मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ
फाल्गुनी
दोस्त, तुम्हें पता है जब से तुम मेरी यादों से लापता हो मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ वह शहद जो श्वेत आँखों में बादामी बन कर तुम तक बह जाया करता था वह आँसुओं में रूपांतरित हो ना जाने कैसा स्वाद दे रहा है शायद, मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ। तुमने प्यार के हर स्वाद दिए सोचा था जाते हुए दोगे कोई सबसे अलग अनोखा-सा स्वाद जो मुझे भीतर से मधुर बनाए रखेगा तुम इतना कसैला कर गएहमारा रिश्ता कि मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ। अब नहीं आती याद, तुम्हारी बात, तुम्हारी आँख, और तुम्हारा मीठा प्यार भी अब नहीं याद, उलझनों ने हम दोनों कोकर दिया बेस्वादलौट कर आना चाहूँ भी तो कैसे क्या लाऊँगी तुम्हारे लिए नफरतों के गुलाब और आरोपों के झरते गुलमोहरनहीं दोस्त, मुझे जाने दो तुम्हारे लिए, मैं तुम जैसी नहीं रही तुम्हारे ही कारण, मैं बहुत कड़वी हो रही हूँ।इसे अफवाह मत समझना यह सच है, मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ।