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चिदंबरम और कांग्रेस ने खोई सहानुभूति

चिदंबरम और कांग्रेस ने खोई सहानुभूति - P. Chidambaram
पूर्व वित्तमंत्री और पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम अगर सीबीआई की हिरासत में हैं तो न्यायालयों के आदेश के कारण। पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी न केवल अग्रिम जमानत की अर्जी खारिज कर दी, बल्कि कहा कि यह मामला मनी लॉन्ड्रिंग यानी धनशोधन का क्लासिक उदाहरण है और हिरासत में लेकर पूछताछ जरुरी है। उसके बाद सीबीआई के विशेष न्यायालय ने भी सीबीआई की 5 दिनों की रिमांड अर्जी स्वीकार कर ली।
 
सीबीआई न्यायालय ने भी कहा कि पी. चिदंबरम के खिलाफ आरोप गंभीर प्रकृति के हैं और उनकी गहराई से जांच की जरूरत है। विशेष न्यायाधीश की टिप्पणी है कि यह मामला पूरी तरह से दस्तावेजी सबूतों पर आधारित है और उनकी प्रामाणिकता के लिए पूरी पड़ताल होनी चाहिए।

 
न्यायालय ने यहां तक कह दिया कि चिदंबरम को 2007-08 और 2008-09 में भुगतान किए जाने की बात एकदम स्पष्ट और वर्गीकृत है। ऐसी टिप्पणियों के बाद यदि कांग्रेस इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई कह रही है तो उसे इस बात का उत्तर देना चाहिए कि आखिर न्यायालय को चिदंबरम से क्या समस्या हो सकती है?
 
पिछले 2 वर्ष से न्यायालय ही उनको अग्रिम जमानत दे रहा था। जब न्यायालय सीबीआई एवं प्रवर्तन निदेशालय के दस्तावेजी सबूतों से आश्वस्त हो गया तभी तो उनकी अर्जी खारिज हुई। हालांकि रिमांड में भेजने का आदेश देते हुए भी सीबीआई न्यायालय नेद दो राहत दी। वे प्रतिदिन 30 मिनट के लिए वकीलों और परिजनों से मुलाकात कर सकते हैं। साथ ही यह भी कहा कि सीबीआई सुनिश्चित करे कि चिदंबरम की व्यक्तिगत गरिमा का किसी तरीके से हनन नहीं हो। सीबीआई को चिदंबरम के साथ पूछताछ के दौरान सम्मानूपर्वक व्यवहार करना होगा।
 
 
वास्तव में जिन्होंने आईएनएक्स मीडिया विदेशी निवेश प्रकरण पर नजर रखी है, उन्हें पता है कि इसमें राजनीतिक प्रतिशोध का कोई पहलू नहीं है। चिदंबरम कोई छोटे-मोटे व्यक्ति नहीं हैं। सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों की उनकी हैसियत के साथ यह भी पता है कि वे और उनकी पत्नी बड़े वकील हैं तथा कांग्रेस के अंदर बड़े-बड़े वकील हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय में उनकी अग्रिम जमानत के लिए बड़े वकीलों की पूरी टीम खड़ी थी। कानून के जितने पहलू उनके पक्ष में हो सकते थे, सारे प्रस्तुत किए गए। किंतु दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफतौर पर लिख दिया कि चिदंबरम ही इस मामले के मुख्य साजिशकर्ता एवं किंगपिन मालूम पड़ते हैं।
 
 
हालांकि यह आश्चर्य का विषय अवश्य है कि उच्च न्यायालय ने इतना समय क्यों लिया? 25 जनवरी को अंतिम सुनवाई हुई थी। करीब साढ़े 6 महीने न्यायालय ने अपना फैसला देने में लगाए। किंतु इससे इसे राजनीतिक रंग देना उचित नहीं होगा। पूरे देश ने देखा कि वकीलों की टीम, जिसमें कपिल सिब्बल से लेकर अभिषेक मनु सिंघवी, सलमान खुर्शीद, विवेक तन्खा आदि शामिल थे, उच्च न्यायालय के फैसले के तुरंत बाद उच्चतम न्यायालय पहुंच गए।

 
न्यायालय ने सुनवाई से इंकार किया तो वे निबंधक के यहां गए। मामला मुख्य न्यायाधीश के पास अगले दिन गया, जहां से 23 अगस्त सुनवाई की तिथि तय हुई। इसमें चिदंबरम के सामने अपने व्यक्तित्व और छवि का ध्यान रखते हुए सामने आने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। जब वे कांग्रेस कार्यालय में आए तो उनके साथ पत्रकार वार्ता में अनेक प्रमुख नेता उपस्थित थे।
 
उन्होंने अपने लिखे हुए बयान में बिना नाम लिए सरकार व जांच एजेंसियों को आरोपित किया, भावनात्मक दोहन के लिए आजादी के लक्ष्य को याद किया, स्वतंत्रता को सबसे मूल्यवान बताया और कहा कि जिनको झूठ बोलने की मानसिक बीमारी है, वे मेरे बारे में झूठ फैला रहे हैं। उसके बाद भी उन्होंने अपने को सीबीआई के हवाले नहीं किया। वे घर चले गए और स्थिति ऐसी बना दी कि सीबीआई को दिल्ली पुलिस का सहयोग लेना पड़ा एवं दीवार फांदकर उन्हें गिरफ्तार किया गया।
 
