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जन्माष्टमी विशेष : कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम्

जन्माष्टमी विशेष : कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम् - Shri Krishna
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर्मर्दनम्। 
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।
 
कृष्ण...जिस नाम में ही आकर्षण निहित हो और आकर्षण भी ऐसा दिव्य, जो अनंत काल से जन मानस पर छाया हो। कृष्ण चरित्र जितना मोहक, उतना ही रहस्यमय...जितना चंचल, उतना ही गंभीर... जितना सरल, उतना ही जटिल...मानो प्रकृति का हर रूप अपने व्यतीक्रम के साथ उनके व्यक्तित्व में समाहित है।




इतने आयामों को अपने में समेटे, कि युगों-युगों से लेखनी उनके महत्व का वर्णन करना चाहती है, किंतु हर बार नित नूतन आयाम के सम्मुख आने पर नेति-नेति कह नत मस्तक हो जाती है। जन्माष्टमी पर्व कितने सारे विचार एक साथ ले कर आता है। एक तरफ यह हमें कृष्ण की मनोहारी लीलाओं का संस्मरण करवट है तो दूसरी तरफ उन लीलाओं के गूढ़ अर्थ को समझने को ललचाता भी है।
यह पर्व कृष्ण के लोकनायक, संघर्ष शील, पुरुषार्थी, कर्मयोगी व युगांधर होने के महत्व को प्रतिपादित करता है। विष्णु का सोलह कला युक्त कृष्ण का अवतार सचमुच ही अद्भुद है, सीमारहित, व्याख्या से परे, कृष्ण के जीवन पर जितना भी लिखा गया है, उतना किसी और अवतार पर नहीं। किसी कृष्ण भक्त वैष्णव विद्वान का भी इन आयामों को जानकर अचंभित होना स्वाभाविक है, तो फिर हम तो ठहरे सामान्य मनुष्य है। कृष्ण की विराटता अनंतता और सर्व कालिक प्रासंगिकता ही कृष्ण तत्व के प्रति असीमित आकर्षण का कारण है।
 
कृष्ण हर रूप में अद्भुद हैं, ब्रज वृंदावन के कान्हा हो, मुरलीमनोहर, माखन चोर, गोपाल राधेकृष्ण, नन्द नंदन, यशोदा के लाल, रास रचैया, गोपी कृष्ण हो या देवकी नंदन, द्रौपदी के सखा, पांडवों के तारणहार वासुदेव, वे द्वारका के द्वारकाधीश, वे राधा मीरा गोपियों का विरह हैं और उनकी आराधना भी, वे सूरदास की दृष्टि हैं तो रसखान का अमृत भी, किंतु अपने हर रूप में पूर्ण और अनंत।

कृष्ण जैसा कोई पुत्र नहीं, उन सा कोई प्रेमी नहीं, कोई सखा नहीं, कोई भाई नहीं, कोई योद्धा नहीं, कोई दार्शनिक नहीं, कोई कूटनीतिज्ञ नहीं... वे हर रूप में चमत्कार करते हैं। "अनेक रूप रूपाय विष्णवे प्रभु विष्णवे" वे अतिमानवीय हैं, दैवीय हैं किंतू फिर भी सर्वसुलभ है। भक्त की एक आर्त पुकार पर नंगे पैर दौड़े चले आने वाले कृष्ण के कौन से रूप की व्याख्या की जाए और क्या सचमुच व्याख्या संभव है? जटिल प्रश्न है।
 
कृष्ण भारत की प्रज्ञा हैं, मेधा हैं। उनका संपूर्ण जीवन ही एक पाठशाला है। वे ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्ति योग का उद्गम हैं, वे पुरुषार्थ का, प्रेम का अनंत सागर हैं जिसमें गोते लगाने वाले को कौन-सा अद्भुद कोष हाथ लगता है, यह गोते लगाने वाला ही जानता है।
 
कृष्ण सच में जगद गुरु ही हैं। कृष्ण के जन्म से उनकी लीला संवरण तक हर घटना अपने आप में गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों को समेटे हुए है, जो हमें भी यह विश्वास दिलाती है कि हर घटना एक दूजे से जुड़ी है और निर्धारित क्रम में उसका होना पूर्व निर्धारित है। स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है, कृष्ण तत्व का अनुभव।
कृष्ण जन्म के समय बेड़ियों का टूटना ईश्वरीय अनुग्रह के पश्चात हर जीवात्मा का, हर बंधन से मुक्त होना दर्शाता है। यहां कृष्ण परम तत्व हैं। सहस्त्रार पर उस परम तत्व को अनुभव कर ही भव सागर तरता है, यह संदेश वसुदेव के यमुना को पार करने में निहित है। यहां कृष्ण योगेश्वर हैं, साधना का महत्त्व बताते हुए। जन्म के बाद कई भयानक राक्षकों का वध मानवीय वृत्त‍ियों के मान मर्दन का पर्याय है, यहां कृष्ण इन्द्रियों के दमन की वकालत करते हुए योगी हैं।  इंद्र की पूजा का विरोध कर्मकांड का विरोध है, गोवर्धन की पूजा प्रकृति के संरक्षण का प्रत्यक्ष प्रयास है।

जब वे मथुरा भेजे जाने वाले दूध का विरोध कर ग्वाल बाल पर उसके अधिकार की बात करते हैं, तो वे गरीबी, कुपोषण के उन्मूलन और अन्याय का विरोध करने वाले समाज सुधारक हैं। राधिका के साथ पवित्र प्रेम और उद्दात भक्ति के साथ प्लुटोनिक लव को दर्शाते हैं।


रास रचाते, मुरली बजाते कृष्ण स्थूल जीवन में ललित कलाओं के महत्व का प्रतिपादन करते हुए एक दक्ष कलाकार हैं, तो सूक्ष्म रूप में साधना में रत किसी प्राणी को होने वाले अनुभवों के रूप में इन दोनों कलाओं का वर्णन करते है। गोपाल बन कृषि प्रधान धरा पर पशु धन के संरक्षण का संदेश देते हैं।  ब्रजमंडल से पलायन, जीवन में कर्म धर्म व आदर्शों की स्थापना को व्यक्तिगत सुख से ऊपर रखने का अद्भुद व सर्वकालिक प्रासंगिक प्रयास है। कंस का वध अधर्म व अन्याय के विनाश हेतु संरक्षित बल के प्रयोग की आवश्यकता बताता है।
 
कुब्जा का उद्धार, सोलह हजार राजकुमारियों का उद्धार, द्रोपदी की रक्षा समाज में नारी अस्मिता को स्थापित करने का माध्यम है। सुदामा से प्रेम मित्र भाव की पराकाष्ठा है। शिशुपाल वध सहनशील होते हुए भी, अति होने पर बल प्रयोग व दंड विधान को अपनाने की अनिवार्यता दर्शाता है। महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच सतत चलने वाले द्वंद्व का चित्रण है। महाभारत जीवन के कटु यथार्थ का संग्रह है और मानवीय जीवन के इन कटु अनुभवों से कैसे सत्य व धर्म ( धारयेति इति धर्म:) की स्थापना की जाए, यही कृष्ण का शाश्वत संदेश है। गीता के रूप में नीति और प्रबंधन के चमत्कारी सूत्र केवल किसी ईश्वरीय सत्ता के मुख से ही निःसृत हो सकते हैं। जिन्होंने गीता पढ़ी है, वे ही इस चमत्कार का अनुभव कर सकते हैं।
 
कृष्ण की तरह किसी अवतार की प्रतीक्षा हम करें, यह भी ठीक नहीं, किंतू कृष्ण तत्व को, जगद्गुरु के स्वरूप को आत्मसात कर यदि हम अपने और अपने समाज के प्रबंधन के सूत्रों को समझ सकें, तो ही जन्म अष्टमी पर्व को उत्सव के रूप में मनाने की सार्थकता है।