शुक्रवार, 29 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. इतिहास-संस्कृति
  3. भारतीय
  4. history of maharana pratap in hindi
Written By

मेवाड़ का वीर योद्धा महाराणा प्रताप

मेवाड़ का वीर योद्धा महाराणा प्रताप | history of maharana pratap in hindi
भारतीय इतिहास में राजपुताने का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। यहां के रणबांकुरों ने देश, जाति, धर्म तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने में कभी संकोच नहीं किया। उनके इस त्याग पर संपूर्ण भारत को गर्व रहा है। वीरों की इस भूमि में राजपूतों के छोटे-बड़े अनेक राज्य रहे जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया। इन्हीं राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशिष्ट स्थान है जिसमें इतिहास के गौरव बप्पा रावल, खुमाण प्रथम महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, उदयसिंह और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने जन्म लिया है।
सवाल यह उठता है कि महानता की परिभाषा क्या है। अकबर हजारों लोगों की हत्या करके महान कहलाता है और महाराणा प्रताप हजारों लोगों की जान बचाकर भी महान नहीं कहलाते हैं। दरअसल, हमारे देश का इतिहास अंग्रेजों और कम्युनिस्टों ने लिखा है। उन्होंने उन-उन लोगों को महान बनाया जिन्होंने भारत पर अत्याचार किया या जिन्होंने भारत पर आक्रमण करके उसे लूटा, भारत का धर्मांतरण किया और उसका मान-मर्दन कर भारतीय गौरव को नष्ट किया।

 
मेवाड़ के महान राजपूत नरेश महाराणा प्रताप अपने पराक्रम और शौर्य के लिए पूरी दुनिया में मिसाल के तौर पर जाने जाते हैं। एक ऐसा राजपूत सम्राट जिसने जंगलों में रहना पसंद किया लेकिन कभी विदेशी मुगलों की दासता स्वीकार नहीं की। उन्होंने देश, धर्म और स्वाधीनता के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया।

 
कितने लोग हैं जिन्हें अकबर की सच्चाई मालूम है और कितने लोग हैं जिन्होंने महाराणा प्रताप के त्याग और संघर्ष को जाना? प्रताप के काल में दिल्ली में तुर्क सम्राट अकबर का शासन था, जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य की स्थापना कर इस्लामिक परचम को पूरे हिन्दुस्तान में फहराना चाहता था। इसके लिए उसने नीति और अनीति दोनों का ही सहारा लिया। 30 वर्षों के लगातार प्रयास के बावजूद अकबर महाराणा प्रताप को बंदी न बना सका।

 
जन्म : महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ईस्वी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। लेकिन उनकी जयंती हिन्दी तिथि के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को मनाई जाती है। उनके पिता महाराजा उदयसिंह और माता राणी जीवत कंवर थीं। वे राणा सांगा के पौत्र थे। महाराणा प्रताप को बचपन में सभी 'कीका' नाम लेकर पुकारा करते थे। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है।
 
राज्याभिषेक : महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ था। राणा प्रताप के पिता उदयसिंह ने अकबर से भयभीत होकर मेवाड़ त्याग कर अरावली पर्वत पर डेरा डाला और उदयपुर को अपनी नई राजधानी बनाया था। हालांकि तब मेवाड़ भी उनके अधीन ही था। महाराणा उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के समय अपने छोटे पुत्र को गद्दी सौंप दी थी जोकि नियमों के विरुद्ध था। उदयसिंह की मृत्यु के बाद राजपूत सरदारों ने मिलकर 1628 फाल्गुन शुक्ल 15 अर्थात 1 मार्च 1576 को महाराणा प्रताप को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया।
 

उनके राज्य की राजधानी उदयपुर थी। राज्य सीमा मेवाड़ थी। 1568 से 1597 ईस्वी तक उन्होंने शासन किया। उदयपुर पर यवन, तुर्क आसानी से आक्रमण कर सकते हैं, ऐसा विचार कर तथा सामन्तों की सलाह से प्रताप ने उदयपुर छोड़कर कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके को अपना केन्द्र बनाया।
 
कुल देवता : महाराणा प्रताप उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। उनके कुल देवता एकलिंग महादेव हैं। मेवाड़ के राणाओं के आराध्यदेव एकलिंग महादेव का मेवाड़ के इतिहास में बहुत महत्व है। एकलिंग महादेव महादेव का मंदिर उदयपुर में स्थित है। मेवाड़ के संस्थापक बप्पा रावल ने 8वीं शताब्‍दी में इस मंदिर का निर्माण करवाया और एकलिंग की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी।
 
प्रताप के पिता उदयसिंह ने प्रताप को जब नहीं सौंपी राजगद्दी तो...
 

