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Written By Author अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
Last Updated : शुक्रवार, 7 अगस्त 2020 (15:07 IST)

छ:सौ अरब बनाम 5 रुपए रोज

Dr. Ram Manohar Lohia | छ:सौ अरब बनाम 5 रुपए रोज
60 से 70 के दशक में देश की लोकसभा में पहुंचे भारत की आजादी तथा समाजवादी आंदोलन के नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने लोकसभा में सवाल उठाया था कि भारत का गरीब साढ़े तीन आने रोज पर जिंदा है। बड़ा हल्ला मचा था। तत्कालीन सरकार ने तत्काल आंकड़ों का जोड़ बाकी गुणा-भाग करके डॉ. लोहिया और देश को लोकसभा में जानकारी देते हुए बताया कि यह सत्य नहीं है। भारत का गरीब साढ़े तीन आने नहीं, चौदह आने रोज पर जिंदा है। इस बहस और सरकार के जवाब को 60 साल हो गए।
 
डॉ. लोहिया ने जब यह सवाल उठाया था तब भारत का लोकतंत्र वयस्क भी नहीं हुआ था। आजादी पाए देश को 16-17 साल ही हुए थे। आजाद भारत में सरकारें और आगेवान आबादी गरीबों को संपन्न बनाने में भले ही अभी तक सफल नहीं हुई हो, पर आजाद भारत में अपनी आर्थिक संपन्नता का ढोल पीटते रहने में लगातार व्यस्त रहती है। संपन्न और गरीब की जिंदगी के स्तर में अतिशयोक्ति न भी करें, तो भी भारत में आकाश-पाताल का भेद तो है ही! इस भेद के अनुपात और मात्रा को समझना और दोनों तरह के लोगों को सुख-दु:ख में सहभागी बनाना यह आज के भारत में खुली चुनौती है।
 
आज हम सब कोरोना महामारी के मकड़जाल में उलझ गए हैं। भारत के लोगों को लंबे समय के लॉकडाउन के चलते सरकारी मदद ही जीवन जीने का तात्कालिक और आपातकालीन सहारा है, क्योंकि कॉर्पोरेट बाजार तो भारत की गरीब आबादी को कोई राहत या राशन की मदद करता दिख नहीं रहा है। उनकी दृष्टि तो 1 अरब 35 करोड़ उपभोक्ताओं से व्यापार करने की है और व्यापार में राहत? व्यापार में राहत नहीं, थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा देने का रिवाज होता है। विश्व व्यापार के इस कालखंड में तो यह रिवाज भी नहीं है। तो गरीब आबादी के पास न तो काम करने का कोई अवसर है और न ही रोजी-रोटी की लगातार उपलब्धता। इसीलिए सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे की आबादी के लिए राहत पैकेज की घोषणा स्वयं राष्ट्र के नाम विशेष संदेश के द्वारा अभी हाल में ही की।
 
आंकड़े तो आंकड़े ही होते हैं। आंकड़ों से सरकार और बाजार की रफ्तार भले ही चलती हो, पर जिंदगी की जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। हम गरीब हों या संपन्न, मूलत: हम हैं तो मनुष्य। हर मनुष्य को सामान्य काल में भी और आपातकाल में भी दोनों समय कम से कम जीने लायक भोजन तो आवश्यक है। फिर भी हमारी जीवनशैली और जीवनदृष्टि यह तय करती है कि संपन्नता-विपन्नता की अहमियत हमारे दिल-दिमाग में किस रूप में रची-बसी है। आज आर्थिक विषमता अपने चरम पर है।
कुछ लोगों की ही संपन्नता भारत की आजादी और संविधान का लक्ष्य नहीं है। हर भारतीय नागरिक को गरिमामय रूप से जीवन जीने का मूलभूत अधिकार ऐसे ही अपने आप जमीन पर नहीं उतरता। यह हम सबने अच्छे से समझना चाहिए। अभी पिछले माह ही देश के चुने हुए मुखिया ने देश के नाम संदेश में देश के विपन्नों यानी गरीबी रेखा से नीचे के नागरिकों को महामारी के दौर में आपातकालीन राहत देने की घोषणा करते हुए बताया कि देश के 80 करोड़ लोगों को नवंबर माह तक यानी अगले 5 माह तक प्रतिमाह 5 किलो गेहूं या चावल और 1 किलो चना बिना कीमत लिए दिया जाएगा।
 
1 किलो गेहूं का दाम 20 रुपए और 1 किलो चने का दाम 50 रुपए मानें तो इसका अर्थ यह है कि देश के गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को 150 रुपए प्रतिमाह की राहत राशन सामग्री जीवन निर्वाह हेतु मिलेगी। यह भारत के गरीबों का जीवन कौशल है कि वे इस राहत सामग्री में जी पा रहे हैं। शायद कुपोषण भूख, बेरोजगारी और लाचारी ही उनकी विपन्न जिंदगी का दूसरा नाम है। 1 माह में प्राय: 30 दिन होते हैं। 5 रुपए रोज यानी सुबह और शाम की भूख भारत के विपन्नों को ढाई रुपए की भोजन सामग्री में शांत करना होगी। 5 किलो गेहूं या चावल को रुपए के बजाय वजन या मात्रा से समझें तो 5 माह तक भारत के गरीबी रेखा से नीचे के नागरिकों के सामने 100 ग्राम से भी कम गेहूं या चावल सुबह और इतना ही शाम को भी खाकर 5 माह तक जीवन निर्वाह करना महामारी काल में करते रहने की चुनौती है।
 
