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Last Updated : मंगलवार, 7 अप्रैल 2020 (16:27 IST)

अगर हम सावधान नहीं रहे तो कोरोना संकट व्यक्तिवाद के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकता है

अगर हम सावधान नहीं रहे तो कोरोना संकट व्यक्तिवाद के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकता है - corona in india
-रोहिणी नीलेकणी

कोई भी व्यक्ति एक टापू नहीं है. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि वह एक अलग व्यक्ति ही नहीं है। यह विचार ही हर समाज की नींव है

पश्चिम में व्यक्तिवाद यूरोप के एनलाइटेनमेंट मूवमेंट से शुरू हुआ। यह किसी व्यक्ति के निजी महत्व में विश्वास करता है और मानता है कि उसके हितों को राज्य या किसी सामाजिक समूह के आगे वरीयता दी जानी चाहिए। इसने ही फ्री मार्केट कैपिटलिज्म को जन्म दिया जिसमें हर व्यक्ति को अपना कारोबार चलाने की पूरी स्वतंत्रता होती है।

पश्चिमी सिद्धांतों पर आधारित व्यक्तिवाद दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से जबर्दस्त चलन में रहा। तब भी जब यूरोप का एक बड़ा हिस्सा एक अदृश्य ‘आइरन कर्टेन’ से दो भागों में बंटा हुआ थ। और उस दौरान भी जब चीन ने अपना बाजार खोला नहीं था। पूरी दुनिया पर अमेरिका के प्रभाव ने उस व्यक्तिवाद को देशों की सीमाओं में नहीं बंधने दिया जिसके मूल में अपनी मर्जी से प्रगति की इबारत लिखने वाला व्यक्ति था।

इसी दौरान एक और तरह का व्यक्तिवाद देखने को मिला। यह महात्मा गांधी और जिनसे वे प्रभावित थे, उनके विचारों पर आधारित था। इस व्यक्तिवाद की जड़ें आध्यात्मिक थीं। वे व्यक्ति को सिर्फ अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला नहीं मानते थे बल्कि एक नैतिक एजेंट के तौर पर देखते थे। वे मानवाधिकारों को समाज की प्रगति के केंद्र में रखते थे। इसमें जोर सबसे कमजोर आदमी के अधिकारों पर था जिसके लिए राज्य और समाज को अपने धर्म का निर्वहन करना था।

व्यक्तिवाद का पहला विचार पिछली तीन सदियों में तमाम नई खोजों की वजह बना। इस दौरान उद्यमियों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने विचारों, उत्पादों और सेवाओं के एक वैश्विक बाजार को जन्म दिया। इस वजह से दुनिया में जितनी भौतिक समृद्धि आई उतनी शायद पहले कभी नहीं आई थी।

व्यक्तिवाद के दूसरे विचार ने सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के कल्याण के लिए राज्य और समाज द्वारा सर्वाधिक किये जाने की आधारशिला रखी। यह हर व्यक्ति की गरिमा को बनाये रखते हुए उसे सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने का एक महाप्रयोग था। लेकिन पिछले लगभग एक दशक में व्यक्तिवाद और व्यक्ति की प्रधानता के सिद्धांतों को सबसे ज्यादा चोट पहुंची है। इसकी तीन मुख्य वजहें हैं:

व्यक्तिवाद के हृास की पहली वजह आतंकवाद और आर्थिक मंदी से जुड़ती है। 9/11 की घटना ने चीजों को रातों-रात बदल दिया। इस वजह से उस अमेरिका के लोगों को, जो व्यक्तिवादिता और स्वतंत्रतावाद का सबसे बड़ा गढ़ रहा है, सुरक्षा के एवज में अपनी स्वतंत्रता और निजता को छोड़ देना पड़ा। इसके बाद 2008 की आर्थिक मंदी आई। इसके चलते हमने वैश्वीकरण के बाद की दुनिया में प्रवेश किया। इस दौरान ऐसी प्रभुत्ववादी ताकतों का उभार हुआ जिन्होंने राज्य की सत्ता को और मजबूत करने का काम किया। इसके बाद कई देशों में उस देशभक्ति का स्थान, जिसमें देश के प्रति प्यार को ईमानदार आलोचना के रूप में भी अभिव्यक्त किया जा सकता था, एक ऐसे सख्त राष्ट्रवाद ने ले लिया जिसमें देश हर सही-गलत के परे होता है।

