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इंदौर रेसीडेंसी की कहानी रेजीडेंट की जबानी

इंदौर रेसीडेंसी की कहानी रेजीडेंट की जबानी - Story of Indore Residency Resident's Word
इंदौर में रेजीडेंट रहे सर केनेथ फिट्‌ज के कुछ संस्मरण महत्वपूर्ण हैं जो उन्होंने अपनी किताब 'ट्‌वायलाइट ऑफ द महाराजाज़' में संग्रहीत किए हैं। देशी रियासतों की रंगीन दुनिया से मेरा 33 वर्ष तक संबंध रहा। वर्ष 1911 में चौंधिया देने वाले दिल्ली दरबार के समारोह से स्वाधीन भारत में उनके विलीनीकरण तक उनके बदलते रूप मैंने देखे।
 
मेरे जन्म से भी पहले मेरे पिताजी के भारत से व्यापारिक संबंध थे, अत: मेरे हृदय में बचपन से यह भावना जाग उठी थी कि मैं भारत की सिविल सर्विस में अफसर बनूं। मेरे स्कूली दिनों में मेरा एक एंग्लो-इंडियन मित्र था। उसके पिता एक नामवर सेवानिवृत्त आई.सी.एस. थे। एक दिन मित्र से मिलने उनके घर गया तो उन्होंने मेरी उस भावना को कुरेदा कि यदि चाहूं तो मैं भी भारत में उन जैसा एक बड़ा अफसर बन सकता हूं। संयोग देखिए कि कुछ वर्ष बीतने के बाद उन्हीं के साथ मेरा भी तैलचित्र इंदौर रेसीडेंसी में टंगा हुआ था।
 
बड़ौदा में बीमार होने की वजह से सर फिट्‌ज कुछ माह छुट्टी पर गए। पश्चात दिल्ली के केंद्रीय शासन में मंत्री पद पर रहने के बाद मध्यभारत में प्रथम पोलिटिकल एजेंट और बाद में रेसीडेंट रहे। वे लिखते हैं-
 
'भारत में मेरे 33 वर्ष के कार्यकाल में जहां-जहां मुझे अल्पकालीन घर बनाना पड़ा उनमें मुझे अत्यधिक प्रिय रहा है 'इंदौर'। यह होलकरों की राजधानी थी और साथ में मध्यभारत के 58 देशीराज्यों को केंद्रीय ब्रिटिश सत्ता के साथ जोड़ने वाले रेजीडेंट का मुख्यालय भी। इन 58 देशी रियासतों में ऐसी रियासतें हैं जिनका क्षेत्रफल 13 से लेकर 13000 वर्ग मील तक का है। होलकरों और ईस्ट इंडिया कंपनी में वर्ष 1818 में हुए आखिरी युद्ध की समाप्ति पर जो संधि हुई उसी के मातहत सेंट्रल इंडिया एजेंसी कायम होकर उसका मुख्यालय इंदौर में स्थापित हुआ। इसका श्रेय उस महान सैनिक, इतिहासज्ञ और कूटनीतिज्ञ 'सर जॉन माल्कम' को है। इस घटना के 100 से अधिक वर्ष बीतने पर मैंने इस रेसीडेंसी में पांव रखा।'
 
'भारत आने के बाद पहली बार मैं इंदौर पहुंचा था। डेली कॉलेज में मेरे कुछ मित्र थे और वर्ष 1920 में उन्हीं के घर मेरा विवाह संपन्न हुआ और जिस चर्च में मेरा विवाह संपन्न हुआ था, उसी चर्च में आगे चलकर मेरे दो बच्चों के ईसाई संस्कार हुए। इसीलिए रेसीडेंसी नाम से जाना जाने वाला हरियाली भरा वह 1 वर्गमील का क्षेत्र मुझे बहुत-बहुत प्रिय है।'
 
