दिनों से ही खेलने का समय मिल पा रहा था। मिश्रा अंकल के जाने के बाद वह तीर की तरह अपने कमरे में घुस गया है।
 
“मनु, क्या हुआ बेटू, कुछ सोच रहे हो?” मनु गुमसुम-सा बैठा है। 
 
“बेटा, परेशान होने की क्या बात है? ढेर सारे ऑप्शन्स हैं।” मम्मा का दिल धड़-धड़ कर रहा है। 
 
“परेशान होने की तो बात है। ऑप्शन्स कहां हैं ? शिखर धवन अनफिट है, रहाणे आउट ऑफ फॉर्म है। साउथ अफ्रीका सीरीज तो गई हाथ से.....।”
 
जीवन की मुस्कान होठों पर तैर गई और बूंदें आंखों में उतर आई है। मम्मा ने लाड़ से मनु का माथा चूम लिया है।  

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