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भारत-अमेरिकी संबंधों की नियति की झलक

भारत-अमेरिकी संबंधों की नियति की झलक - Modi in America, modi America visit, joe biden, kalamla haris
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर संपूर्ण दुनिया की नजर लगी हुई थी। हालांकि वे संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने वहां गए लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति जो बिडेन तथा उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ द्विपक्षीय मुलाकात का कार्यक्रम निर्धारित था। इसके साथ क्वाड का भी पहला आमने सामने का शिखर सम्मेलन जुड़ गया एवं ऑस्ट्रेलिया तथा जापान के प्रधानमंत्री के साथ बातचीत भी।

ये मुलाकातें तथा क्वाड से निकले संदेश की ओर भी दुनिया की दृष्टि थी। चार महत्वपूर्ण देशों के नेताओं द्वारा एक संगठन के बैनर के तहत किए निर्णयों का व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रभाव होना है। लेकिन दुनिया की मुख्य अभिरुचि बिडेन तथा कमला हैरिस से मोदी की मुलाकात पर केंद्रित थी। बिडेन के राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के बाद मोदी की उनसे आमने-सामने की पहली मुलाकात थी। वर्चुअल रूप से क्वाड सम्मेलन, जलवायु परिवर्तन पर आयोजित सम्मेलन तथा समूह 7 के शिखर सम्मेलन में आमने-सामने थे।

इस बीच कोविड सहित ऐसी कई घटनाएं हो गई जिसने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को पूरी तरह प्रभावित किया है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के फैसले ने नई विश्व व्यवस्था की एक भयावह तस्वीर दुनिया के सामने रखी है। इसमें बिडेन के साथ मोदी की मुलाकात का महत्व ज्यादा बढ़ गया था।

भारत अमेरिकी संबंध केवल दो सामान्य देशों के राजनयिक स्तर तक सीमित नहीं है और न केवल दोनों सामरिक साझेदार हैं, बल्कि 2016 में रक्षा साझीदार बनने के बाद कई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को लेकर इनकी सम्मिलित भूमिका हो चुकी है।

इसमें अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी और तालिबान के आधिपत्य के बाद भारतीय उपमहाद्वीप की सामरिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई है। अमेरिका ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ऑस्ट्रेलिया से आकुस समझौता किया है जिसके तहत ऑस्ट्रेलिया में परमाणु पनडुब्बियों का निर्माण होगा तथा एशिया प्रशांत के लिए विशेष व्यवस्था में तीनों मिलकर काम करेंगे। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की पिछली तीन अमेरिकी यात्राओं तथा भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एवं विदेश सचिव  आदि की अपने अमेरिकी समकक्षों से बातचीत के बाद भावी संबंधों की तस्वीर को लेकर कुछ निष्कर्ष अवश्य आया होगा। जाहिर है, मोदी _बिडेन और उसके पहले मोदी हैरिस की बातचीत में निश्चित रूप से ये सारे मुद्दे रहे होंगे।

बिडेन और मोदी की बैठक 1 घंटे के लिए निर्धारित थी लेकिन यह डेढ़ घंटे तक चली। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बातचीत में कितने विषय और बिंदु शामिल रहे होंगे। स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत के संदर्भ में भावना और भविष्य को लेकर इसके महत्व का भी द्योतक है। बिडेन ने कहा भी कि अगली बार जब हम मिलेंगे तो इसे 2 दिनों से अधिक के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए। यानी हमारे बीच परस्पर सहमति और साझेदारी के इतने मुद्दे हैं कि घंटे -दो घंटे में हम उन्हें निपटा नहीं सकते।

हमने देखा भी कि मोदी का व्हाइट हाउस में उन्होंने किस गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्होंने ट्वीट भी किया कि आज मैं व्हाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत कर रहा हूं। उन्होंने कहा कि आप जिस कुर्सी पर बैठ रहे हैं इस पर हमारी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस बैठती हैं और क्या संयोग है कि वह भी भारतीय मूल की हैं। राजनय में इनका महत्व होता है। इससे पता चलता है कि मेजबान देश आपके प्रति क्या भाव रखता है।

