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एक और नया गीत
शलभ श्रीराम सिंह चंपा ने जब पलाश को देखाथोड़ी-सी और खिल गई! एक की हथेली ने पोंछ लियादूजे के माथे का पसीनासहसा आसान हो गया जीनाबिन खोजे राह मिल गई! चंपा ने जब पलाश को देखाथोड़ी-सी और खिल गई! ईहा की बँधी हुई मुट्ठियाँजीवन के उठे हुए पाँवदेख - फ़र्क़ अपना खो बैठे हैं जाड़ा-बरसात- धूप-छाँव!कुंठा की नींव हिल गई!
चंपा ने जब पलाश को देखाथोड़ी-सी और खिल गई! साभार : वागर्थ