 
यहां यह सवाल उठता है कि चिदंबरम किसे झूठ बोलने की मानसिक बीमारी से ग्रस्त बता रहे थे? झूठ तो चिदंबरम और उनकी टीम बोल रही थी। वे कह रहे थे कि मैं कहीं भागा नहीं था। मैं तो रातभर उच्चतम न्यायालय के लिए अपने कागजात तैयार कर रहा था। वे भूल गए कि उनके वकीलों ने दिल्ली उच्च न्यायालय से अपील की थी कि उन्हें उच्चतम न्यायालय जाने का समय दे दिया जाए।
 
उच्च न्यायालय ने इसे नकार दिया। चिदंबरम ने यहां न्यायालय के आदेश की अवहेलना की। अपने कद के अनुसार उच्च न्यायालय के आदेश के बाद उन्हें स्वयं कहना चाहिए था कि मैं सीबीआई एवं प्रवर्तन निदेशालय के पास जा रहा हूं। कांग्रेस मुख्यालय में पत्रकारों को बयान देने के बाद भी यदि वे इसकी घोषण कर देते तो भी उनकी छवि इतनी खराब नहीं होती।
 
 
इसमें यदि चिदंबरम या कांग्रेस पार्टी मानती है कि उनको पीड़ित मानकर देश की सहानुभूति उनको मिलेगी तो ऐसा नहीं हो सकता। न्यायालय के 2-2 आदेश हैं। सीबीआई न्यायालय में भी वकीलों की पूरी टीम खड़ी थी। चिदंबरम को भी बोलने का मौका मिला। इसमें कांग्रेस अगर कह रही है कि सभी को चुप कराने के उद्देश्य से वरिष्ठ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर झूठे आरोप लगाए जा रहे हैं, तो कौन इसे स्वीकार करेगा?
 
 
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजीव गांधी की 75वीं जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि उनको अपार बहुमत मिला था लेकिन उन्होंने इसका इस्तेमाल किसी को डराने के लिए नहीं किया। यह नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप था। यही आरोप दिल्ली उच्च न्यायालय में चिदंबरम के वकीलों ने लगाया था। न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए कहा कि उनके खिलाफ जांच एजेंसियों के पास ऐसे पर्याप्त सबूत हैं जिनके आधार पर कार्रवाई होनी चाहिए। तो न्यायालय ने भी राजनीतिक प्रतिशोध के आरोप को खारिज कर दिया। 
 
कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने उच्चतम न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय के साथ मीडिया को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। सिब्बल ने कहा कि जिस तरह ऑर्डर पास किए जा रहे हैं, वह बेहद चिंता की बात है। 
सिब्बल की कुछ पंक्तियों पर नजर डालिए- 'दिल्ली उच्च न्यायालय के जज साहब ने 25 जनवरी से ही फैसला सुरक्षित रखा था और 7 महीने बाद जब सेवानिवृत्ति के 2 दिन बचे, तो फैसला दे दिया। 3.25 बजे फैसला दिया गया। हमने जमानत की याचिका पेश की तो इसे अपराह्न 4 बजे खारिज कर दिया गया ताकि हम उच्चतम न्यायालय भी नहीं जा सकें।'

 
उच्चतम न्यायालय के बारे में उनके विचार देखिए- 'हमें कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश इस पर फैसला लेंगे जबकि सुप्रीम कोर्ट हैंडबुक के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश संवैधानिक पीठ में व्यस्त हैं, तो नियम यह है कि दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश सुनवाई करें। हमें अपना अधिकार नहीं मिला। कोर्ट सुनवाई ही नहीं करेगी और 2 दिन बाद के लिए याचिका लिस्ट करेगी और इस बीच गिरफ्तारी हो जाए, तो इसका मतलब है कि पिटिशन इंफेक्चुअस (निष्प्रभावी) हो गई।'
 
 
इसी उच्चतम न्यायालय ने 26 अगस्त तक प्रवर्तन निदेशालय को चिदंबरम की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। सिब्बल और सिंघवी दोनों मीडिया पर बरस रहे थे। आपका मीडिया कह रहा है कि चिदंबरम भाग गए हैं। उन्होंने सवाल किया कि क्या वे भागने वाले आदमी हैं? आप विचार करिए।
 
कांग्रेस की नजर में उच्च न्यायालय का न्यायाधीश गलत, उच्चतम न्यायालय भी गलत और मीडिया भी गलत। सरकार तो खैर बदले की कार्रवाई कर ही रही है। सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय को सरकार के पिंजरे से निकला हुआ चील और न जाने क्या-क्या नाम कांग्रेस के नेता दे रहे हैं। सरकार, सारी संस्थाएं और न्यायालय तक अगर कांग्रेस के खिलाफ हो गई है, तब तो इस समय पार्टी के अनेक नेताओं को जेल में होना चाहिए था।
 
 
कुछ मामले तो यूपीए सरकार के समय से चल रहे हैं, तो कुछ मोदी सरकार के आने के बाद से ही। किसी को कानून का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया हो या परेशान किया गया हो, इसका प्रमाण कांग्रेस नहीं दे रही है। उसी उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय से सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अन्य नेताओं की गिरफ्तारी ही नहीं, पूछताछ तक से छूट मिली हुई है।
 
वास्तव में इस पूरे प्रकरण में चिदंबरम ने अपनी ज्यादा छवि खराब की। उनके जैसे व्यक्ति को कानून के पालन का एक उदाहरण बनना चाहिए था। सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी उनको टॉर्चर करने का साहस तो नहीं ही करेंगे। एक समय जमानत भी मिलनी है और अगर वे निर्दोष हुए तो रिहा भी हो सकते हैं। चिदंबरम सहित पूरी कांग्रेस पार्टी ने इससे देश की सहानुभूति पाने की गलत कोशिश में अपने खिलाफ नाराजगी ज्यादा पैदा की है।
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