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Written By WD
Last Modified: गुरुवार, 26 जून 2014 (19:39 IST)

पहाड़ को यहां से देखिए

-प्रियदर्शन

पहाड़ को यहां से देखिए -
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ठीक एक साल पहले एक बहुत बड़ी त्रासदी ने केदारनाथ और उसके आसपास के पूरे इलाके को अपनी चपेट में ले लिया था। उस त्रासदी में आधिकारिक तौर पर 4200 से ज़्यादा लोग मारे गए और क़रीब 1500 लापता की सूची में डाल दिए गए। अनुमान यह है कि इसमें जान गंवाने वालों की वास्तविक संख्या इसके दुगुने से ज्यादा रही होगी। बहरहाल, उस त्रासदी ने टीवी चैनलों के उत्साही पत्रकारों को फिर मौत के तांडव के बीच ब्रेकिंग न्यूज की सनसनाती पट्टियों से खेलने का सुख और मौका दिया।

सबसे पहले केदारनाथ पहुंचने की होड़, उस मंदिर के बचे रहने को ईश्वरीय चमत्कार बताने वाली अधकचरी आस्था और उस इस पूरी त्रासदी को लेकर उससे भी अधकचरे हडबड़ाए हुए नतीजों के बीच कुछ गिने-चुने पत्रकार ऐसे थे जो बड़ी खामोशी के साथ हिमालय का दर्द समझने की कोशिश कर रहे थे, यह देख रहे थे कि यह त्रासदी सिर्फ सैलानियों पर नहीं, वहां के आम लोगों पर किस तरह बीती है और कैसे पूरे हिमालय के साथ घट रहा एक अघटित हमारी नज़र से ओझल है।

इन्हीं पत्रकारों में एक हृदयेश जोशी की किताब ‘तुम चुप क्यों रहे केदार’ अब आई है जो उस त्रासदी के विभिन्न पक्षों को बड़ी संवेदनशीलता के साथ पकड़ती है। हृदयेश वाकई उन पत्रकारों में थे जो अपनी जान जोखिम में डालकर, टूट रहे पहाड़ों, हरहरा रही नदियों और श्मशान बनी बस्तियों से होते हुए सबसे पहले केदारनाथ गए। उस एक यात्रा के बाद उन्होंने आने वाले दौर में कई यात्राएं कीं। वे चुपचाप, बिना कैमरे के, बिना रिपोर्ट किए, यह देखने-समझने में लगे रहे कि आखिर बीते साल केदारनाथ में हुआ क्या था और क्यों हुआ था।

उन्होंने भूवैज्ञानिकों से बात की, पर्यावरणविदों से जानकारी जुटाई, समाजशास्त्रियों से पूछा, और आख़िरकार पाया कि जिसे बस एक साल का हादसा बताया जा रहा है, वह दरअसल हिमालय के इस इलाक़े में हर साल घटित होता है- बस इस फ़र्क के साथ कि जून 2013 में वह कहीं ज़्यादा बड़े पैमाने पर घटा था और उसे एक साथ कई प्रक्रियाओं ने हवा दी थी। उन्होंने देखा कि विकास के नाम पर पहाड़ को अपनी अटैचियों में भर-भर कर ले जाने की चालाकी किस तरह हिमालय को खोखला कर रही है, उन्होंने पाया कि कभी जंगल और कभी जानवर बचाने के नाम पर बनाए गए हवाई कानून किस कदर वहां मनुष्य विरोधी साबित हो रहे हैं, उन्होंने समझा कि जो राजनीति पहाड़ के आसपास बुनी गई है, वह कैसे पहाड़ को ही अपना आहार बना रही है।

नहीं, यह किताब नतीजे निकालने की हड़बडी में लिखी गई किताब नहीं है। यह उस त्रासदी के साथ हमकदम होते हुए उसके तमाम पहलुओं को पकड़ने की कोशिश है, जिसमें इंसानी गरिमा के शिखर भी दिखते हैं और कहीं-कहीं उसके पतन के पाताल भी। यह किताब भीतर से तोड़े जा रहे पहाड़ का सुराग देती है और यह चेतावनी भी कि धरती के साथ संतुलन का जो रिश्ता है, अगर वह टूट गया तो हममें से कोई नहीं बचेगा।

जिस दौर में पत्रकारिता बड़ी पूंजी के दबाव में छोटे-छोटे खेल में लगी है, जब अख़बार और टीवी चैनल बदलते हुए मध्यवर्ग की रंगीनमिज़ाजी को बहाना बनाते हुए लगातार सतही और फूहड़ हो रहे हैं, उस दौर में हृदयेश जोशी की यह किताब पत्रकारिता की पूरी परंपरा के प्रति उम्मीद बंधाती है। लेकिन इसका असली महत्व इस बात में है कि बहुत दूर से दिखाई पड़ सकने वाले जिस हिमालय को हमारे सार्वजनिक विमर्श में लगभग ओझल कर दिया गया है, उसे वह फिर से केंद्र में लाती है। इसे पढ़ना अनुभव के नए और ज़रूरी पहाड़ों पर चढ़ना है।

पुस्तक : तुम चुप क्यों रहे केदार
लेखक : हृदयेश जोशी
प्रकाशन : आलेख प्रकाशन
मूल्य : 395 रुपए