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Written By WD

'रचनात्मकता पार्ट टाइम जॉब नहीं है

''रचनात्मकता पार्ट टाइम जॉब नहीं है -
- डॉ. सरोज कुमार

WD
(इन दिनों साक्षात्कार विधा का रूप बहुत कुछ रूढ़िबद्ध हो चुका है। वहीं बँधे-बँधाए प्रश्न और उनके नापतौल कर दिए गए उत्तर। ऐसे में बहुत से आवश्यक मुद्‍दे छूट जाते हैं और अनावश्यक/असंबद्ध विवरण प्रमुख हो उठते हैं। यहाँ पर प्रस्तुत है, कवि सरोजकुमार एवं कथाकार विलास गुप्ते के बीच हुई अनौपचारिक बातचीत के अंश।)

* आपाधापी और बदलती रुचियों के युग में साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों को भविष्य में झाँकने के लिए मजबूर कर दिया है। क्या ऐसा नहीं लगता कि आने वाले समय में साहित्य और विशेषकर कविता की एक्सपायरी डेट के बारे में सुनने को मिल जाए।
- एक्सपायरी डेट दवा की होती है, दर्द की नहीं और कविता दर्द के निकट है। इसलिए उसकी एक्सपायरी डेट वही हो सकती है, जो मनुष्यता की मानी जाए।

* ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि पाठक कविता से क्या चाहता है?
इसका उत्तर तो मैं पाठक बनकर ही दे सकता हूँ।

* यह बिल्कुल सही है, क्योंकि लेखक पाठक भी होता है। मेरा मतलब यह भी है कि कवि अपनी कविताओं से क्या चाहता है?
कवि यही चाहता है कि जिस भावना, विचार, दृष्टिकोण को वह अभिव्यक्त कर रहा है वह पूरी ताकत से संप्रेषित हो जाए।

* इसी से जुड़ा मुद्‍दा यह भी है कि पाठक कविता से क्या चाहता है?
- पाठक मूलत: विचार चाहता है, न भावना। वह कवि से किसी नई उक्ति, अभिव्यक्ति और नई बात की अपेक्षा रखता है। नई बात में यह बात भी सम्मिलित है कि यदि बात पुरानी हो तो वह उसे मौलिक और नई अभिव्यक्ति में पाना चाहता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कविता का शीर्षक हो 'प्रेम' तो 'प्रेम' शब्द और भावना के रूप में नई बात नहीं है।

पर पाठक इस कविता को इस तरह अपेक्षा और जिज्ञासा से पढ़ेगा कि देखें प्रेम के किस रूप को और प्रेम को किस रूप में यह कविता अभिव्यक्त करती है। पढ़ने के बाद उसके मन में कवि के प्रति सराहना और संतुष्टि का भाव आ सकता है अथवा वह असंतुष्ट होकर मनपसंद मूल्यांकन कर सकता है।

* मतलब यह कि पाठक की दृष्टि में भी कई बार कविता, कविता नहीं रहती?
- कविता अगर कविता है तो वह हमेशा कविता ही रहेगी। उसका पुराना हो जाना अथवा किसी को पसंद न आना अलग बात है। जरूरी नहीं कि बिहारी के दोहे सबको पसंद आएँ अथवा मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'अंधेरे में' सबको प्रभावित करे। निराला की 'जूही की कली' तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे काव्य-पंडित को पसंद नहीं आई थी।

अभी कुछ ही दिनों में पूर्व ख्यात समीक्षक डॉ. नामवर सिंह ने सुमित्रा नंदन पंत की अधिकांश कविताएँ कूड़े में फेंक देने लायक मानी थीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तो तुलसीदास को कवि ही नहीं मानते थे। जरूरी नहीं ‍कि सब लोग ऐसा मानें। सबकी अपनी-अपनी पसंद और अपना-अपना मूल्यांकन।

