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Written By DW
Last Updated : मंगलवार, 30 मार्च 2021 (17:43 IST)

क्या खत्म हो रहा है देश में जर्मन चांसलर का दबदबा

Angela Merkel |क्या खत्म हो रहा है देश में जर्मन चांसलर का दबदबा
रिपोर्ट : महेश झा
 
पिछले हफ्ते जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने कोरोना को रोकने के लिए लिए गए एक फैसले को वापस ले लिया और इसके लिए लोगों से माफी मांगी। क्या चांसलर का माफी मांगना सही था?
  
सरकारें सब कुछ सोच समझकर करती हैं इसलिए कभी गलती नहीं करतीं। चांसलर एंजेला मर्केल ने पिछले हफ्ते जब एक फैसले को पलटने के लिए माफी मांगी तो बहुत से लोगों ने इसे मानवीय समझा। लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं, जो इसे चांसलर की कमजोरी बता रहे हैं। हालांकि ईसाई बहुल जर्मनी में ईस्टर से पहले सख्त लॉकडाउन का फैसला चांसलर का अकेले का फैसला नहीं था। यह 16 प्रांतों के मुख्यमंत्रियों के साथ मिलकर लिया गया था लेकिन इस बैठक का नेतृत्व वही कर रही थीं इसलिए यदि फैसला गलत था तो उसके लिए वही जिम्मेदार थीं।
 
चांसलर मर्केल को अब अपने माफी मांगने के फैसले का बचाव करना पड़ रहा है, क्योंकि उनकी ही पार्टी के कुछ मुख्यमंत्री अपने राज्यों में इन फैसलों को लागू करने के लिए तैयार नहीं हैं। चांसलर ने शुरू से कोरोना के मामले पर पारदर्शिता और तकनीकी अधिकारियों यानि डॉक्टरों और संक्रमण विशेषज्ञों से राय लेने की नीति अपनाई है। राजनीतिक फैसले तथ्यों पर आधारित होने चाहिए लेकिन अक्सर राजनीतिक मजबूरियों से प्रेरित होते हैं। सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के सांसद कार्ल लाउटरबाख सख्त लॉकडाउन की मांग कर रहे हैं तो बहुत से मुख्यमंत्रियों के लिए अपने लोगों को ये समझाना मुश्किल हो रहा है कि रेस्तरां और होटल क्यों बंद रहें जबकि लोग दूसरे देशों की यात्रा पर जा सकते हैं।

 
समस्या चांसलर की पार्टी की भी है। चांसलर के बाद कोई ताकतवर नेतृत्व उभर कर सामने नहीं आया है। हालांकि देश के सर्वाधिक आबादी वाले प्रांत नॉर्थराइन वेस्टफेलिया के मुख्यमंत्री पार्टी के नए अध्यक्ष चुन लिए गए हैं, लेकिन उनका दबदबा अभी बना नहीं है। और उस पर तुर्रा ये कि जर्मनी में नियमित रूप से होने वाले सर्वे में चांसलर की सीडीयू-सीएसयू पार्टियों के लिए समर्थन गिर कर सिर्फ 25 प्रतिशत रह गया है। चांसलर को जवाब देना पड़ रहा है कि क्या वे लेम डक बन गई हैं और देश में अपनी बात मनवाने की हालत में नहीं रह गई हैं। ये सारी बहस ऐसे समय में हो रही है जब देश में कोरोना संक्रमितों की तादाद लगातार बढ़ रही है और लॉकडाउन का कोई असर नहीं दिख रहा है।
 
डिजीटल युग में लोकतंत्र
 
चांसलर की माफी का मुद्दा बहुत कुछ डिजीटल युग में लोकतंत्र से जुड़ा है। डिजीटलीकरण ने कर्मचारियों के ऊपर काफी समय से दबाव बढ़ रखा है। अब ये दबाव सरकार में उच्च पदों पर बैठे नेताओं तक भी पहुंच रहा है। डिजीटल युग ने आम लोगों को भी ताकत दी है, विपक्षी पार्टियां और पत्रकार सवाल न भी करें, तो मतदाता सवाल करने लगा है। और सोशल मीडिया ने उसे ये ताकत दे दी है कि वह सत्ताधारियों से भी सवाल पूछ सके, कोई भी सवाल। ऐसे सवाल भी जो राजनीति और मीडिया के गठबंधन के कारण पत्रकार तक नहीं पूछते।
 
