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प्राचीन भारत के गुरुकुल...

प्राचीन भारत के गुरुकुल... - india's gurukul
भारत में गुरुकुल शिक्षा पद्धति की बहुत लंबी परंपरा रही है। गुरुकुल में विद्यार्थी विद्या अध्ययन करते थे। तपोस्थली में सभा, सम्मेलन और प्रवचन होते थे जबकि परिषद में विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। 


 
प्राचीनकाल में धौम्य, च्यवन ऋषि, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे। बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जगप्रसिद्ध थे, जहां विश्वभर से मुमुक्षु ज्ञान प्राप्त करने आते थे और जहां गणित, ज्योतिष, खगोल, विज्ञान, भौतिक आदि सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी।
 
प्रत्येक गुरुकुल अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध था। कोई धनुर्विद्या सिखाने में कुशल था तो कोई वैदिक ज्ञान देने में। कोई अस्त्र-शस्त्र सिखाने में तो कोई ज्योतिष और खगोल विज्ञान में दक्ष था। जैसा कि आजकल होता है कि इंजीनियरिंग कॉलेज अलग और कॉमर्स कॉलेज अलग।
 
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वाल्मीकि आश्रम : ऋषि वाल्मीकि का आश्रम भी देश में प्रसिद्ध था। वाल्मीकि की आदिकवि के रूप में भी प्रसिद्धि थी। श्रीराम के काल में हुए वाल्मीकि ने ही 'रामायण' लिखी थी। वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या 7/93/16, 7/96/18 और 7/1111/11 में लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है। महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे।
 
तमसा नदी के तट पर व्याध द्वारा कोंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार डालने पर वाल्मीकि के मुंह से व्याध के लिए शाप के जो उद्गार निकले, वे लौकिक छंद में एक श्लोक के रूप में थे। इसी छंद में उन्होंने नारद से सुनी राम की कथा के आधार पर रामायण की रचना की। 
 
सीताजी ने अपने वनवास का अंतिम काल इनके आश्रम पर व्यतीत किया था, वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। महर्षि वाल्मीकि आदिवासियों और वनवासियों के गुरु थे। इनका आश्रम वर्तमान के तुरतुरिया स्थान पर था। तुरतुरिया जिला रायपुर, छत्तीसगढ़ से लगभग 150 किमी दूर वारंगा की पहाड़ियों के बीच बहने वाली बालमदेई नदी के किनारे पर स्थित है। यह सिरपुर से 15 मील घोर वन प्रदेश के अंतर्गत स्थित है। यहीं पर मातागढ़ में एक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम तथा आश्रम जाने के मार्ग में जानकी कुटिया है।
 
वाल्मीकि डाकू नहीं थे : जिस वाल्मीकि को दस्यु बताया जाता है वे नागा प्रजाति के थे। उनका ही एक नाम रत्नाकर था। वे परिवार के पालन-पोषण हेतु दस्यु कर्म करते थे। नारद मुनि से मिलने के बाद उनका हृदय बदल गया था और वे 'राम' नाम का जप करने लगे थे। घोर तपस्या के कारण उनके शरीर को दीमकों ने ढंक लिया था जिसके कारण वे 'वाल्मीकि' के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक अन्य विवरण के अनुसार इनका नाम अग्निशर्मा था और इन्हें हर बात उलटकर कहने में रस आता था इसलिए ऋषियों ने डाकू जीवन में इन्हें 'मरा' शब्द का जाप करने की राय दी। 13 वर्ष तक 'मरा', 'मरा' रटते-रटते यही 'राम' हो गया। बिहार के चंपारण जिले का भैंसा लोटन गांव वाल्मीकि का आश्रम था, जो अब वाल्मीकि नगर कहलाता है।
 
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विश्वामित्र का आश्रम : राम और लक्ष्मण ने ऋषि विश्वामित्र के यहां रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। विश्वामित्र गायत्री के बहुत बड़े उपासक थे। माना जाता है कि महर्षि विश्वामित्र का आश्रम बक्सर (बिहार) में स्थित था। इस स्थान को गंगा-सरयू संगम के निकट बताया गया है। विश्वामित्र के आश्रम को 'सिद्धाश्रम' भी कहा जाता था।
 
रामायण के अनुसार राम और लक्ष्मण ने विश्वामित्र के आश्रम में रहकर ही ताड़का, सुबाहु आदि राक्षसों को मारा था। हालांकि यदि हम उनकी तपोभूमि की बात करें तो वह हरिद्वार में थी, जहां आज शांति निकेतन बना है।
 
