बुधवार, 24 अप्रैल 2024
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Written By WD

कविता : अच्छा लगता है

कविता : अच्छा लगता है - कविता : अच्छा लगता है
निशा माथुर
कभी-कभी यूं ही, बैठे-बैठे मुस्काना अच्छा लगता है
खुद से खुद को भी, कभी चुराना अच्छा लगता है
लोग कहते हैं कि‍ मैं धनी हूं मधुर स्वर्ण हंसी की
निस्पृह बच्चे-सा निश्छल बन जाना अच्छा लगता है
 
वासंती संग मोह जगाना, जूही दलों संग भरमाना
सतरंगी सुख स्वप्न सजाना, सब अच्छा लगता है
जब बन जाते हैं यादों के बनते बिगड़ते झुरमुठ
असीम आकाश में बाहें फैलाना अच्छा लगता है
 
मन के आतप से जल, कुनकुनी धूप में फुर्सत से
भाग्य निधि के मुक्तक को रचना अच्छा लगता है
नन्हें पंछी को तिनका-तिनका नीड़ बनाना देख,
अभिलाषाओं पे अपने मर मिट जाना अच्छा लगता है
 
धूप-धूप रिश्तो कें जंगल, नहीं खत्म होते ये मरूथल 
जलते संबंधों पे यूं, बादल लिखना अच्छा लगता है
पूर्णविराम पे शून्य बनकर, शब्दों से फिर खाली होकर
संवेदनाओं पे रोते-रोते हंस जाना, फिर अच्छा लगता है
 
दर्पण देख-देख इतराना, अलकों से झर मोती का झरना
अंतर्मन के भोज पत्र पर, गीत सजाना अच्छा लगता है
कभी-कभी यूं मुस्काना और गालों पे हिलकोरे पड़ना 
मधुमय वाणी में कुछ अनबोला रह जाना अच्छा लगता है