* ऐसे में तो काव्य-रसास्वादन के कोई प्रतिमान ही नहीं हो सकते।
प्रतिमान तो हो सकते हैं और प्रतिमान बनाए भी गए हैं, पर वे सब पर समान रूप से चरितार्थ नहीं होते, क्यों‍कि मनुष्य के सोच, विचार और जीवन के प्रति इतने और दुराग्रह हैं कि सब बातें सब पर समान रूप से लागू होना असंभव है।

* क्या इसी कारण आलोचना के अलग-अलग स्कूल कायम हो जाते हैं?
- ठीक कहा। इसी कारण स्कूल अलग-अलग हो जाते हैं, नए-नए वाद और भिन्न-भिन्न शिविर बन जाते हैं। कविता का अहित तब होता है, जब शिविरों में बँटे हुए लोगों की अनुदारता अन्य स्कूलों/वादों/शिविरों की कविताओं को कविता ही नहीं मानने की ठान लेती है।

* ऐसा तो पहले से होता रहा है। देव और बिहारी को लेकर विगतकाल में बहुत घमासान हो चुका है।
- यह सदैव होता रहेगा, क्योंकि मनुष्य की मूल प्रकृति प्रवृत्ति में जो निरंतरता है वह स्वभावगत है, कालगत नहीं।

* आप एक लंबे अरसे से इस क्षेत्र में और काव्य जगत के बाहरी- भीतरी वातावरण को आपने देखा परखा है। अपनी ही शुरू की और आज की कविताओं में क्या फर्क महसूस होता है?
- प्रारंभ में ‍किशोरावस्था की अनुभूतियों और पसंदगी की कविताएँ मैं लिखता रहा। मूलत: वे रोमांटिक हैं। अधिकांश गीत हैं। कॉलेज जीवन में जो संसार मेरे आसपास था, उसे ये कविताएँ खूब पसंद भी आती थीं। उनके पसंद आने ने भी मुझसे वैसी कविताएँ बड़ी संख्या में लिखवाईं। पर अपनी कविता के इस रूप या उसके एकमात्र इस रूप से मुझे आगे संतोष नहीं मिला और दीन-दुनिया से अपनी असह‍मतियों और असंतोष ने मेरे व्यंग्यात्मक रुझान को गति दी। मेरे इस रुझान को ख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर ने पहचानकर मुझे दैनिक नईदुनिया इंदौर में, प्रति सप्ताह एक व्यंग्य कविता लिखने के लिए प्रेरित एवं निमंत्रित किया। 'स्वांत: सुखाय' शीर्षक स्तंभ में मैंने उनके दैनिक में पाँच सौ से अधिक कविताएँ लिखीं।

* 'क्या भविष्य में कोई नया रुझान आने की संभावना है?
- किसी रुझान की कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। कुछ भी हो सकता है और कुछ नहीं भी हो सकता है। नए रुझान से अधिक महत्वपूर्ण है कि मैं रचनात्मकता में सक्रिय रहूँ।

* अब मैं जो कहने जा रहा हूँ, उसे मजाक में न लेकर गंभीरता से लेने की जरूरत है। हमने देखा है कि हिंदी कवि की यात्रा धोती-कुरते, या कुरते-पजामे से होती हुई आज टाई-सूट तक आ गई है। यह केवल बाह्य परिवर्तन है या कविता के मानस में परिवर्तन का प्रतीक भी?
- ऐसा परिवर्तन लगभग समान अनुपात में हर क्षेत्र के व्यक्तियों में आप पाएँगे। इन दिनों का सेठ पगड़ी-कंठहार-अचकन नहीं पहनता। महिलाएँ भी नई-नई वेशभूषा में हैं। युवक भी परंपरागत पोषक में नहीं हैं। यह पोषाकों की प्रगतिशीलता और सभ्यता की करवटों के साथ नई पसंदगियों का परिणाम है। इसका कविता के मानस में परिवर्तन से लेना-देना नहीं है।