विश्वामित्र वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। उनके ही काल में ऋषि वशिष्ठ थे जिसने उनकी अड़ी चलती रहती थी, अड़ी अर्थात प्रतिद्वंद्विता। विश्वामित्र के जीवन के प्रसंगों में मेनका और त्रिशंकु का प्रसंग भी बड़ा ही महत्वपूर्ण है। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्रजी उन्हीं गाधि के पुत्र थे।
 
ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
 
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज है, उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ट होकर एक अलग ही स्वर्गलोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मंत्र की रचना की, जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। 
 
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ऋषि वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता? ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरुण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एकसाथ रचकर नया इतिहास बनाया।
 
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भारद्वाज मुनि का आश्रम : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का अति उच्च स्थान है। भारद्वाज मुनि का आश्रम प्रयाग में था। ये विमानशास्त्र में प्रवीण थे। इसके अलावा यहां वैदिक ज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं।
 
रामायण के एक प्रसंग के अनुसार उनका आश्रम गंगा यमुना के संगम प्रयाग में था। राम, लक्ष्मण और सीता गंगा पार करने के उपरांत चलते-चलते गंगा-यमुना के संगम स्थल पर श्री भारद्वाज के आश्रम में पहुंचे थे।
 
ऋषि भारद्वाज के 10 पुत्र थे। सभी पुत्र ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा माने गए हैं। उनकी 2 पुत्रियां भी थीं जिसमें से एक का नाम 'रात्रि' था, वे रात्रि सूक्त रचयिता थीं। दूसरी का नाम कशिपा था। भारद्वाज के 10 पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र।
 
ऋषि भारद्वाज व्याकरण, धर्मशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, राजशास्त्र, अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, आयुर्वेद और भौतिक विज्ञानशास्त्र आदि अनेक विषयों में पारंगत थे। चरक संहिता के अनुसार उन्होंने इंद्र से व्याकरण और आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण कर आयुर्वेद संहिता लिखी। महाभारत के अनुसार भारद्वाज ने महर्षि भृगु से धर्मशास्त्र की शिक्षा ग्रहण कर 'भारद्वाज-स्मृति' की रचना की। 
 
ऋषि भारद्वाज ने 'यंत्र-सर्वस्व' नामक वृहद ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमानशास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रंथ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
 
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गुरु धौम्य का आश्रम : गुरु धौम्य का आश्रम सेवा, तितिक्षा और संयम के लिए प्रख्यात था। ये अपने शिष्यों को सुयोग्य बनाने के लिए उनको तप व योग साधना में लगाते थे। स्वयं गुरु महर्षि धौम्य की तपःशक्ति केवल आशीर्वाद से शिष्य को शास्त्रज्ञ बनाने में समर्थ थी। आरुणि, उपमन्यु और वेद (उत्तंक)- ये 3 शास्त्रकार ऋषि महर्षि धौम्य के शिष्य थे। 
 
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कपिल मुनि : एक प्रसंग है कि जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने 60 हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया। देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया था ताकि कोई वहां नहीं जा सके।
 
राजा सगर के 60 हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आंखें खोली, राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।
 
कपिल मुनि 'सांख्य दर्शन' के प्रवर्तक थे। इनकी माता का नाम देवहुती व पिता का नाम कर्दम था। कपिल ने माता को जो ज्ञान दिया, वही 'सांख्य दर्शन' कहलाया। महाभारत में ये सांख्य के वक्ता कहे गए हैं।
 
कपिलवस्तु, जहां बुद्ध पैदा हुए थे, कपिल के नाम पर बसा नगर था। सगर के पुत्र ने सागर के किनारे कपिल को देखा। बाद में वहीं गंगा का सागर के साथ संगम हुआ। इससे मालूम होता है कि कपिल का जन्मस्थान संभवत: कपिलवस्तु और तपस्या क्षेत्र गंगासागर था। 
 
रामायण के अनुसार जल की खोज में थके-मांदे राम, सीता और लक्ष्मण कपिल की कुटिया में पहुंचे। कपिल की पत्नी सुशर्मा ने उन्हें ठंडा जल दिया, तभी समिधाएं एकत्र करके कपिल भी अपनी कुटिया पर पहुंचे। वहां उन्होंने वनवासी के भेष में धूलमंडित आए तीनों अतिथियों को देखा और निरादर करके उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। बाद में उन्हें इस बात का बड़ा पछतावा हुआ था।
 
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कण्व : माना जाता है कि इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
 
103 सूक्त वाले ऋग्वेद के 8वें मंडल के अधिकांश मंत्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किंतु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मंडल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण संबंधी उपयोगी मंत्र हैं।
 
महाभारत के आदिपर्व में वर्णित है कि कण्व ऋषि के आश्रम में अनेक नैयायिक रहा करते थे, जो न्याय तत्वों के कार्यकारणभाव, कथा संबंधी स्थापना, आक्षेप और सिद्धांत आदि के ज्ञाता थे। न्याय दर्शन के रचयिता महर्षि गौतम थे।
 
सोनभद्र में जिला मुख्यालय से 8 किलोमीटर की दूरी पर कैमूर श्रृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है, जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है। 
 
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अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मंडल के दृष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिंधु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ।
 
अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दंपति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
 
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गौतम ऋषि का आश्रम : गौतम ऋषि न्याय दर्शन के प्रवर्तक थे। देवी अहिल्या उनकी पत्नी थी। इंद्र ने छलपूर्वक अहिल्या का शीलहरण कर लिया था जिसके चलते गौतम ऋषि ने अहिल्या को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया था।
 
राम ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी पहुंचे तो वहां उन्होंने गौतम ऋषि का आश्रम भी देखा, वहीं राम के चरण स्पर्श से अहिल्या शापमुक्त होकर पुनः मानवी बन गईं। इसका मतलब उनका आश्रम जनकपुरी में था। जनकपुरी का सही नाम मिथिला था। जनक मिथिला के राजा और जैन ‍तीर्थंकर निमि के पुत्र थे। मिथिला वर्तमान में उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाका है जिसे मिथिला या मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था। बिहार-नेपाल सीमा पर विदेह (तिरहुत) का प्रदेश, जो कोसी और गंडकी नदियों के बीच में स्थित है, इस प्रदेश की प्राचीन राजधानी जनकपुर में थी। मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में हुआ है।
 
महर्षि गौतम बाण विद्या में अत्यंत निपुण थे। महर्षि गौतम न्यायशास्त्र के अतिरिक्त स्मृतिकार भी थे तथा उनका धनुर्वेद पर भी कोई ग्रंथ था, ऐसा विद्वानों का मत है। उनके पुत्र शतानंद निमि कुल के आचार्य थे। 
 
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वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तदृष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं। भरत मुनि द्वारा रचित भरतनाट्यम शास्त्र सामवेद से ही प्रेरित है। हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए सामवेद में संगीत और वाद्य यंत्रों की संपूर्ण जानकारी मिलती है।
 
वामदेव जब मां के गर्भ में थे तभी से उन्हें अपने पूर्व जन्म आदि का ज्ञान हो गया था। उन्होंने सोचा, मां की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं और यह कष्टकर है अत: मां का पेट फाड़कर बाहर निकलना चाहिए। वामदेव की मां को इसका आभास हो गया अत: उसने अपने जीवन को संकट में पड़ा जानकर देवी अदिति से रक्षा की कामना की। तब वामदेव ने इंद्र को अपने समस्त ज्ञान का परिचय देकर योग से श्येन पक्षी का रूप धारण किया तथा अपनी माता के उदर से बिना कष्ट दिए बाहर निकल आए। 
 
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शौनक : शौनक ने 10 हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि, जो शुनक ऋषि के पुत्र थे। 
 
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परशुराम का आश्रम : जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव-दर्शन से रोक लिया तो रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु का प्रहार कर दिया जिससे गणेशजी का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया।
 
प्रारंभ में परशुराम का आश्रम नर्मदा नदी के तट पर स्थित था। बाद में वे अगत्स्य मुनि की तरह दक्षिण प्रदेश चले गए थे, जहां ‍उन्होंने नया आश्रम स्थापित कर शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी। एक बार श्रीकृष्ण उनसे दक्षिण के इसी आश्रम में मिलने गए थे।
 
सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया। असत्य वाचन करने के दंडस्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।
 