शर्त सिर्फ एक है कि सत्ताधारी न तो निरंकुश सोच वाला राजनीतिज्ञ हो और न ही बदले की आग में जलने वाला इंसान। सवाल पूछने पर उसके बदले उसके समर्थक आप पर टूट न पड़ें, और सरकारी तंत्र आपको विलेन बनाना न शुरू कर दे। सारे इंसान गलती करते हैं और इसमें चांसलर या राजनीतिज्ञ या बड़े पदों पर बैठे अधिकारी कोई अपवाद नहीं हैं, क्योंकि वे भी इंसान हैं। डिजीटल युग ने उनके लिए भी फैसले लेने के समय को कम दिया है और फैसला लेने के लिए जरूरी मुद्दों को बढ़ा दिया है। और उस पर विपक्ष, मीडिया और मतदाताओं का दबाव।
 
चांसलर एंजेला मर्केल की माफी नई राजनीति का प्रतीक है। वह फैसले अपने पद के अधिकार से नहीं बल्कि आपसी सहमति से करना चाहती हैं। जर्मनी संघीय संरचना वाला देश है, जहां फैसलों पर अमल की जिम्मेदारी राज्यों की है। अगर राज्य अमल ही न करें तो फैसलों का क्या महत्व। हालांकि चांसलर और देश के 16 राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा फैसले लिए जाने की संसदीय प्रणाली के समर्थक आलोचना कर रहे हैं क्योंकि यह संसंद और विधान सभाओं के अधिकार कम कर रहा है। लेकिन विधायिकाओं में बहुमत की स्थिति को देखते हुए इस फॉर्मेट के फैसलों को लागू किए जाने की संभावना सबसे अधिक हैं।
 
कोरोना के कदमों पर विवाद
 
कई महीनों से जारी लॉकडाउन के बावजूद संक्रमित होने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। चांसलर एंजेला मर्केल इसके लिए राज्यों के ढीले रवैये को जिम्मेदार मानती है। चांसलर और 16 राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन अपनी धार खोता जाता रहा है। चांसलर ने राज्यों को सख्त कदमों की धमकी दी है। अब ये उनके बचे खुचे रुतबे पर निर्भर करेगा कि राज्य उनकी बात मानते हैं या नहीं। बहुत से राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, लेकिन चांसलर की मुसीबत अपनी ही पार्टी के कुछ मुख्यमंत्री हैं।
 
ये सारा विवाद देश की लोकतांत्रिक संरचना का विवाद भी है। मर्केल के पास ये विकल्प है कि वे संसद में बहुमत होने के कारण नया कानून बनाकर केंद्र सरकार को और अधिकार दे दें। लेकिन उन्हें ये भी पता है कि कई मुद्दों पर उन्हें संसद के ऊपरी सदन बुंडेसराट की सहमति लेनी होगी, जो राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। उनका सामना फिर उन्हीं मुख्यमंत्रियों से होगा।
 
और ये फिलहाल दिखने लगा है। चांसलर मर्केल राज्यों में लॉकडाउन खत्म करने की तैयारी मॉडल टेस्ट के खिलाफ हैं तो उनकी पार्टी के नए अध्यक्ष आर्मिन लाशेट इन्हें लागू करने के लिए तत्पर हैं। सीडीयू के शासन वाले जारलैंड में संक्रमण की दर कम है लेकिन वहां रेस्तरां और सिनेमा थिएटर खोलने के राज्य सरकार के इरादे को चांसलर का समर्थन नहीं है। जारलैंड के पड़ोसी फ्रांस में कोरोना संक्रमण की दर काफी ऊंची है।
 
कुल मिलाकर सरकारें और सरकारों को चलाने वाले लोग भी परेशान हैं। एक ओर मतदाता है, जो महीनों के लॉकडाउन के बाद सारा धीरज खो बैठे हैं, तो दूसरी ओर केंद्र सरकार और डॉक्टर हैं, जो महामारी के फैलने पर ऐसी स्थिति में नहीं आना चाहते कि वे लोगों का इलाज न कर सकें। और सबसे बढ़कर परेशान कर रखा है फार्मेसी कंपनियों ने जो जरूरी मात्रा में टीकों की सप्लाई नहीं कर रहीं। एक बार सब को कोरोनारोधी टीके लग जाएं तो स्थिति थोड़ी सामान्य होगी। राजनीतिक विवाद भी घटेगा। तबतक एंजेला मर्केल के जाने का भी वक्त आ जाएगा।
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