भारत के गरीब नागरिक के सामने अल्प भोजन सामग्री में जीवन निर्वाह कर महामारी से मुकाबले लायक इम्युनिटी को भी अपने अंदर बनाए रखने की भी बड़ी चुनौती है। आंकड़ों का मायाजाल बहुत भयावह होता है, जैसे यह 150 रुपए की राहत सामग्री के आंकड़ों की घोषणा में कहा गया कि 80 करोड़ विपन्न लोगों को जुलाई से नवंबर यानी 5 माह तक राशन देने पर 120 अरब रुपए प्रतिमाह के हिसाब से 600 अरब रुपए की राशि खर्च होगी।
 
इस तरह 150 रुपया जो ऊंट के मुंह में जीरे जैसी राशि है, जब वह प्रधानमंत्री की घोषणा में 600 अरब की विशाल राशि के रूप में दिखाई देती है तो हम सबको लगता है कि यह कितनी बड़ी राहत की घोषणा है। इसी राहत की 600 अरब की राशि को हम जब 80 करोड़ भारत के गरीब नागरिकों के जीवन में आई महामारी के कठिन समय में जब गरीब भारतीयों के पास महज जिंदा रहने के लिए पहुंचेगी तो 600 अरब का विशाल अंक 150 रुपए प्रतिमाह से सिकुड़कर 5 रुपए रोज यानी 2.50 रुपए सुबह और 2.50 रुपए शाम प्रति व्यक्ति जीवन निर्वाह की क्षुद्रतम राशि का स्वरूप धारण कर लेगा।
 
आज और कल जो बीत गया, उसमें हम कोई मूलभूत अंतर देख पा रहे हैं या नहीं? यही भारत के लोकतंत्र का अपने संपन्न-विपन्न नागरिकों और लोकतांत्रिक राजनीति से सीधा सवाल है कि 16-17 साल के लोकतंत्र में एक अकेला सांसद डॉ. लोहिया देश की सरकार से जब सवाल करता था कि देश में गरीब लोगों की जिंदगी में बेहतरी कैसे आए, तो उसको लेकर बुनियादी और लंबी बहस चलती थी। आज 73 साल के लंबे लोकतांत्रिक अनुभव के बाद हम हमारे सारे संस्थान, सामाजिक, राजनीतिक और गैरराजनीतिक ताकतें गरीबी व कुपोषण के सवाल पर बुरी तरह सन्नाटे में हैं।
 
बेहतर व ताकतवर देश बनाने के संवैधानिक दायित्व निभाने वाले प्रधानमंत्री अपने संबोधन में सन् 60 का वही आंकड़ा बता रहे हैं, जो डॉ. लोहिया ने सरकार को आईना बताते हुए देश की संसद में 60 साल पहले बताया था। सन् 60 के 14 आने और 2020 के 5 रुपए रोज में गरीब आदमी का दोनों समय का केवल खाना 200 ग्राम राशन से खा पाना यह बताता है कि हम सन् 60 से आगे नहीं बढ़े, बल्कि बहुत पीछे पहूंच रहे हैं। गरीबों को जीवनावश्यक राशन या खाना देने या गरीबों को भोजन जुटाने के कौशल में आत्मनिर्भर बनाने के मामले में पिछड़ गए हैं।
 
तबके प्रधानमंत्री साढ़े 3 आना सुन चौंके और झल्लाए भी थे और आज के प्रधानमंत्रीजी देश को 5 रुपए की राशि में 200 ग्राम अनाज में दोनों समय खाकर गरीबों को जीवन में राहत देने की बात बड़ी उपलब्धि की तरह राष्ट्र के नाम संदेश में दे चुके हैं। आज गरीबों के भोजन और कुपोषण का यह आंकड़ा बहस और राजनीतिक चर्चा तो छोड़िए, निजी चर्चा में ही नहीं है।
 
प्रधानमंत्री की घोषणा कि 600 अरब की अतिविशाल लगने वाली आकर्षक राशि गरीबी रेखा के नीचे वाले आदमी के हाथों में पहुंच एक दिन दोनों समय का भोजन खा पाने के लिए एकाएक कितनी अधिक नाकाफी या क्षुद्रतम हो जाती है। आबादी के अनुपात और भूख की मात्रा को समझे बिना केवल आंकड़े ही भूख मिटाते तो शायद गरीबों को भूख ही नहीं लगती। हम सबके जीवन को गहराई से प्रभावित करने वाले इस ज्वलंत विषय पर हम सबका भौंचक्क मौन और अचर्चा हमारे लोकतांत्रिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के कुपोषण व असंवेदनशीलता का परिचायक तो नहीं है?
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
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