मैं एक टुकड़ा आसमान देती हूँ
काव्य-संसार
नाज़िया खातून अंसारी मैं एक टुकड़ा आसमान देती हूँ थोड़ा अपने चेहरे पर मल लेना देखना... सुबह की उगती भोर-सी लगती है कि नहीं? थोड़ा .. इसे चख कर तो बताना कि इसमें मिठास है कि नहीं? कभी ठंड लगे तो लपेट लेना इस अपने चारों ओर देखना.. इसमें मेरे स्पर्श की गर्माहट है कि नहीं? कभी बहती हवा की दिशा में उड़ा देना इसे पंछियों की तरह देखना.. इसके पर होने का आभास है कि नहीं? कि आओ, तुम्हें एक टुकड़ा आसमान देती हूँ तकिए के नीचे दबाकर सोना देखना... मेरे समर्पण का अहसास है कि नहीं? कि आओ, एक डिबिया देती हूँ इसे उसमें रख लेना देखना .. सपने कैसे सोते हैं? आओ, मैं तुम्हें एक मुट्ठी सुकून देती हूँ इसे ज़िंदगी की ज़मीन में बो देना देखना.. खुशियों की फसल कैसे उगती है? उन फसलों से एक-एक बीज दँव लेना देखना.. आँसू और खुशी का दाना कैसा होता है? कि आओ ... तुम्हें एक दृष्टि देती हूँ देखना ..कि पूरी सृष्टि कैसे एक नन्हे दाने से उगती है।