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स्वतंत्रता की जय

स्वतंत्रता की जय - Independence Day
-राजेन्द्र माथुर
 
इस शीर्षक के फूहड़पन से और उसकी नारेबाजी से मैं परिचित हूं। शायद यह पेकिंग की दीवालों पर लगे पर्चों की तरह थोथा और चीखता हुआ है। मेरी पीढ़ी के किसी आदमी के दिल में इतना उल्लास नहीं है कि वह आसमान गुंजाने वाली आवाज में 'स्वतंत्रता की जय' कह सके। कहना चाहेंगे, तो स्वर फट जाएगा, जैसे जन गण मन के आखिर में दबी आवाज से 'जय हे, जय हे' कह रहे हों। मैं ही नहीं, 15 अगस्त, 1947 को जो लड़का गली में गुल्ली-डंडा खेलता था, वह भी आज मरा हुआ है और हताश है। 
हमारी शिकायतें अनेक हैं। आजादी ने हमें क्या दिया, हम पूछते हैं और खुद जवाब दे लेते हैं। आजादी ने देश को कर्ज में डुबो दिया और दानों के लिए विदेशों का मोहताज बना दिया। आजादी के कारण शिक्षा का स्तर मटियामेट हो गया। आजादी ने नौकरशाही को भ्रष्ट और रिश्वतखोर कर दिया। अखबार कहते हैं कि आजादी के बाद नेताओं का स्तर गिरा है और नेता कहते हैं कि अखबारों का। आजादी में अमीर ज्यादा अमीर हुए और गरीब जहां के तहां रहे। आजादी से देश बिखराव के बिंदु तक आ गया। आजाद भारत में योजनाएं असफल हो गईं। चारों ओर अराजकता। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह कि आजादी के कारण भारत या तो आजाद नहीं रहेगा या भारत नहीं रहेगा। 
 
क्या यह मातम सही है? क्या यह दोष 15 अगस्त का है कि हमारा जहाज बालू पर अटक गया है? आजादी ने हमें क्या दिया, हम पूछते हैं? लेकिन हमने आजादी को क्या दिया, यह हम भूल जाते हैं। 
 
आजादी ने कब कहा था कि वह हमें कुछ देगी? उसने कल्पवृक्ष और कामधेनु होने का दावा कब किया? यह तो हमने अपने मन में गलत समीकरण बना रखे थे। हमने सोचा था कि आजादी आएगी, तो विकास होगा। आजादी को मानो कोई जादू या करिश्मा हमने समझ लिया, जिसके आते ही राजनीति स्वच्छ हो जाएगी, लोगों के मन उजले-धुले होंगे, गांव-गांव में मेहनत की गूंज होगी और हवा में एक कस्तूरी गंध होगी। जैसे ब्रिटिश राज को हम एक शाप समझते थे, वैसे ही आजादी को हमने वरदान समझा।

शाप और वरदान में सहूलियत यह है कि हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। देश गरीब क्यों है : ब्रिटिश राज के कारण। शराबखोरी क्यों है : ब्रिटिश राज के कारण, हिन्दी पिछड़ी क्यों है : ब्रिटिश राज के कारण। हमने यह कभी नहीं सोचा कि इतिहास का देवता हर देश को वही शाप देता है, जिसके वह योग्य होता है। शाप हमें यातना देता है, हमें मांजता है और इस योग्य बनाता है कि हम शुद्ध होकर शाप से उबरें। इसीलिए शाप पवित्र और शिरोधार्य है, लेकिन भारत के लोग किसी शाप में अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते, उसे वे देवताओं का बेमतलब क्रोध मानते हैं। जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शाप से हमें उबारा, तो जादू में हमारा विश्वास और दृढ़ हो गया, मानो एक अवतार ने आकर हवा में ही शाप को काट दिया है, लेकिन जो देश अपने शाप को स्वयं भोग नहीं सकता, वह उस शाप से उबर नहीं सकता और वरदान को अर्जित नहीं कर सकता। 
 
अगर ब्रिटिश राज हमारा अनभोगा शाप है, जो आजादी हमारा अनर्जित वरदान है। वरदान में हमें क्या करना पड़ता है? कुछ भी नहीं। इसीलिए हमने सोचा कि आजादी के बाद हिन्दी उन्नत हो जाएगी, साक्षरता सौ प्रतिशत तक पहुंच जाएगी, लोग स्वयं भ्रष्टाचार छोड़कर ईमानदार बन जाएंगे और सारा देश गांधी का सेवाग्राम होगा। जादू का काम है कि वह सिर पर चढ़कर बोले। हमारा काम है‍ कि हम भाई-बंदों को नौकरी दें, स्कूलों में घास काटें, ठेकेदारो से रिश्वत लें, टूटी-फूटी ‍हिन्दी लिखें, अपने प्रांत का राग अलापें और 15 अगस्त को शिकायत करें कि देश के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं।
 
क्या यह आजादी का दोष है? आजादी ने हमारी बेड़ियां काट दीं, लेकिन अगर हम अपनी मर्जी से काल-कोठरी में मुंह छिपाए पड़े हैं, तो आजादी क्या करे? आजादी एक अवसर है। वह खुली हवा में दौड़ने का अवसर है और तंग कमरे में सोने का अवसर है। सोना भी आजादी है, पतन आजादी है, गलती करना आजादी है। राणा प्रताप ने कहा था कि गुलामी के मेवे से आजादी की घास अच्‍छी है। हम आगे कह सकते हैं कि गुलामी के उत्थान के बजाय आजादी का पतन अच्छा है : गुलामी के सदाचार से भ्रष्टाचार अच्‍छा है। मजबूरी के महात्मापन से स्वच्छंद गुंडापन लाख गुना बेहतर है। एक नदी सूखी है और एक बाढ़ से उफनती हुई। सूखी नदी में पानी आना मुश्किल है, लेकिन उफनती नदी तो किनारों का अनुशासन पहचानेगी। 
 
और कौन कहता है कि आजादी के बाद तरक्की नहीं हुई? बाढ़ के पानी को हर मोहल्ले में, हर गांव में, हर झोपड़ी में सरसराते हुए क्या हम नहीं देख रहे हैं? क्या यह प्रजातंत्र का योगदान नहीं है कि हर चौपाल, और हर पान वाले की दुकान आज प्रजातं‍त्र के भविष्य के बारे में चिंतित है? यह चिंता ही प्रजातंत्र को पुष्ट करेगी। हम कहते हैं कि देश में गांधी और नेहरू जैसे नेता नहीं रहे। न हों, लेकिन हर कस्बे और बस्ती में इतने छुटभैये नेता देश में कभी नहीं रहे, जितने आज हैं।

'छुटभैये' शब्द हिकारत से भरा है, लेकिन छुटभैयों में खराबी क्या है? वे अपनी जमीन के प्रामाणिक प्रवक्ता हैं और संभवत: वे दिग्गज नेताओं की तुलना में अधिक प्रामाणिक प्रवक्ता हैं। वे स्वार्थी होंगे, संकीर्ण होंगे, लेकिन वे ही हिन्दुस्तान हैं। प्रजातंत्र ने सत्ता का राजमहल सारी जनता के लिए खोल दिया है। अब इस शिकायत में क्या दम है कि जनता गंदी है, कालीनों पर कीचड़ लगाती है, दीवारों पर पीक थूकती है, झाड़-फानूसों पर पत्थर मारती है। अक्टूबर क्रांति के बाद जब लेन‍िन से ऐसी शिकायत की गई तो उन्होंने कहा, कोई बात नहीं। आखिर ये चीजें मजदूरों ने ही तो बनाई हैं, कोई राजा-महाराजाओं ने तो बनाई नहीं। थोड़े दिन बाद वे खुद ही समझ जाएंगे।
 
तरक्की कैसे नहीं हुई? साइकल-क्रांति गांवों में पहुंच गई। ट्रांजिस्टर-क्रांति भी। ये चीजें धन-दौलत की प्रतीक नहीं हैं, इस बात की प्रतीक हैं कि नए विचार, शहरी विचार गांव में पहुंच रहे हैं। पांचवें साल होने वाला आम चुनाव भी अपने आप में एक क्रांति है, क्योंकि दिल्ली के तख्त-ए-ताऊस को होरी और धनिया से जोड़ता है। ठीक है, लोग वोट की ताकत नहीं समझते, आसपास के बहकावे में आ जाते हैं, अशिक्षित हैं, लेकिन गांव का आदमी जब देखता है कि उसके मं‍त्र पढ़ने से भारत की जमीन हिलने लगी है, तो उसे मंत्र का महत्व समझ में आता है। इसमें समझना क्या है? 
 