वास्तव में बिडेन से बातचीत के पहले उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से मुलाकात एवं बातचीत में आधारभूमि तैयार हो गई थी।  हैरिस ने आतंकवाद को लेकर मोदी की बातों का सार्वजनिक समर्थन किया और कहा कि पाकिस्तान में आतंकवादी हैं और उसे रोकने का कदम उठाना चाहिए ताकि भारत और अमेरिका दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। तो यह अमेरिकी प्रशासन की नीति है। इसमें भारत और अमेरिका दोनों की सुरक्षा को समान स्तर पर रख कर बात करना महत्वपूर्ण है। जैसा विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंखला ने बताया कि दोनों मुलाकातों में हिंद प्रशांत क्षेत्र ही नहीं पूरे विश्व में चीन के उभरते खतरे, अफगानिस्तान में तालिबान के बाद आतंकवाद की चुनौतियां, जलवायु परिवर्तन, उभरती तथा उत्कृष्ट प्रौद्योगिकी में परस्पर सहयोग आदि को लेकर विस्तृत बातचीत हुई।

प्रधानमंत्री मोदी ने यात्रा आरंभ करते समय ट्विट करके बताया था कि हम द्विपक्षीय वैश्विक साझेदारी की समीक्षा करेंगे। जो कुछ जानकारी है उसके अनुसार द्विपक्षीय एवं वैश्विक साझेदारी, रक्षा और सुरक्षा सहयोग मजबूत करना, आतंकवाद व कट्टरपंथ के खिलाफ साझा रणनीति, सीमा पार आतंकवाद रोकने के तरीकों पर विचार, अफगानिस्तान संकट से निपटने की रणनीति, चीन के विस्तारवाद पर लगाम कसना, द्विपक्षीय व्यापार और निवेश संबंधों को मजबूत करना, जलवायु परिवर्तन, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार, स्वच्छ ऊर्जा साझेदारी को बढ़ावा देना आदि विषय बातचीत में समाहित थे।

भारत में मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने माहौल ऐसा बनाया था किअमेरिका में कमला हैरिस मोदी के समक्ष कश्मीर सहित मानवाधिकार के मुद्दे, धार्मिक स्वतंत्रता आदि पर घेरेंगी तथा बिडेन से मुलाकात में भी ये विषय आएंगे। ऐसा कुछ हुआ नहीं, न होना था। कमला हैरिस उपराष्ट्रपति हैं और अमेरिकी हितों का संरक्षण उनका मुख्य लक्ष्य।

भारत जैसे वैश्विक स्तर के मजबूत साझेदार के प्रति एक भी नकारात्मक शब्द से उल्टा संदेश निकल सकता है और परिणाम भी विपरीत आ सकते हैं। यह मोदी बिडेन की मुलाकात का ही परिणाम था कि क्वाड में जब मोदी ने आतंकवाद और अफगानिस्तान का मुद्दा उठाया तो बिडेन का इसमें समर्थन मिला। ऑस्ट्रेलिया और जापान का समर्थन तो मिलना ही था। तो हम परिणतियों को किस रूप में देखें?

दरअसल, बिडेन के नेतृत्व में अमेरिका ने अभी तक अपनी सुरक्षा सहित संपूर्ण सामरिक-अंतरराष्ट्रीय नीति के जो संदेश दिए हैं उन पर गहराई से विचार कर भारत जैसे देश को भविष्य के लिए अपनी रणनीति बनानी होगी। मोदी से मुलाकात के आरंभ में ही बिडेन ने कहा कि हमें गांधीजी को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने अहिंसा और सहनशीलता की बात की थी। बिडेन लगातार अहिंसा और सहनशीलता की बात कर रहे हैं। पिछले दिनों चीन के संबंध में भी उन्होंने सहनशीलता तथा बातचीत का बयान दिया है।