इसकी दूसरी वजह इंटरनेट की दुनिया के महाबलियों और उनके विशाल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का उदय है। शुरुआत में ये व्यक्ति की प्रधानता को मजबूती देने वाले खंभे लगे थे। इस दुनिया में सिटिजन नहीं नेटिजन था जो अपनी हर तरह की राय पूरी दुनिया को दे सकता था। यहां पर उपभोक्ता राजा था और एक आम आदमी उद्यमी।

दुर्भाग्य से व्यक्तिगत पसंद एक छलावा साबित हुई। यह निगरानी करने वाले ऐसे पूंजीवाद की शुरुआत थी जिसमें उपभोक्ता सिर्फ डेटा का एक पैकेट भर था। उसकी पसंद-नापसंद को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से कैसे भी तोड़ा-मरोड़ा जा सकता था। इन तकनीकों ने ही राज्य को सर्वेलेंस स्टेट बनने की क्षमता दी जिसने लोगों के अधिकारों और निजता को बहुत तेजी से सीमित करने का काम किया। यहां तक कि लोगों का मत देने का अधिकार, जोकि लोकतंत्र को उनका सबसे कीमती उपहार होता है, भी जोड़-तोड़ की चीज बन गया।

व्यक्तिवाद को चोट की तीसरी वजह यह है कि दुनिया अब एक-दूसरे पर पहले से ज्यादा निर्भर है। जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और एंटिबायोटिक्स रजिस्टेंस किसी सीमा को नहीं पहचानते। आज अफ्रीका से निकला कोई जीवाणु अमेरिका के लोगों को भी बीमार बना सकता है। और इंडोनेशिया के जंगलों में लगी आग से एशिया के कई देशों को अपना दम घुटता लग सकता है।

ऐसे में यदि हम सतर्क नहीं रहे तो कोविड-19 व्यक्तिवाद के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम कर सकती है। इसकी वजह से हमें आनन-फानन में अपने व्यक्तिगत अधिकारों का समर्पण करना पड़ा और खुद को राज्य या दूसरी संस्थाओं के फैसलों के हवाले कर देना पड़ा। हम अपनी स्वतंत्रता का त्याग अपनी इच्छा से कर रहे हैं क्योंकि ऐसा न करना हमें खतरे में डाल देगा। व्यक्तिवाद का विचार वहां सर के बल खड़ा हो जाता है जब हमें अहसास होता है कि दूसरों के कृत्य हम पर और हमारे दूसरों पर कितना असर डालते हैं।

लेकिन हमें व्यक्तिवाद के सकारात्मक पहलुओं को खोने नहीं देना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारी व्यक्तिगत पहचान ताकत के दम पर काम करने वाले किसी ऐसे समूह में विलीन न हो जाए जो किसी भी बड़ी इकाई या कानून के शासन के प्रति उत्तरदायी नहीं है। किसी सरकार का आदेश मानना एक बात है और बेकार के डरों के आगे झुक जाना, विशेषकर ‘दूसरे लोगों से भय’ के आगे दूसरी। हम पहले से ही भीड़ की हिंसा और तुरंत न्याय करने की प्रवृत्ति को बढ़ता देख रहे हैं। डरे हुए गांव वाले बाहर वालों के आने पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। डॉक्टरों को उनके घर पर आने से रोका जा रहा है। पुलिस वाले बिना किसी डर के लाठियां भांज रहे हैं।

इस महामारी पर इस तरह की प्रतिक्रियाएं एक लंबे समय के लिए सकारात्मक व्यक्तिवाद को खत्म करने का काम कर सकती हैं। समाज को बहुत फुर्ती और समझदारी से निजी और सार्वजनिक हितों के बीच संतुलन को वापस लाने का प्रयास करना होगा। कोई भी व्यक्ति एक टापू नहीं है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि वह एक अलग व्यक्ति ही नहीं है। यह विचार ही हर समाज की नींव है।- 
साभार: सत्‍याग्रह