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Written By DW
Last Modified: सोमवार, 15 अक्टूबर 2012 (12:31 IST)

भारत-चीन युद्ध : 50 साल बाद चीनियों की राय

भारत-चीन युद्ध : 50 साल बाद चीनियों की राय -
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युद्ध को लेकर चीन की जनता बिलकुल अलग तरीके से सोचती है। हमें जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं, उसके मुताबिक चीन की जनता इस युद्ध में खुद को जीती हुई नहीं मानती, बल्कि इस युद्ध को नकारती है. पढ़िए उनकी राय।

भविष्य में भी अंधेरा : भारत और चीन के बीच युद्ध की जड़ आपस में भरोसे की कमी थी। आज तक इस गांठ को सुलझाया नहीं जा सका है।

लेकिन दोनों देश व्यावहारिक हैं और दोनों के रिश्ते इस वक्त बहुत बुरे नहीं हैं। लेकिन अगर उन रिश्तों की गहराई में देखा जाए, तो समस्याएं दिखती हैं। आज की पीढ़ी के लिए जो युद्ध 50 साल पहले लड़ा गया, वह बहुत पीछे छूट चुका है लेकिन दोनों देशों के बीच का भविष्य अभी अंधेरा ही दिखता है। - तान वाइदोंग, शांदोंग, चीन

जीत के हार, हार के जीत : युद्ध पहली नजर में चीन की जीत और भारत की हार से खत्म हुआ। लेकिन सच्चाई कुछ और है। चीन एक विजेता है लेकिन उसने कुछ जीता नहीं और भारत पराजित राष्ट्र है लेकिन वह कुछ खोया नहीं। विजेता ने सच्चाई में सब कुछ हारा लेकिन उस पर हारे हुए की मुहर नहीं लगी।

जिसने युद्ध हारा, उसने सच में सब कुछ जीता लेकिन उस पर जीतने वाले के तौर पर मुहर नहीं लगी। चीन ने हमेशा यह सफाई दी कि भारत को चेतावनी देना और सबक सिखाना जरूरी था।

चीन ने इसके साथ अपना चेहरा तो बचाया लेकिन व्यापक तौर पर देखा जाए तो उसने बहुत कुछ गंवा दिया। मुझे अफसोस है कि ये युद्ध ने भारत की जनता के दिल में गहरी छाप छोड़ी है। इसकी वजह से चीन के प्रति अविश्वास और नफरत पैदा हुआ। - लिन शिंयांगशियान, अनहुई, चीन

जानकारी की कमी : चीनी सरकार के लिए भारत न कभी मुख्य दुश्मन रहा है न सबसे अच्छा दोस्त। दोनों देशों को हिमालय अलग करता है। चीनी सरकार के नियंत्रण वाली मीडिया भारत के बारे में कम रिपोर्टिंग करती है।

युद्ध के बारे में तो कभी नहीं बताती। इसलिए अगर भारत के प्रति दिलचस्पी को देखी जाए, तो वह अमेरिका, यूरोप, रूस, वियतनाम और कोरिया की तुलना में बहुत कम है। और कंबोडिया से भी कम है। ये चीन के सभी लोगों पर लागू होता है। मैं खुद भी ऐसा ही सोचता हूं। क्या यह अजीब बात नहीं है? - इन हुआरोंग, शिचुआन

युद्ध से सीख लो : पिछले दिनों में जब जापान के खिलाफ चीन में भारी प्रदर्शन हुए, तब युद्ध की भनक मिल रही थी। और इस बार यह भनक दूर भारतीय सीमा से नहीं आ रही थी, बल्कि पूर्व की तरफ समुद्र से थी।

अगर क्षेत्र का विवाद है, तो क्या इसे सिर्फ युद्ध से ही सुलझाया जा सकता है? अगर हम 50 साल पहले के युद्ध को देखें और अगर हम आज के जमाने में चीन और जापान के दावों को देखें, तब हमें समझना चाहिए कि समझदारी से काम लेना चाहिए।

भारत के खिलाफ युद्ध में शामिल हो चुके एक पूर्व सैनिक का इंटरनेट पर दिए एक इंटरव्यू में कहना है कि अपने हाथों से उसने मारे गए साथी जवानों को हिमालय के बर्फ में दफनाया। उसने युद्ध में अपनी सेहत गंवा दी पर वह खुशकिस्मत था कि किसी तरह जिंदा रहा।

एक अनुमान के मुताबिक दोनों पक्षों के 7500 सैनिक या तो मारे गए या घायल हो गए। यानी इतनी जिंदगियां चली गईं। हजारों परिवार प्रभावित हुए। उन्हें दुख उठाना पड़ा। मां बाप अपने बेटे खो बैठे, औरतें अपने पति और बच्चे अपने बाप। ये दुख उनकी पूरी जिंदगी उनके साथ रहेगा।

परिणाम क्या निकला। क्या यह जो कीमत चुकानी पड़ी, उससे क्षेत्रीय विवाद सुलझ पाया। नहीं। लेकिन उसके लिए लोगों का जीवन दांव पर लगा दिया गया। किस लिए। कौन है विजेता। मेरे हिसाब से कोई नहीं।

हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए। न चीनी जनता और ना भारतीय जनता की कोई दिलचस्पी है कि 1962 जैसा युद्ध दोबारा हो। उम्मीद है कि राजनीतिक सत्ता को इतनी अकल होगी। - जू यांगफेई, शांदोंग, चीन

अब तक नहीं सुलझा मामला : चीन के ज्यादातर छात्रों ने स्कूलों में इस युद्ध के बारे में कभी नहीं सुना होगा। विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी तभी सुना होगा, जब इंटरनेट आया और वे इंटरनेट में बढ़ी हुई सूचना की आजादी का लाभ उठा रहे हैं।

लेकिन मुझे लगता है कि हर भारतीय बच्चे को जरूर पता होगा कि 1962 में एक युद्ध हुआ। उसे जरूर यह भी पता होगा कि भारत इस युद्ध में पराजित हुआ। शायद भारतीय बच्चों को यह भी बताया गया होगा कि यह बहुत शर्म की बात है कि चीनी सेना भारत के इलाके में घुस गई थी।

लेकिन क्या हम लोगों को पता है कि यह जो विवादित क्षेत्र है, वह उस वक्त भी करीब 50 साल से भारत का ही था। या अगर मैं दूसरे शब्दों में बोलूं कि 1962 के युद्ध के बाद फिर से 50 साल हो गए हैं और चीन अब तक फैसला नहीं कर पाया है कि इस सीमा विवाद को कैसे सुलझाए।

क्या चीन के नेताओं को समझ नहीं आता है कि बहुत समय बीत चुका है, अब इस मुद्दे को सुलझाना चाहिए या फिर उनकी चुप्पी और उनका कुछ न करने का मतलब यह है कि उन्होंने यह इलाका भारत को सौंप दिया है। - लू चिन, हेई लोंगजियांग, चीन
संकलन : एरनिंग सू
संपादन : अनवर जे. अशरफ