* अक्सर आरोप लगाया जाता है कि आज की कविता आम जनता से दूर चली गई है। यह कहाँ तक ठीक है?
- इस आरोप का आधार यह भ्रम है कि कविता कभी आम जनता में बहुत लोकप्रिय थी। कविता आम जनता की चीज कभी नहीं रही। आम जनता को कविता के लिए अवकाश भी नहीं है। आरती/भजन गा लेना काव्य प्रेम नहीं है। कविता सदैव कुछ लोगों को ही प्रिय रही है। अधिकांश कवियों के तो परिवारजन तक काव्यप्रेमी नहीं पाए जाते।
* क्या आजीविका हेतु विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए भी अपनी रचनात्मकता का निर्वाह किया जा सकता है? या उसके लिए फ्री लांसर होना जरूरी है?
- कविता अथवा रचनात्मकता 'जॉब' की तरह सुपरिभाषित कार्य नहीं होती। न हो सकती है। न उसकी 11 से 5 जैसी कोई नियमित कार्यावधि हो सकती है। रचनाकार जितना अपनी रचनात्मकता और उसे समृद्ध एवं पुष्ट करने वाले उपादानों के संसार में सक्रिय रहेगा, उतना ही सफलता की संभावनाएँ उसमें होंगी। रचनात्मकता पार्ट टाइम जॉब नहीं है। न ही छुट्‍टी/फुर्सत का काम। इसके लिए एकाग्रता, वातावरण एवं अनुकूल स्थितियाँ परमावश्यक हैं। इसीलिए हम पाते हैं कि बड़े-बड़े साहित्यकारों को भी उनके ही परिजनों ने घास नहीं डाली। फिर, परिवार के भरण-पोषण का सांसारिक दायित्व रचनाकार के कंधों पर हो तो स्थितियाँ ऐसी नहीं हैं कि साहित्य के बल और भरोसे पर परिवार की आवश्यकताएँ पूरी हो सके।

सारे साहित्यकार नरेश मेहता की तरह धैर्यवान व संतोषी नहीं होते, न परसाई की तरह अकेले, न शरद जोशी की तरह साहसी। साहित्यकार प्राय: जीवन में गहरे डूबा रहते हुए भी जीवन से कटा-कटा प्रतीत होता है। क्योंकि जीवन इधर सांसारिक लिप्तता का पर्याय बना हुआ है। इसलिए वह विवश है पार्ट टाइम रचनाकार होने के लिए। मेरे लिए भी संभव नहीं था कि मैं मात्र कविताओं से जीवन/परिवार चला पाता।

* कवि के रूप में सफलता के क्या मापदंड हो सकते हैं?
- इस प्रश्न का उत्तर मुझे पाठक बनकर ही देना चाहिए। कवि की सफलता को मैं उसकी कविताओं की सफलता में देखता हूँ। मैं कहना चाहूँगा कि कवि का पद, प्रतिष्ठा, विपुल प्रकाशन, पुरस्कार, प्रशस्तियाँ आदि का महत्व उसकी कविता से रूबरू होते समय पाठक के लिए नहीं होता। कविता अगर उसे अपने में समेट पाती है, तभी वह उसके र‍चयिता को नंबर देता। चूँकि इन दिनों दुर्भाग्य से कविता के पाठक कम हो गए हैं इसलिए नंबर एकत्र करने के लिए कवि पुरस्कार आदि के पीछे अधिक दौड़ रहा है।

* कभी कवि सम्मेलन काव्य संस्कारों की पाठशाला के रूप में जाने जाते थे। आज के उसके रूप को देखकर कैसा लगता है?
- जब तालाब का पानी नीचे उतरता है तब चारों तरफ से उतरता। उसी तरह से तमाम गिरावटों के साथ कविता के प्रति सुरूचि और गंभीरता का स्तर कवि सम्मेलनों में भी नीचे गिरा है। पहले कवि सम्मेलन ही काव्य रुचियों की पाठशाला कहे जाते थे, अब पत्र पत्रिकाएँ, आकाशवाणी, दूरदर्शन सभी जगह छोटी-बड़ी ऐसी पाठशालाएँ खुल गई हैं। कवि सम्मेलन से तात्पर्य उन आयोजनों से है, जिसमें काव्यपाठी कवि का जीवित साक्षात्कार श्रोताओं से होता है। कविता ऐसी चीज नहीं है कि वह श्रोताओं के बड़े समूह को काव्य पाठ के साथ-साथ पूरी तरह समझ में आ सके।