'वह क्षेत्र बिलकुल इंग्लिश देहात जैसा था। ऊंचे, गोल विशाल स्तंभों से सुशोभित रेसीडेंसी, सामने दूर तक फैला हुआ हरा मैदान, उसके आगे शांत बहने वाली नदी, जिसमें हमेशा कमल खिलते और हम नौका विहार किया करते। वहां से थोड़ी दूरी पर सफेद संगमरमर से बने गुंबज और मीनारों से सजा डेली कॉलेज, पीछे के बाजू भील पल्टन की बैरकें, वह पल्टन जिसने 1857 की बगावत में अंगरेजों की सहायता की थी। नदी पर बने दो पुलों में से एक के पास एक विशाल वटवृक्ष था जिसकी ढोली में दस बारह व्यक्ति सहज छिप सकते हैं और बगावत के समय छुपे थे। और वहीं से महू की ओर जाने वाली सड़क थी। महू जहां होलकर रियासत और मालवा की सुरक्षा के लिए छावनी कायम की गई थी। समुद्र की सतह से 2000 फुट ऊंचाई पर बसा यह नगर न अधिक गर्म न अधिक ठंडा। आवश्यक हो, उतनी वर्षा, कौन नहीं कहेगा कि इंदौर भारत में एक सुहावना, अद्वितीय स्थान है?'
 
'मेरे कार्यकाल की एक संस्मरणीय घटना वर्ष 1922 में प्रिंस ऑफ वेल्स का इंदौर आगमन। डेली कॉलेज के बड़े सभागृह में दरबार भरा था और मध्यभारत के तमाम राजे-रजवाड़े उसमें उपस्थित थे। अधिकतर राजा अंगरेजी भाषा से अनभिज्ञ थे, अत: प्रिंस के भाषण का हिन्दी अनुवाद करना मेरे सिर आ पड़ा। प्रिंस की सवारी जब सुरक्षित लौट गई तो हमने सुख की सांस ली।'
 
'और उसी वर्ष आए वायसराय लॉर्ड रीडिंग। इन राजा-महाराजाओं के नाज-नखरे, उनकी सम्मान, प्रतिष्ठा की झूठी कल्पनाएं आदि का रूप मुझे तब देखने को मिला, जब वायसराय के दरबार में शरीक होने के लिए वे इंदौर पधारे। लॉर्ड रीडिंग का स्वास्थ्य बिगड़ जाने से उनका इंदौर से रीवा जाने का कार्यक्रम रद्द कर देना पड़ा। वहां पर राजा के बालिग हो जाने से राजा के सर्वाधिकार सौंपने का समारोह होने वाला था। रीवा के महाराजा तो स्वयं वायसराय के हाथों अधिकार ग्रहण करने की अभिलाषा संजोए बैठे थे। वैसे भी उन्हें अधिकार तो प्रदान किए जाने वाले थे। लेकिन बगैर वायसराय के हाथों हुए उपचार के अधिकार ग्रहण उनके लिए नीरस था। इंदौर से रीवा और रीवा से इंदौर कई तार खड़खड़ाने के बाद यह तय हुआ कि अधिकार ग्रहण का समारोह इंदौर के रेसीडेंसी में ही संपन्न किया जाए। और इसलिए महाराजा अपने सरदार अफसर और लवाजमे सहित स्पेशल ट्रेन द्वारा इंदौर पधारे।
 
यह कहना गलत होगा कि मेरा पूरा समय वायसरायों की मेहमानदारी में व्यतीत होता था। दफ्तर में फाइलों से भिड़ने के अतिरिक्त राजाओं के दीवान और दूसरे लोग मिलने आया ही करते थे। इनमें मुझे सबसे अधिक स्वागताई लगे इंदौर के मंत्रीगण। स्थानीय समस्याओं पर उनके साथ बड़ीशांत और सुखद चर्चाएं होतीं। मेरे कार्यकाल में इंदौर के दो प्रधानमंत्रियों की प्रशासकीय कुशलता से तो मैं प्रसन्न था ही लेकिन उतनी ही कुशलता वे टेनिस कोर्ट और ब्रिज टेबल पर भी दिखा सकते थे।
 
रेसीडेंसी की उस विशाल इमारत का पोर्टिको बाद में जोड़ा गया। वह लॉर्ड किचनर की देन थी। एक बार जब वे भोजन के लिए वहां पधारे तो मेनू कार्ड के पीछे ही डिजाइन बना उन्होंने सुझाव दिया कि इस आलीशान बिल्डिंग का पोर्टिको तो होना ही चाहिए औऱ आश्चर्य नहीं कि वह तुरंत बन भी गया।'
 
