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Last Modified: बुधवार, 10 अप्रैल 2019 (10:43 IST)

छोटे राज्यों की पीड़ा कब समझेंगे बड़े प्रांतों के नेता

छोटे राज्यों की पीड़ा कब समझेंगे बड़े प्रांतों के नेता | elections 2019
भारत के छोटे राज्यों में शराब, पर्यटक और पोलिंग पार्टियां कोने कोने तक पहुंच जाती हैं, लेकिन सरकारी योजनाएं रास्ता भटक जाती हैं। क्या ज्यादा सीटों की धौंस छोटे राज्यों की अनदेखी करती है?
 
 
चीन की सीमा के पास बसा उत्तराखंड का मिलम गांव। पास के कस्बे मुनस्यारी से मिलम गांव की दूरी करीब 56 किलोमीटर है। वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी 2008 में वहां इंटीग्रेटड रूरल प्लानिंग की रिसर्च कर चुकी है। यूनिवर्सिटी की टीम वहां पैदल पहुंची थी। आज 11 साल बाद भी मिलम घाटी के गांवों तक जाने का रास्ता पगडंडियों वाला है। मिलन घाटी के आस पास 200 किलोमीटर की परिधि में कुछ शहर जरूर हैं, लेकिन अच्छा अस्पताल किसी में नहीं। गांवों में कहावत है कि अगर कोई ज्यादा बीमार हो जाए तो लोगों का एक दल मरीज को डोली पर रख कर शहर की तरफ ले जाता है और दूसरा समूह अंतिम संस्कार की तैयारी करने में जुट जाता है।
 
 
मिलम घाटी के लोग भी 11 अप्रैल को वोट डाल सकें इसके लिए 8 अप्रैल को ही पोलिंग पार्टी रवाना कर दी गई। उत्तराखंड के दुर्गम और अतिदुर्गम इलाकों तक पहुंचने में पोलिंग पार्टी को डेढ़ से दो दिन तक पैदल चलना पड़ेगा। यह विडंबना ही है कि चुनावों के दौरान पोलिंग पार्टियां कोने कोने तक पहुंच जाती हैं, लेकिन चुनाव के बाद सरकारों की नीतियां वहां तक नहीं पहुंच पातीं। मतदान के बाद इन दुर्गम इलाकों से लौटे सरकारी कर्मचारी तरह तरह के किस्से सुनाते हैं, वे किस्से अंचभे के साथ शुरू व खत्म होते हैं और समस्याएं बनी रहती हैं।
 
 
यह हाल पांच सीटों वाले उत्तराखंड राज्य का है। 2014 के चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य के पर्वतीय इलाकों में रैलियां की। उन्होंने कहावत दोहराते हुए कहा कि "पहाड़ पर न पानी टिकता है, न जवानी।" मोदी ने दोनों को रोक कर स्थानीय विकास का नारा दिया। राज्य ने पांचों लोकसभा सीटें बीजेपी की झोली में डालीं। बाद में विधानसभा में भी प्रचंड बहुमत दे दिया। कुछेक बांध परियोजनाओं से पानी तो रुक गया लेकिन जवानी नहीं रुकी। बीते पांच साल में उत्तराखंड के कम से कम 10,000 गांव खाली हो चुके हैं।
 
 
गिनती भर सीटों वाले पूर्वोत्तर भारत की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है। मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, मिजोरम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में लोकसभा की सिर्फ एक सीट है, यानि पूरे राज्य को सिर्फ एक सांसद चुनना है। उसी अकेले सांसद को मेघालय के 11, नागालैंड के 12, सिक्किम के 4, मिजोरम के 8 और त्रिपुरा के 8 जिलों का प्रतिनिधित्व करना है। दो संसदीय सीटों वाले अरुणाचल प्रदेश की स्थिति बहुत भिन्न नहीं। दो सांसदों वाला मणिपुर तो लंबे वक्त से हिंसा का शिकार रहा है। मणिपुर की दो महिलाएं राज्य के इस विरोधाभास को दिखाती हैं। मीडिया में मणिपुर की आग, मुक्केबाज मेरी कॉम और सन 2000 से 2016 तक धरने पर बैठने वाली इरोम शर्मिला ही नजर आती रही हैं।
 
 
यह साफ है कि छोटे राज्य राजनीतिक रूप से 30, 48, 50 या 80 सीटों वाले बड़े प्रांतों के सामने नहीं टिक पाते हैं। संख्याबल की धौंस से चलने वाली सरकारें इन राज्यों से न कोई पर्यावरण मंत्री चुनती हैं, न ही कोई स्वास्थ्य मंत्री। सांकेतिक तौर पर कभी कभार यहां के नुमाइंदे राज्य मंत्री जरूर बना दिए जाते हैं, वो भी ऐसे अंदाज में जैसे लंबे समय से अनदेखी के शिकार बच्चे को अहसान के तौर पर कोई तोहफा दे दिया हो।
 
 
चाहे उत्तराखंड हो या उससे सैकड़ों किलोमीटर दूर बसे पूर्वोत्तर राज्य, लोगों की टीस एक जैसी है। 11 अप्रैल के मतदान संपन्न होने के बाद भी इन इलाकों के लोग बेहतर उच्च शिक्षा संस्थानों की कमी, पढ़ाई और रोजगार के लिए दिल्ली या अन्य महानगरों की तरफ रुख करते रहेंगे। जो पीछे छूट जाएंगे वे अच्छे अस्पतालों तक पहुंचने के लिए कभी डोलियों का सहारा लेंगे और तो कभी सैकड़ों किलोमीटर कच्ची पक्की सड़कों का।
 
 
रिपोर्ट ओंकार सिंह जनौटी
 
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