जगमल सिंह : उदयसिंह का अपनी समस्त रानियों में से भटियानी रानी पर सर्वाधिक प्रेम था। इसी कारण उन्होंने भटियानी रानी के पुत्र जगमल सिंह को प्रताप सिंह पर वरीयता प्रदान कर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। प्रताप सिंह ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे।
उन्होंने अपनी मृत्यु के समय जगमल को राजगद्दी सौंप दी। उदयसिंह की यह नीति गलत थी, क्योंकि राजगद्दी के हकदार महाराणा प्रताप थे। प्रजा तो महाराणा प्रताप से लगाव रखती थी। जगमल को गद्दी मिलने पर जनता में विरोध और निराशा उत्पन्न हुई।
 
जगमल ने राज्य का शासन हाथ में लेते ही घमंडवश जनता पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। जगमल बेहद डरपोक और भोगी-विलासी था। यह देखकर प्रताप जगमल के पास गए और समझाते हुए कहा कि क्या अत्याचार करके अपनी प्रजा को असंतुष्ट मत करो। समय बड़ा नाजुक है। अगर तुम नहीं सुधरे तो तुम्हारा और तुम्हारे राज्य का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। जगमल ने इसे अपनी शान के खिलाफ समझा।
 
गुस्से में उसने कहा, ‘तुम मेरे बड़े भाई हो सही, परंतु स्मरण रहे कि तुम्हें मुझे उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। यहां का राजा होने के नाते मैं ये आदेश देता हूं कि तुम आज ही मेरे राज्य की सीमा से बाहर चले जाने का प्रबंध करो।’
 
प्रताप चुपचाप वहां से चल दिए। प्रताप अपने अश्वागार में गए और घोड़े की जीन कसने की आज्ञा दी। महाराणा प्रताप के पास उनका सबसे प्रिय घोड़ा 'चेतक' था। महाराणा उदय सिंह के निधन के पश्चात मेवाड़ के समस्त सरदारों ने एकत्र होकर महाराणा प्रताप सिंह को राज्यगद्दी पर आसीन करवाया था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कुम्भलगढ़ के राजसिंहासन पर किया गया।
 
अगले पन्ने पर अकबर और जगमल सिंह...
 

उधर, जगमल सिंह नाराज होकर बादशाह अकबर के पास चले गए और बादशाह ने उनको जहाजपुर का इलाका जागीर में प्रदान कर अपने पक्ष में कर लिया। इसके पश्चात बादशाह ने जगमल सिंह को सिरोही राज्य का आधा राज्य प्रदान कर दिया। इस कारण जगमल सिंह के सिरोही के राजा सुरतान देवड़ा से दुश्मनी उत्पन्न हो गई और अंत में ईस्वी सन् 1583 में हुए युद्ध में जगमल सिंह काम आ गए थे।
 
जिस समय महाराणा प्रताप सिंह ने मेवाड़ की गद्दी संभाली, उस समय राजपुताना साम्राज्य बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। बादशाह अकबर की क्रूरता के आगे राजपुताने के कई नरेशों ने अपने सर झुका लिए थे। कई वीर प्रतापी राज्यवंशों के उत्तराधिकारियों ने अपनी कुल मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। कुछ स्वाभिमानी राजघरानों के साथ ही महाराणा प्रताप भी अपने पूर्वजों की मर्यादा की रक्षा हेतु अटल थे और इसलिए तुर्क बादशाह अकबर की आंखों में वे सदैव खटका करते थे।
 
अगले पन्ने पर महाराणा प्रताप की शक्ति का परिचय...
--------------------------------------------------- 
 
महाराणा प्रताप जिस घोड़े पर बैठते थे वह घोड़ा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में से एक था। महाराणा प्रताप तब 72 किलो का कवच पहनकर 81 किलो का भाला अपने हाथ में रखते थे।
 
भाला और कवच सहित ढाल-तलवार का वजन मिलाकर कुल 208 किलो का उठाकर वे युद्ध लड़ते थे। सोचिए तब उनकी शक्ति क्या रही होगी। इस वजन के साथ रणभूमि में दुश्मनों से पूरा दिन लड़ना मामूली बात नहीं थी। अब सवाल यह उठ सकता है कि जब वे इतने शक्तिशाली थे तो अकबर की सेना से वे दो बार पराजित क्यों हो गए? इस देश में जितने भी देशभक्त राजा हुए हैं उसके खिलाफ उनका ही कोई अपना जरूर रहा है। जयचंदों के कारण देशभक्तों को नुकसान उठाना पड़ा है।
 
अगले पन्ने पर अकबर ने की प्रताप की प्रशंसा...
 

मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने कई प्रयास किए। अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप अन्य राजाओं की तरह उसके कदमों में झुक जाए। महाराणा प्रताप ने भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था। अजमेर को अपना केंद्र बनाकर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया। महाराणा प्रताप ने कई वर्षों तक मुगलों के सम्राट अकबर की सेना के साथ संघर्ष किया। मेवाड़ की धरती को मुगलों के आतंक से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने वीरता और शौर्य का परिचय दिया।
 
प्रताप की वीरता ऐसी थी कि उनके दुश्मन भी उनके युद्ध-कौशल के कायल थे। उदारता ऐसी कि दूसरों की पकड़ी गई मुगल बेगमों को सम्मानपूर्वक उनके पास वापस भेज दिया था। इस योद्धा ने साधन सीमित होने पर भी दुश्मन के सामने सिर नहीं झुकाया और जंगल के कंद-मूल खाकर लड़ते रहे। माना जाता है कि इस योद्धा की मृत्यु पर अकबर की आंखें भी नम हो गई थीं। अकबर ने भी कहा था कि देशभक्त हो तो ऐसा हो। 
 
अकबर ने कहा था, 'इस संसार में सभी नाशवान हैं। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परंतु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। पुत्रों ने धन और भूमि को छोड़ दिया, परंतु उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया। हिन्द के राजाओं में वही एकमात्र ऐसा राजा है जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।' 
 
अगले पन्ने पर हल्दी घाटी का विश्वप्रसिद्ध युद्ध...
 

मेवाड़ पर आक्रमण : अपनी विशाल मुगलिया सेना, बेमिसाल बारूदखाने, युद्ध की नवीन पद्धतियों के जानकारों से युक्त सलाहकारों, गुप्तचरों की लंबी फेरहिस्त, कूटनीति के उपरांत भी जब तुर्क बादशाह अकबर समस्त प्रयासों के बाद भी महाराणा प्रताप को झुकाने में असफल रहा तो उसने आमेर के महाराजा भगवानदास के भतीजे कुंवर मानसिंह (जिसकी बुआ जोधाबाई अकबर जैसे विदेशी से ब्याही गई थी) को विशाल सेना के साथ डूंगरपुर और उदयपुर के शासकों को अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश करने के लक्ष्य के साथ भेजा। मानसिंह की सेना के समक्ष डूंगरपुर राज्य अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका।
 
इसके बाद कुंवर मानसिंह महाराणा प्रताप को समझाने हेतु उदयपुर पहुंचे। मानसिंह ने उन्हें अकबर की अधीनता स्वीकार करने की सलाह दी, लेकिन प्रताप ने दृढ़तापूर्वक अपनी स्वाधीनता बनाए रखने की घोषणा की और युद्ध में सामना करने की घोषणा भी कर दी। मानसिंह के उदयपुर से खाली हाथ आ जाने को बादशाह ने करारी हार के रूप में लिया तथा अपनी विशाल मुगलिया सेना को मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। आखिरकार 30 मई ई.सं. 1576, बुधवार के दिन प्रातःकाल में हल्दी घाटी के मैदान में विशाल मुगलिया सेना और रणबांकुरी मेवाड़ी सेना के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया। 
 
मुगलों की विशाल सेना टिड्डी दल की तरह मेवाड़-भूमि की ओर उमड पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के साथ जबरदस्त तोपखाना भी था। अकबर के प्रसिद्ध सेना पति महावत खां, आसफ खां, महाराजा मानसिंह के साथ शाहजादा सलीम (जहांगीर) भी उस मुगल वाहिनी का संचालन कर रहे थे, जिसकी संख्या इतिहासकार 80 हजार से 1 लाख तक बताते हैं।
 
इस युद्ध में प्रताप ने अभूतपूर्व वीरता और साहस से मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए और अकबर के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। विकट परिस्थिति में झाला सरदारों के एक वीर पुरुष ने उनका मुकुट और छत्र अपने सिर पर धारण कर लिया। मुगलों ने उसे ही प्रताप समझ लिया और वे उसके पीछे दौड़ पड़े। इस प्रकार उन्होंने राणा को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने का अवसर प्रदान कर दिया। इस असफलता के कारण अकबर को बहुत गुस्सा आया।
 
तब तुर्क बादशाह अकबर स्वयं विक्रम संवत 1633 में शिकार के बहाने इस क्षेत्र में अपने सैन्य बल सहित पहुंचे और अचानक ही महाराणा प्रताप सिंह पर धावा बोल दिया। प्रताप ने तत्कालीन स्थितियों और सीमित संसाधनों को समझकर स्वयं को पहाड़ी क्षेत्रों में स्थापित किया और लघु तथा छापामार युद्ध प्रणाली के माध्यम से शत्रु सेना को हतोत्साहित कर दिया। बादशाह ने स्थिति को भांपकर वहां से निकलने में ही समझदारी समझी।
 
एक बार के युद्ध में महाराणा प्रताप ने युद्ध में अपने धर्म का परिचय दिया और युद्ध में एक बार शाही सेनापति मिर्जा खान के सैन्यबल ने जब समर्पण कर दिया था, तो उसके साथ में शाही महिलाएं भी थीं। महाराणा प्रताप ने उन सभी के सम्मान को सुरक्षित रखते हुए आदरपूर्वक मिर्जा खान के पास पहुंचा दिया।
 
जहांगीर से युद्ध : बाद में हल्दी घाटी के युद्ध में करीब 20 हजार राजपूतों को साथ लेकर महाराणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80 हजार की सेना का सामना किया। इसमें अकबर ने अपने पुत्र सलीम (जहांगीर) को युद्ध के लिए भेजा था। जहांगीर को भी मुंह की खाना पड़ी और वह भी युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया। बाद में सलीम ने अपनी सेना को एकत्रित कर फिर से महाराणा प्रताप पर आक्रमण किया और इस बार भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक घायल हो गया था।
 
राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुगलों का मुकाबला किया, परंतु मैदानी तोपों तथा बंदूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित 22 हजार राजपूत सैनिकों में से केवल 8 हजार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाए। महाराणा प्रताप को जंगल में आश्रय लेना पड़ा।
 
चेतक का पराक्रम...
 

महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय घोड़े का नाम 'चेतक' था। चेतक बहुत ही समझदार और स्थिति को पल में ही भांप जाने वाला घोड़ा था। उसने कई मौकों पर महाराणा प्रताप की जान बचाई थी।
 
हल्दी घाटी युद्ध के दौरान प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर जा रहे थे ‍तब उनके पीछे दो मुगल सैनिक लगे हुए थे। चेतक ने तेज रफ्तार पकड़ ली, लेकिन रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। युद्ध में घायल चेतक फुर्ती से उसे लांघ गया, परंतु मुगल उसे पार न कर पाए।
 
चेतक नाला तो लांघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुगलों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी आवाज सुनाई पड़ी, 'हो, नीला घोड़ा रा असवार।'
 
प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था उनका भाई शक्ति सिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुगल पक्ष की तरफ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ जाते हुए देखा तो शक्ति सिंह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा था। लेकिन शक्ति सिंह ने दोनों मुगलों को मौत के घाट उतार दिया।
 
जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले थे। इस बीच चेतक जमीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहा था, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है।
 
अगले पन्ने पर प्रताप का वनवास...
 

महाराणा प्रताप का हल्दी घाटी के युद्ध के बाद का समय पहाड़ों और जंगलों में ही व्यतीत हुआ। अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति द्वारा उन्होंने अकबर को कई बार मात दी। महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने लगे। महारानी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और जंगल के पोखरों के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफाएं ही अब उनका आवास थीं और शिला ही शैया थी। महाराणा प्रताप को अब अपने परिवार और छोटे-छोटे बच्चों की चिंता सताने लगी थी।
 