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वेदव्यास : महर्षि वेदव्यासजी का पूरा नाम कृष्णद्वैपायन है। उन्होंने वेदों का विभाग किया इसलिए उनको व्यास या वेदव्यास कहा जाता है। उनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती है। भारतभर में गुरुपूर्णिमा के दिन गुरुदेव की पूजा के साथ महर्षि व्यास की पूजा भी की जाती है। द्वापर युग के अंतिम भाग में व्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने महाभारत सहित सैकड़ों ग्रंथों की रचना की जिनमें से 4 पुराण भी थे। 
 
कृष्ण द्वैपायन वेदव्यासजी ने ब्रह्मा की प्रेरणा से 4 शिष्यों को 4 वेद पढ़ाए-
 
* मुनि पैल को ऋग्वेद
* वैशंपायन को यजुर्वेद
* जैमिनी को सामवेद तथा
* सुमंतु को अथर्ववेद पढ़ाया।
 
उक्त 4 शिष्यों ने दुनियाभर में अपने-अपने आश्रम खोलकर वेदों की शिक्षा दी। इस तरह वैदिक ज्ञान का व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार हुआ और संपूर्ण धरती फिर से वेदमय बन गई थी।
 
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सांदीपनि ऋषि का आश्रम : सांदीपनि ऋषि का आश्रम मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर स्थित ‍‍शिप्रा नदी के किनारे तपोभूमि के रूप में प्रतिष्ठित था। प्राचीनकाल में यह आश्रम जगप्रसिद्ध था तथा यहां से उच्च कोटि के शिष्य गुरु से गुरु विद्या सीखकर गए जिनमें प्रमुख हैं- कृष्ण, बलराम और सुदामा। आज भी सांदीपनि ऋषि के आश्रम के अवशेष पाए जाते हैं।
 
भगवान कृष्ण, बलराम और सुदामा के गुरु थे महर्षि सांदीपनि। इनका आश्रम आज भी मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। सांदीपनि के गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे। श्रीकृष्णजी की आयु उस समय 18 वर्ष की थी और वे उज्जयिनी के सांदीपनि ऋषि के आश्रम में रहकर उनसे शिक्षा प्राप्त कर चुके थे।
 
सांदीपनि ने भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने सर्वज्ञानी होने के बाद भी सांदीपनि ऋषि से शिक्षा ग्रहण की और ये साबित किया कि कोई इंसान कितना भी प्रतिभाशाली या गुणी क्यों न हो, उसे जीवन में फिर भी एक गुरु की आवश्यकता होती ही है। 
 
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गुरु द्रोण का आश्रम : गुरु द्रोण का आश्रम हस्तिनापुर में था। उन्होंने हजारों शिष्यों को शिक्षा दी। उन शिष्यों में पांडु पुत्र पांडव का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। गुरु द्रोण युद्ध से जुड़ी सभी तरह की शिक्षा देने में पारंगत थे।
 
भारत के 16 जनपदों में से एक कुरु जनपद में घुड़सवारी, धनुर्विद्या और अन्य हस्त और दिव्यास्त्रों की शिक्षा का यह प्रमुख आश्रम था। हालांकि यहां ज्योतिष, चिकित्सा और वैदिक ज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। 
 
द्वापर युग में कौरवों और पांडवों के गुरु रहे द्रोणाचार्य भी श्रेष्ठ शिक्षकों की श्रेणी में काफी सम्मान से गिने जाते हैं। द्रोणाचार्य अपने युग के श्रेष्ठतम शिक्षक थे। द्रोणाचार्य भारद्वाज मुनि के पुत्र थे। ये संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। द्रोण का जन्म उत्तरांचल की राजधानी देहरादून में बताया जाता है जिसे हम देहराद्रोण (मिट्टी का सकोरा) भी कहते थे। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि से हुआ जिनसे उन्हें अश्वत्थामा नामक पुत्र मिला।
 
द्रोण के हजारों शिष्य थे जिनमें अर्जुन को उन्होंने विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया। इस वरदान की रक्षा करने के लिए ही द्रोण ने जब देखा कि अर्जुन से भी श्रेष्ठ एकलव्य श्रेष्ठ धनुर्धर है तो उन्होंने एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया।
 
महाभारत युद्ध में द्रोण कौरवों की ओर से लड़े थे। द्रोणाचार्य और उनके पुत्र अश्वथामा जब पांडवों की सेना पर भारी पड़ने लगे, तब एक छल से धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट दिया। द्रोण एक महान गुरु थे। इतिहास में उनका नाम अजर-अमर रहेगा।
 
इसके अलावा अगस्त्य, कश्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन और ऐतरेय के भी गुरुकुल थे।