इसके मायने क्या हो सकते हैं? अगर अफगानिस्तान का कदम यह संदेश है कि अमेरिका विश्व भर से रक्षा ऑपरेशन या उपस्थिति को खत्म करना चाहता है तथा चीन से निश्चित टकराव देखते हुए भी उससे बचने की नीति होगी तो इससे पूरे विश्व की सामरिक स्थिति में अकल्पनीय बदलाव आ सकता है। हालांकि मोदी ने बिडेन को कहा कि गांधीजी ने ट्रस्टीशिप की बात की थी जिसे द्विपक्षीय एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी ध्यान रखना पड़ेगा।

वास्तव में हमें यह ध्यान रखना होगा कि अमेरिका आतंकवाद पर भारत का समर्थन भले करे लेकिन पाकिस्तान को लेकर न उसने निर्णायक कार्रवाई की है और न इसका कोई संदेश दिया है। अमेरिका को जहां-जहां परेशानी महसूस हुई, इराक, लीबिया, सीरिया आदि उसने कार्रवाई की, अफगानिस्तान में 20 वर्ष रहा लेकिन पाकिस्तान को लेकर पता नहीं क्यों हमेशा आगा-पाछा की नीति रही है। इसलिए वे क्या कहते हैं इस पर हमें नहीं जाना है।

निस्संदेह, मोदी की अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से बातचीत सफल रही। इसमें एक शब्द ऐसा नहीं आया जो भारत की सोच, नीति और भविष्य में दोनों की साझेदारी के विरुद्ध संकेत देने वाला हों। भारतीय मत का इसमें व्यापक समर्थन तथा भविष्य में द्विपक्षीय संबंधों के बहुआयामी चरित्र को और सुदृढ़ करने का ही संदेश आया। लेकिन यह भी साफ है कि भारत को कई मोर्चों पर स्वयं ही लड़ाई लड़नी होगी। आकुस समझौते में भी भारत जापान को बाहर रखा गया जबकि क्वाड में चारों देश शामिल हैं।

पनडुब्बी भारत में क्यों नहीं निर्मित हो सकती? फ्रांस अमेरिका का पुराना साझेदार है लेकिन अमेरिका ने समझौता करते हुए उसका भी ध्यान नहीं रखा। फ्रांस ने पांच वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया को पनडुब्बी देने का समझौता किया था। आज फ्रांस ने ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका से राजदूत तक वापस बुला लिए हैं।

इस तरह की नीति अकल्पनीय थी। है तो इसको स्वीकार कर ही आगे आना पड़ेगा। बिडेन कई कारणों से इस समय परेशानी का सामना कर रहे हैं। अफगानिस्तान से वापसी को लेकर दुनिया ही नहीं अमेरिका में भी आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिकी साख और इकबाल कमजोर हुआ है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती फिर से साख और प्रभाव को पुनर्स्थापित करने की है। अभी तक इस दिशा में उन्होंने कोई संकेत दिया नहीं। मोदी के साथ दोनों नेताओं की बातचीत में भी इसके कोई संकेत नहीं मिले। अमेरिका भारी कर्ज में भी है।

उससे बाहर निकलना भी उसकी समस्या है। जब जो बिडेन सत्ता में आए थे उस समय कोरना का भयानक प्रकोप तेजी से बढ़ा, बीच में थोड़ी कमी आई और इस समय फिर अमेरिका उससे जूझ रहा है। फ्रांस की नाराजगी को स्वभाविक मानते हुए नाटो के साझेदार भी शंका की दृष्टि से अमेरिका को देख रहे हैं। अमेरिका से जुड़े तथा जहां उसके सैन्य अड्डे हैं, उन देशों के  अंदर यह भय पैदा हो गया है कि जब तक उसका स्वार्थ होगा तब तक वह ठहरेगा और वापस चला जाएगा। चीन इसका लाभ उठाने के लिए आतुर है। ये सब ऐसे मामले हैं जिनको लेकर अमेरिकी प्रशासन के साथ लगातार बातचीत, नेताओं के शीर्ष स्तर पर मुलाकात और उसमें आए निष्कर्षों के अनुरूप साझेदारी को नए सिरे से विकसित करने की आवश्यकता दिखाई पड़ रही है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)
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