कविता ऐसी सरल चीज होती तो कवियों को पढ़ाने के लिए बड़े-बड़े प्राध्यापकों की जरूरत नहीं पड़ती। कवि सम्मेलन में सदैव ऐसी कविताएँ सुनाई जाती रही हैं जो काव्य पाठ के साथ ही साथ श्रोताओं की समझ में आती जाएँ। अर्थ गांभीर्य की कविताएँ कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों, कवि सम्मेलन में नहीं सुनाई जातीं। मुमिक्तबोध ने एक जगह लिखा है कि यदि श्रोता आल्हा-उदल सुनना चाहते हों तो उन्हें कामायनी नहीं सुनाना चाहिए। निराला भी कवि सम्मेलन के योग्य रचनाएँ चुनकर सुनाते थे।

कवि सम्मेलन में कविता और उसका परफार्मेंस/प्रस्तुति दोनों महत्वपूर्ण होते हैं, केवल कविता से काम नहीं चलता। उसी तरह केवल परफार्मेंस से भी नहीं चलना चाहिए। इधर कविता कम और परफार्मेंस अधिक हो गया है। कवि सम्मेलनों को लोकप्रिय बनाने की होड़ में कविता का स्तर भी गिरा है और दुर्भाग्य से चुटकुले मंच पर चढ़ चुके हैं।

* आमतौर पर कहा जाता है कि टेक्नोलॉजी कलाओं की दुश्मन होती है, पर साहित्य का नाता केवल भावनाओं से नहीं होता है। उसका बौद्धिकता से भी गहरा संबंध है। या बौद्धिक उपकरणों से साहित्य का अंतर्गत परिपुष्ट होता है?
कैसे?

* पुस्तकें, रेडियो, टीवी आदि।
इसका नवीनतम रूप है इंटरनेट।

* बिलकुल हिंदी की वेबसाइट, पत्रिका का इलेक्ट्रॉनिक रूपांतर है।
निश्चित ही वह ऐसा रूपांतर है, पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को मैं कलाओं का दुश्मन नहीं मानता। उपकरण तो साधन है, रचना नहीं। उपकरणों के उपयोग का कौशल रचनाकारों में होना चाहिए। नहीं हो, तो विकसित करना चाहिए। नए अन्वेषणों को प्रथम दृष्टि में परंपरागत विचारों की सदैव भर्त्सना सहनी पड़ी है। नई टेक्नोलॉजी के आगे चलाए जा रहे प्रश्न चिह्न भी उसी प्रवृत्ति के द्योतक हैं।

* हिंदी का लेखक कंप्यूटर से जुड़ रहा है, ऐसे में हिंदी वेबसाइट का क्या भविष्य है?
- निश्चित ही उसके सुपरिणाम होंगे। यह भी एक माध्यम है। साहित्य इस माध्यम से भी अनेक ऐसे पाठकों तक पहुँच सकेगा जो न जाने कहाँ-कहाँ संसार के किसी कोने में हो सकते हैं।

* उम्मीद करें कि हिंदी की सर्वांगीण वेबसाइट से एक नए किस्म की साक्षरता विकसित होगी।
- यदि इंटरनेट सर्वसुलभ हो सका तो निश्चित ही अभिव्यक्ति/संप्रेषण का फलक विस्तृत हो। ऐसा होना लेखक और पाठक दोनों के हित में होगा।

* उम्मीद करें कि वह दिन शीघ्र आएगा।
- वह अध्याय रोचक भी होगा।

(साभार : कथाबिंब)