मुगल चाहते थे कि महाराणा प्रताप किसी भी तरह अकबर की अधीनता स्वीकार कर 'दीन-ए-इलाही' धर्म अपना लें। इसके लिए उन्होंने महाराणा प्रताप तक कई प्रलोभन संदेश भी भिजवाए, लेकिन महाराणा प्रताप अपने ‍‍निश्चय पर अडिग रहे। प्रताप राजपूत की आन का वह सम्राट, हिन्दुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अडिग रहा। धर्म के लिए, देश के लिए और अपने सम्मान के लिए यह तपस्या वंदनीय है।
 
कई छोटे राजाओं ने महाराणा प्रताप से अपने राज्य में रहने की गुजारिश की लेकिन मेवाड़ की भूमि को मुगल आधिपत्य से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, वे महलों को छोड़ जंगलों में निवास करेंगे। स्वादिष्ट भोजन को त्याग कंद-मूल और फलों से ही पेट भरेंगे, लेकिन अकबर का आधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करेंगे। जंगल में रहकर ही महाराणा प्रताप ने भीलों की शक्ति को पहचानकर छापामार युद्ध पद्धति से अनेक बार मुगल सेना को कठिनाइयों में डाला था।
 
बाद में मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त संपत्ति रख दी। भामाशाह ने 20 लाख अशर्फियां और 25 लाख रुपए महाराणा को भेंट में प्रदान किए। महाराणा इस प्रचुर संपत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गए। इस अनुपम सहायता से प्रोत्साहित होकर महाराणा ने अपने सैन्य बल का पुनर्गठन किया तथा उनकी सेना में नवजीवन का संचार हुआ। महाराणा प्रताप सिंह ने पुनः कुम्भलगढ़ पर अपना कब्जा स्थापित करते हुए शाही फौजों द्वारा स्थापित थानों और ठिकानों पर अपना आक्रमण जारी रखा!
 
मुगल बादशाह अकबर ने विक्रम संवत 1635 में एक और विशाल सेना शाहबाज खान के नेतृत्व में मेवाड़ भेजी। इस विशाल सेना ने कुछ स्थानीय मदद के आधार पर वैशाख कृष्ण 12 को कुम्भलगढ़ और केलवाड़ा पर कब्जा कर लिया तथा गोगुन्दा और उदयपुर क्षेत्र में लूट-पाट की। ऐसे में महाराणा प्रताप ने विशाल सेना का मुकाबला जारी रखते हुए अंत में पहाड़ी क्षेत्रों में पनाह लेकर स्वयं को सुरक्षित रखा और चावंड पर पुन: कब्जा प्राप्त किया। शाहबाज खान आखिरकार खाली हाथ पुनः पंजाब में अकबर के पास पहुंच गया।
 
चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से पुन: उद्धार कर लिया। उदयपुर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। विचलित मुगलिया सेना के घटते प्रभाव और अपनी आत्मशक्ति के बूते महाराणा ने चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ के अलावा संपूर्ण मेवाड़ पर अपना राज्य पुनः स्थापित कर लिया गया।
 
इसके बाद मुगलों ने कई बार महाराणा प्रताप को चुनौती दी लेकिन मुगलों को मुंह की खानी पड़ी। आखिरकार, युद्ध और शिकार के दौरान लगी चोटों की वजह से महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी 1597 को चावंड में हुई।
 
आजीवन अकबर को तुर्क कहने की खाई थी कसम, अगले पन्ने पर...
 

भारतीय कम्युनिस्टों और अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में सिकंदर की तरह अकबर को महान सम्राट बना रखा है, लेकिन सत्ता और धर्म के नशे में चूर अकबर की सच्चाई को आज नहीं, कल स्वीकार करना ही होगा। महान तो महाराणा प्रताप थे जिनको एक तुर्क ने भारतीय राजाओं के साथ मिलकर हर तरह से झुकाने या मौत के घाट उतारने का प्रयास किया लेकिन महाराणा प्रताप ने अपने आत्मसम्मान को बचाए रखा और कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। 
 
महाराणा प्रताप ने भगवान एकलिंगजी की कसम खाकर प्रतिज्ञा ली थी कि जिंदगीभर उनके मुख से अकबर के लिए सिर्फ तुर्क ही निकलेगा और वे कभी अकबर को अपना बादशाह नहीं मानेंगे।
 
मेवाड़ के वीर यशस्वी महाराणा प्रताप ने कभी मुगलों के इस छद्म चेहरे की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने उन्हें समझाने के लिए चार बार शांति दूतों को अपना संदेशा लेकर भेजा था लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर के हर प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था।