लोगों की शिकायत है कि बाढ़ में विस्तार है, लेकिन गहराई नहीं। स्तर घट रहे हैं, शिक्षा के, ईमानदारी के, नेतृत्व के, शिक्षा व संस्कृति के, हर बात के। हां, वे घट रहे हैं, लेकिन इसका क्या इलाज है? जब कांग्रेस के सूट और टाई पहनने वाले बैरिस्टरों और भद्र पुरुषों ने आजादी की मांग की, तब वे किसकी आजादी मांग रहे थे?

शायद वे समझते थे कि उनकी तरह सभा-भवन में मीटिंग करने वाले बुद्धिजीवियों को राज मिलेगा, लेकिन वे मीटिंग करते-करते खप भी जाते तो भारत आजाद नहीं होता। वह आजाद इसलिए हुआ कि‍ राजनीति चौराहे पर आई और सड़क छाप हो गई। अब जिस सड़क छाप सेना की कुर्बानी से देश आजाद हुआ, उसे सत्ता के यंत्र से कैसे दूर रखा जा सकता था? इसलिए वयस्क मताधिकार आया और सारे दरवाजे खुल गए, लेकिन अब जो भीड़ आ रही है, उसमें कल का बुद्धिजीवी अपने को खोया हुआ महसूस करता है। सही बात यह है कि राममोहन राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक का जो हिन्दुस्तान था, वह अब समाप्त हो रहा है। वह नेतृत्व ब्रिटिश परंपराओं में पला था और यूरोप के विचारों से ओतप्रोत था। वह चुने हुए बुद्धिजीवियों का नेतृत्व था। अब वह खत्म हो रहा है और भारत का भारतीयकरण हो रहा है। बीस साल बाद नए भारत का बुद्धिजीवी कैसा होगा, यह कोई नहीं जानता। 
 
शिकायत है कि स्वतंत्रता ने हमें जिद्दी, उद्दंड और दुराग्रही बना दिया है। निम्न (अथवा भूतपूर्व निम्न) वर्गों के लड़के स्कूलों में आते हैं और गाली बकते हैं। उच्च वर्गों के लड़के उद्देश्यहीन हैं। पंच को अपनी पंचायत की फिक्र है और मुख्यमंत्री को प्रांत की, लेकिन क्या यह स्वाभाविक नहीं है‍ कि घड़ी का लोलक एक छोर से दूसरे पर पहूंच जाए। अब तक जनता की कोई सुनवाई नहीं थी और अब है। इसलिए देश बिलकुल मछली बाजार बन गया है, लेकिन जिंदा लोगों के ‍कब्रिस्तान से यह मछली बाजार कहीं ज्यादा अच्‍छा है। 
 
शताब्दियों तक भारत की एकता साम्राज्यों पर आधारित रही। अभी तो हमें यह भी पता नहीं कि अखंड भारत की कल्पना एक साम्राज्यवादी भ्रम है या वह हमारी सच्ची राष्ट्रीय आकांक्षा है। इन बीस बरसों में भारत इस कारण एक रहा है‍ कि कांग्रेस एक मायने में ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतिबिंब मात्र थी, लेकिन अगले वर्षों में भारत को अपनी स्वेच्‍छा से एक रहना होगा। आजादी का मतलब यह भी है कि मजबूरी में अखंड रहने के बजाय भारत को स्वेच्छा से टुकड़े-टुकड़े होने की आजादी है।
 
आजादी इस मायने में सचमुच एक भयावह चीज है। आजादी का मतलब है चुनाव। चुनाव यानी आम चुनाव नहीं, वह चुनाव जो अर्जुन को कुरुक्षेत्र में करना पड़ा और महाभारत के हर पात्र को कदम-कदम पर करना पड़ा है। जानवरों के सामने कोई चुनाव नहीं है, इसलिए कोई दुविधा, अंतरद्वंद्व या पश्चाताप नहीं है। आदमी के सामने सब है। करो तो बुरा, न करो तो बुरा। क्या करें, यह साफ नहीं। बेचारे अर्जुन को लगा होगा कि अगर वह कृष्ण का शिकारी कुत्ता होता, तो कुरुक्षेत्र में उसके सामने कोई समस्या न होती, लेकिन वह आदमी था। भारत ने भी शिकारी कुत्ते की तरह दो महायुद्ध लड़े और केवल विक्टोरिया क्रॉस बटोरे, लेकिन जीत-हार की पीड़ा और दोस्ती-दगाबाजी का बोध तो हमें तभी हुआ, जब हम चीन और पाकिस्तान से लड़े। सुकरात या और किसी ने कहा था कि एक संतुष्ट सूअर के बजाय मैं एक असंतुष्ट आदमी होना पसंद करूंगा। भारत आज एक असंतुष्ट आदमी है।
 
आजादी ने हमें असंतोष दिया है। हम उसका अभिनंदन क्यों नहीं करें? भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में शायद कभी इतनी उथल-पुथल नहीं हुई, जितनी कि इन बीस सालों में हुई है। लूटमार या हंगामे की उथल-पुथल नहीं (हालांकि वह भी हुई) बल्कि लोगों के दिमागों की उथल-पुथल। जो देश जड़ था, सुन्न था, कभी सोचता नहीं था, वह अब निराश होना (या आशा करना) सीख रहा है।

पत्‍थर की प्रतिमा की आंखें नम हो रही हैं और इस चमत्कार को न देख हम शिकायत करते हैं कि आजादी ने देश को रुला दिया। हमें कामना करनी चाहिए कि प्रतिमा रोए, खूब फूट-फूटकर रोए, ताकि वह प्रतिमा न रहे। आजादी ने हमें क्या दिया, आंसू दिए, ताकि हम एक हृदय महसूस कर सकें। आंखें दीं, ताकि दृश्य की गंदगी देख सकें (आंखें सलामत, तो दृश्य हजार)। नाक दी, ताकि वह सदियों की सड़न सूंघ सके। कान दिए, ता‍कि वे फूट की आवाज सुन सकें। आजादी ने हमें आत्मबोध दिया, अपने निकम्मेपन से हमारी मुठभेड़ कराई। आजादी ने कटे हुए बुद्धिजी‍वी का मुकाबला आम जनता से करवाया। आजादी ने आलस्य के नतीजे भोगने का हमें अवसर दिया। आजादी ने हमें अपने शाप से परिचित कराया, जो ब्रिटिश राज भी नहीं करा सका था।
 
यही आजादी का वरदान है। सुदामा की झोपड़ी के महल में बदल जाने की कथा पर जो भारतवासी पले हैं, वे इसे नहीं समझेंगे। वे कहेंगे कि कृष्ण ने खाली हाथ लौटा दिया, केवल गप्प लगाने वाले दोस्त निकले। आजादी का वरदान यह है कि उसने अस्तित्व के द्वंद्वों से हमारा परिचय कराया है। अब यह हम पर है कि हम कौन से रास्ता चुनते हैं।
 
अब मैं पूरी ताकत से 'स्वतंत्रता की जय' कह सकता हूं। अब मैं अपने देश की मुट्ठी-भर उपलब्धि से खिन्न नहीं हूं, उसके विशाल अवसरों से उल्लसित हूं। 'स्वतंत्रता की जय' कोई थोथा नारा नहीं है, वह एक मजबूरी की हर्षमय स्वीकृति है। आदमी को ईश्वर ने आजाद होने का शाप दिया है। यह दंड हम जिंदादिली से भुगतेंगे। 
 
(15 अगस्त, 1967)