'उसी पोर्टिको में कार खड़ी थी। मेरे अतिप्रिय इंदौर से मैं आखिरी विदा ले रहा था। मेरा हृदय भारी था। वह एक शांत और सुखद जमाने का अंत था। भारत एक नए युग में पदार्पण करने जा रहा था। मेरी कई योजनाएं कागजों में सिमटी पड़ी थीं। एक ही ऐसी थी जिसके लिए इंदौर मुझे याद करता रहेगा। डेली कॉलेज में दो उत्साही और कार्यकुशल प्रिंसिपाल लाने में सफल रहा। लाड़ले राजपुत्रों की वह बाल पाठशाला जहां उनमें अच्छी आदतें डालकर बाद में अपने राज्य में निष्क्रिय और आराम की जिंदगी बिताने के लिए भेजा जाता था। उसकी जगह उस डेली कॉलेज को मैंने इंग्लैंड केपब्लिक स्कूल का रूप और स्तर दिया और उसे केवल राजपुत्रों के लिए नहीं सभी के लिए खुला कर दिया। इसीलिए रेसीडेंसी कॉकटेल्स नाम से प्रसिद्ध दावतें देने वाले के अतिरिक्त भी मेरा नाम रहेगा, और मुझे आंतरिक संतोष भी।
 
*अपंडित
 
महाराजा द्वारा गुप्त रूप से शस्त्रों का निर्माण
 
1857 के विद्रोह दमन के पश्चात देशी रियासतों के शस्त्रों और सैनिकों की संख्या में निरंतर कमी करना ब्रिटिश सरकार की सुविचारित नीति थी। वे किसी भी भारतीय शासक की फौज को इस काबिल नहीं रहने देना चाहते थे जिससे कि भविष्य में वह कभी अंगरेजी हुकूमत के लिए चुनौती उत्पन्न कर सके।
 
इंदौर के शासक महाराजा तुकोजीराव होलकर के प्रति अंगरेज वायसराय यह दृढ़ मत रखते थे कि 1857 की पहली जुलाई को इंदौर रेसीडेंसी में जो कुछ घटित हुआ था वह होलकर महाराजा की मौन स्वीकृति का ही परिणाम था। वे होलकर को संदेहभरी दृष्टि से देख रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में इंदौर से, ब्रिटिश जासूसों द्वारा महाराजा द्वारा गुप्त रूप से शस्त्रों के निर्माण की रिपोर्ट वायसराय को सीधे भेजी गई। वायसराय ने सेंट्रल इंडिया स्थित अपने एजेंट को फटकारते हुए पत्र लिखा जिसमें इस बातसे अनभिज्ञ रहने पर उसकी कार्यक्षमता पर टिप्पणी की गई थी। राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली में संरक्षित (हस्तलिखित) अप्रकाशित रिपोर्ट क्रमांक- फॉरेन डिपार्टमेंट, सीक्रेट 1, मार्च 1883 क्र. 24-25 में इसका विस्तृत हवाला दिया गया है।
 
भारत सरकार के सचिव ने सेंट्रल इंडिया के ए.जी.जी. को लिखा-
 
'...मैं, नीचे, हमारे गोपनीय आलेखों की दो जिल्दों से रिपोर्ट प्रेषित कर रहा हूं जो नवंबर 1871 और मार्च 1872 की हैं और उनमें रेखांकित अंशों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करवाना चाहूंगा।
 
...गवर्नर जनरल को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सेंट्रल इंडिया स्थित ए.जी.जी. (जिसका मुख्यालय इंदौर में है) की जानकारी के बगैर महाराजा ने इंदौर में शस्त्र निर्माण का कारखाना स्थापित कर लिया है और उसमें मध्यम श्रेणी के अस्त्र, रायफलें तथा पर्याप्त संख्या में तोपों की ढलाई हो रही है।
 
यद्यपि यह सत्य है कि मंदसौर संधि के अतिरिक्त महाराजा होलकर पर अन्य किसी संधि द्वारा उसकी सेना या सैनिक शस्त्रों की वृद्धि पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता और न ही उसे सीमित किया जा सकता है...। इंदौर राज्य के शस्त्रागार में शस्त्रों, तोपों और गोला-बारूद की वृद्धि और उनकासंग्रह, गवर्नर जनरल की दृष्टि में आंतरिक या बाह्य सुरक्षा के लिए नहीं है। युद्ध स्तर पर इस प्रकार की तैयारियां राज्य के बाहर, ब्रिटिश सरकार के विद्रोहियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए की जा रही हैं। भारत सरकार की यह दृढ़ इच्छा है कि महाराजा अपने राज्य में इस प्रकार के शस्त्र निर्माण के कार्य को तुरंत बंद करें तथा विदेशों से शस्त्रों का बिलकुल आयात न किया जाए...।'
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